Book Title: Vikram Pushpanjali
Author(s): Kalidas Mahakavi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 210
________________ २०० नागरीप्रचारिणो पत्रिका इस अग्नि-परीक्षा में पड़कर भी पौरव अपने अक्षुण्ण गौरव के साथ उत्तीर्ण हुए। वीर भाव उनमें कूट कूटकर भरा था। केकय देश की वीरपर पराओं को उन्होंने अपने देव-कल्प साढ़े छः फुट ऊँचे शरीर में धारण कर रखा था, जैसा कि सीमांत-प्रदेश के अधिपति में होना चाहिए। बढ़ती हुई यूनानी सेना के आक्रमण ने राजा पौरव को तुब्ध किया। "मेरा नाम पहली हवि है" (हविरस्मि नाम)-यह कहकर उन्होंने पचास सहस्र भारतीय सेना की अभेध प्राचीर खड़ी करके यवन-सेनापति की गति को जेंक दिया। इस भारतीय सेना में तीस सहस्र भारतीय पदाति थे, जो छः फुट लंबे धनुष को खींचकर नौ फुट लंबे बाण छोड़ते थे। उस भयंकर युद्ध में पौरवराज ने असीम साहस और बल का परिचय दिया। उनके प्राणों से भी प्यारे दो पुत्र युद्ध की बलि हुए, अनेक सेनाध्यक्षों ने भी अपनी आहुति दी और स्वदेश की पताका को ऊँचा रखा। क्षत्रियों का कर्म क्षात्र धर्म का परिचय देना है। युद्ध का बलाबल परिणाम देवाधीन होता है। हर्ष की बात है कि राजा पौरव ने जिस जुझाऊ यज्ञ का प्रारभ किया था, क्षुद्रक-मालव जैसे लड़ाकू गण-राज्यों ने उसे आगे जारी रखा और अंततोगत्वा यवन-सेना भारत-विजय की आशा छोड़कर हृदय और शरीर दोनों से थको-माँदी अपनी जन्मभूमि के लिये वापस फिरी। राजा पौरव के पराक्रम का सूचक यह पदक अपने गौरवशाली सकेतों के साथ साथ कुछ विषाद को भी रेखाओं को प्रकट करता है। ये रेखाएँ तक्षशिला के राजा आभि का चरित्र है। अपने पड़ोसी देश अभिसार के राजा और केकय के राजा श्राभि की कुछ अनबन थी। खेद है कि उसी वैर की भाग को ठंढी करने के लिये श्रामि ने तक्षशिला के द्वार यवन आक्रमणकारी के लिये खोल दिए और नगर की सब सेना तथा सपत्ति भी उसके अर्पित कर दी। आंभि के इस क्षुद्र कर्म से वीर पौरव कितने उत्तप्त हुए, यह इस बात से जाना जा सकता है कि सप्रामभूमि में घाव से लथपथ अपने दक्षिण बाहु के अंतिम प्रहार का लक्ष्य उन्होंने आमि को ही बनाया। पौरवपराक्रम-सूचक यह पदक भारतीय इतिहास के वीर-भाव का सूचक तो है ही, उसके करण पक्ष का भी एक प्रतीक है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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