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भारत और अन्य देशों का पारस्परिक संबंध २११ सेवा में भेजा। भिक्षुओं द्वारा उपहार पाकर और उपदेश सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने यह विषय अपने सामंतों के सम्मुख रखा कि इन उपहारों को स्वीकार करना चाहिए अथवा लौटा देना चाहिए ? वहाँ दो पक्ष हो गए। सोगा परिवार स्वीकार करने के पक्ष में था और दूसरे लोग अस्वीकार करने पर बल दे रहे थे। परिणामतः उपहार सोगा परिवार को सौंप दिए गए और उसे अवसर दिया गया कि वह नए देवता की पूजा करके देखे। शीघ्र ही देश में भयंकर महामारी फैली और लोग मरने लगे। इस अवस्था में विरोधी लोगों ने इसका दोष बुद्ध को देते हुए मंदिर जला डाला और मूर्ति नहर में फेंक दी तथा राजा ने सिमाई को संदेश भेजा कि कृपा करके ऐसी मूर्तियाँ आगे से न भेजें। राजा की इस श्राज्ञा के बाद भी भिक्षु और भिक्षुणियाँ मूर्ति, धर्मप्रथ और पवित्र धातु लेकर जापान पहुँचते रहे। इस नए धर्म की ओर स्त्रियाँ भी श्राकृष्ट हुई। यही कारण है कि ५७७ ई० में पाक्चि के राजा ने एक भिक्षुणी जापान भेजी। ५८४ ई० में बहुत सी स्त्रियाँ संघ में प्रविष्ट हुई। ५८८ में कुछ जापानी स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करने कोरिया गई। इस प्रकार छठी शताब्दि का अंत होने से पूर्व जापान में बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रचार हो चुका था। इस समय जापान की शासिका सुईको थी और शो-तो-कु-ताइशी इसका उपराज था। ये दोनों बौद्धधर्म के पक्षपाती थे। इनके समय बौद्धधर्म की बहुत अभिवृद्धि हुई। बौद्धधर्म के प्रवेश के साथ जापान में कला, साहित्य और सभ्यता की उन्नति प्रारंभ हुई। यही कारण है कि शो-तु-कु-ताइशी जापानी इतिहास में सभ्यता का संस्थापक माना जाता है और आज दिन भी जापानी लोग बौद्धधर्म को सामाजिक संगठन का स्तंभ मानकर पूजते हैं। जापान का यही प्रथम समाट् था जिसने आम घोषणा करके बौद्धधर्म को राष्ट्रधर्म के रूप में स्वीकार किया था। ६०७ ई० में शो-तो-कु ने एक दूतमंडल चीनी दरबार में भेजा। इस दूतमंडल के साथ बहुत से विद्यार्थी और भिक्षु भी चीन गए। स्वदेश लौटकर इन्होंने प्रचार-कार्य में बहुत हाथ बँटाया। शो-तो-कु अपने आचार में समाट् अशोक से बहुत मिलता था। शिक्षा द्वारा, दुर्भिक्ष में अन्न वितरण कर और बिना मूल्य औषध बाँट कर इसने नाना प्रकार से धर्म-प्रचार किया।
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