Book Title: Vikram Pushpanjali
Author(s): Kalidas Mahakavi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 227
________________ भारत और अन्य देशों का पारस्परिक संबंध २१७ इस प्रकार भारतीय प्रचारक, आवागमन के मार्गों से सर्वथा शून्य, समय से बहुत पिछड़े हुए उन तिब्बतियों के देश में भी एक दिन बर्फीली चोटियों को पार कर सब प्रकार की विपत्तियों को झेलकर प्रविष्ट हुए। उन्होंने कैलाश के श्वेत शिखरों और राजहंसों की जन्मभूमि मानसरोवर के तट पर खड़े होकर 'बुद्धं शरणं गच्छामि' के पवित्र नाद से सारे तिब्बत को गुँजा दिया । भारतीय विश्वविद्यालयों की शैली पर विद्यालय खोले। भारतीय वणेमाला, ब्याकरण, साहित्य, दशेन, ज्योतिष और तंत्रशास्त्र का प्रचार किया। भारतीय भार, नाप और मुद्रा को प्रचलित किया। सहस्रों संस्कृत प्रथों को तिब्बती भाषा में अनूदित कर बुद्ध का संदेश सर्वसाधारण तक पहुँचाया। यह गर्वपूर्वक कहा जा सकता है कि विशुद्ध भारतीय नीव पर तिब्बती धर्म का महाप्रासाद खड़ा किया गया। उसकी एक एक ईट भारतीय सांचे में गढ़ी गई। आज से १३०० वर्षे पूर्व भारतीय प्रचारकों ने जिस रंग को उस पर चढ़ाया था वह आज भी फोका नहीं पड़ा है। रहन-सहन, आचार-व्यवहार, कला-कौशल सबमें भारत की अमिट छाप स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकरण को हम सिलवाँ लेवी के इन शब्दों से समाप्त करते हैं "भारत ने उस समय आध्यात्मिक और सांस्कृतिक साम्राज्य स्थापित किए थे जब सारा संसार बर्षरतापूर्ण कृत्यों में संलग्न था और जब उसे इसकी तनिक भी चिंता न थी। यद्यपि आज के साम्राज्य सनसे कहीं अधिक विस्तृत हैं, पर उच्चता की दृष्टि से वे इनसे कहीं बढ़कर थे, क्योंकि वे वर्तमान साम्राज्यों की भाँति तोप, तमंचे, वायुयान और विषैली गैसे द्वारा स्थापित न होकर सत्य और श्रद्धा के आधार पर खड़े हुए थे।" भरव पीछे हमने बौद्ध संस्कृति के प्रसार का वर्णन किया है, पर तु यह केवल बौद्धधर्म ही न था जो हिमालय और समुद्र के पार पहुंचा था। बौद्ध प्रचारकों की भांति हिंदू प्रचारक भी अपनी मातृ-संस्कृति का प्रचार विदेशों में कर रहे थे। जिस समय बौद्ध-प्रचारक हिमालय की बर्फीली और विकट शिखरावली पर चढ़ते-उतरते हुए त्रिविष्टप में प्रविष्ट हो रहे थे ठीक उसी समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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