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नागरीप्रचारिणी पत्रिका सोसरी जगह ( ४८।१५) शौडिक, तथा कुकुर पाए हैं। शकों के विषय में कुछ कहने से पहले यह मावश्यक नहीं कि हम उन प्राचीन ग्रीक अवतरणों की भी जाँच-पड़ताल करें जिनमें शकों का वर्णन है। चीन के इतिहास में इनका उल्लेख सई नाम से किया गया है, और सबसे प्राचीन वृत्तांतों में 'साई वांग' कहा गया है। १६० ई० पू० में ये अपने देश में यू-ची द्वारा निकाल दिए गए। साई वांग के अर्थ, कोनो के अनुसार, शक-मुरुड या शक-स्वामी होता है (का० इं० इं०, भाग २, पृ०२०)। चीनो ऐतिहासिकों के अनुसार यू-शियों द्वारा हराए जाने के बाद साई-वांग किपिनिया (कपिशा) को ओर बढ़े। इस संबंध में अभी ऐतिहासिकों का एकमत नहीं हो सका कि शकों ने दक्षिण बढ़ने का कौन सा रास्ता पकड़ा। कुछ लोगों का कहना है कि यासीन घाटो होते हुए वे कश्मीर, उद्यान या स्वात गए तथा कपिशा उनके अधीन हुई। परंतु आधुनिक मतों के अनुसार वे हिरात होते हुए सीस्तान गए। इस विषय में टार्न (पृ० २७८ ) का भी एक मत है। उनके अनुसार दक्षिण की
ओर भागते हुए शकों ने जक्सार्थ के पास फर्गना को पार किया। ऐसा लगता है कि यहाँ उनका कबीला भंग हो गया। हो सकता है कि उसमें से कुछ जस्थे उन कान-न्यू लोगों में, जिनका अधिकार ताशकंद प्रदेश पर था, मिल गए। जो शक कपिशा पहुँच गए उन्होंने शकरौची, जिनको अधिकार खोजंद तथा उसके पास के घास के मैदानों पर था, लोगों का साथ पकड़ लिया। बाकी शक फगना के ग्रीक इलाके में बस गए और यहीं पर १२८ ई० पू० में उनकी चांग-कियांग से मुलाकात हुई।
तुखारों के संबंध में भी विद्वानों में काफी चर्चा रही है। रिस्तुफिन, हर्जफेल्ड आदि विद्वानों का मत रहा है कि तुखारी यू-शी की शाखा थे। इनके
आदिम-निवास के प्रश्न पर भी काफी बहस रही है। टान के अनुसार तुखार यू-शी कबीले की एक शाखा थे (टान, पृ० २८६)। तुखारों का भाषा के संबंध में काफी बहस रही है। एक मत यह था कि वे अपनी भाषा यूरोप से लाए, लेकिन इस संबंध में अभी तक ठीक निर्णय नहीं हो सका। .. कंकों की पहचान चीनी ऐतिहासिकों के कांकू से की जा सकती है, जो सोग्दियाना के रहनेवाले थे। चांग-के के अनुसार कांकू दक्षिण की ओर
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