________________
भारत और अन्य देशों का पारस्परिक संबंध
[ लेखक-श्री चंद्रगुप्त वेदालंकार ]
१-सांस्कृतिक संबंध संसार के इतिहास का अनुशीलन करता हुआ भारतीय विद्यार्थी अन्य देशों के विजयी इतिहास पढ़कर सोचता है कि क्या हमारे देश का भाग्य भी कभी जगा है ? क्या इस पुण्यभूमि के उपासकों ने भी कभी अपना विस्तार किया है ? क्या हमारे भी कभी सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक सामाज्य फैले हैं ? वह अनंत से पुनः प्रश्न करता है, क्या यह सच है कि रघु ने दिग्विजय की थी, राम ने लंका जीती थी और अर्जुन पाताल देश तक गया था ? वह भारत के पुरातन खंडहरों को देखता है और कुछ निश्चयात्मक स्वर में पूछता है, नालंदा
और तक्षशिला के विश्वविद्यालय क्या यहीं थे, जिनमें दूर दूर के देशों से विद्यार्थिजन शिक्षा प्राप्त करने आते थे और प्रविष्ट न हो सकने पर निराश हो अपने देशों को लौट जाते थे ? हन्त्सा और फाहियान ने क्या इन्हीं विश्वविद्यालयों में शिक्षा पाई थी ? क्या सचमुच मेरे ही देश को पुण्यभूमि समझकर चीनी लोग तीर्थयात्रा को आते रहे हैं ? वह अतीत का स्मरण करता है और . स्मृतिपट पर बिखरी हुई स्थापनाओं को दोहराता है। जब देवानांप्रिय तिष्य को आध्यात्मिक प्यास बुझाने के लिये कोई स्रोत ढूँढ़ने की चाह हुई तो उसने अशोक से प्रार्थना की और कुमार महेंद्र तथा कुमारी संघमित्रा भगवान बुद्ध का सत्य संदेश देने सिंहलद्वीप पहुँचे। जब चीन को नए प्रकाश की चाह हुई तो उसने बुद्ध की शरण ली। जब तिब्बत को आत्मिक उन्नति की तड़प का अनुभव हुआ तो शांतरक्षित, पद्मसंभव और अतिशा को निमंत्रित किया गया। जब अरब में कला, साहित्य और विज्ञान की खोज की गई तो भारतीय पंडितों का स्मरण किया गया। जावा, कंबोडिया और अनाम तो भारतीयों द्वारा बसाए हुए उपनिवेश ही हैं। सुदुरपूर्व के निवासी तो शिव, विष्णु और बुद्ध के
२६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com