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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
जल मार्ग का अवलंबन किया था। इन देशों में बसकर भारतीयों ने मातृभाषा, मातृसंस्कृति और मातृकला को विकसित किया। भारतीय नगरों के नाम पर अयोध्या, कौशांबी, श्रीक्षेत्र, द्वारवती, तक्षशिला, मथुरा, चंपा, कलिंग आदि नगर बसाए । जावा, अनाम और कंबोडिया में आज भी कला के सैकड़ों उत्कृष्ट नमूने इन प्रवासी भारतीयों की अमर स्मृति के रूप में विद्यमान हैं। भारत का यह विस्तार मुख्यतः आर्थिक और अंशतः राजनैतिक दृष्टि से हुआ था । जे लोग इन देशों में बसे उन्होंने सुदूर देशों में रहते हुए भी भारत से सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध जारी रखा। यद्यपि आज बालि का छोड़कर अन्यत्र कहीं भी न तो हिंदुओं का शासन ही है और न जनता ही हिंदू है तथापि बोरोबुदूर, प्रधानम्, अंकार, बेमन आदि सैकड़ों मंदिर आज भी इन देशों की अतीतकालीन हिंदू-संस्कृति का स्मरण करा रहे हैं। कंबोडिया के राजमहल में अब तक इंद्र की तलवार सुरक्षित है । नाच-गान, आमोद-प्रमोद और कथा-कलाप में जावा आदि द्वीपों के छोटे छोटे बालक-बालिकागण राम और कृष्ण की कथाओं द्वारा अपना संबंध हिंदुओं के किसी प्राचीन वंश से प्रकट कर रहे हैं । प्रायः इन सभी द्वीपों में प्राप्त अगस्त्य ऋषि की प्रतिमाएँ भारत में प्रसिद्ध उनके समुद्रपान तथा दक्षिण दिशा में जाकर बसने की समस्या का सुदर समाधान कर रही हैं। कंबोडिया को सिरायु नदी और सुमेरिया शिखर आज भी मातृदेश के सरयू और सुमेरु का स्मरण करा रहे हैं। स्थान स्थान पर चट्टानों और मंदिरों पर उत्कीर्ण संस्कृत लेखों, रामायण, महाभारत और बुद्धचरित के कथानकों से अतीत का वह भव्य चित्र आँखों के सामने नाचने लगता है जब कि इन देशों में संस्कृत का प्रचार था; गीता, रामायण, महाभारत और बुद्ध-चरित का पाठ होता था । यह बृहत्तर भारत कैसे बना और किन कारणों से इसका दुःखद अंत हुआ, उसका संक्षिप्त उल्लेख यहाँ किया जाता है ।
कंबुज (कंबोडिया)
ईसा की प्रथम शताब्दि में समूचे कोचीन चीन, कंबोडिया, दक्षिण लो, स्याम और मलाया प्रायद्वीप में एक हिंदू राज्य की सत्ता दिखाई
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