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उपायनंपर्व का एक अध्ययन
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रहनेवाली एक बर्बर जाति थी, जिसकी भाषा ईरानी- मिश्रित संस्कृत थी (ज० ओ० र० स० १९११, ८०२ ) ।
कंबोज शब्द की व्युत्पत्ति लगता है यास्क ( २, १, ४ ) के समय में भी ठीक ठीक नहीं होती थी, क्योंकि यास्क ने यह अनुमान लगाया है कि शायद कंबोज वे भाज थे जो अच्छे कंबल पहना करते थे। इसी बात से यह पता चल जाता है कि कंबोज शब्द को ठीक व्युत्पत्ति से हमारे पंडित अपरिचित थे। बौद्ध साहित्य की एक गाथा ( फॉसबाल ६, २१० ) से जिसे सबसे पहले डा० कुह ने उद्धृत किया था ( ज० ओ० र० स० १९१२, पृ० २५५-५७ ) इस बात का अनुमान और दृढ़ हो जाता है कि कंबोज ईरानी नस्ल के थे I इस गाथा में कहा गया है कि वे मनुष्य पवित्र हैं जो मेंढक, कीड़े, साँप इत्यादि मारते हैं । ये पारसियों के धार्मिक साहित्य में अहमनी जीव. माने गए हैं।
तवत्थु की परमार्थदर्शिनी टीका (पी० टी०) में द्वारका का नाम कंबोज के साथ आता है । यह संदर्भ कंबोज की ठीक पहचान के लिये बहुत आवश्यक है जिसका जिक्र हम आगे चलकर करेंगे ।
सभापर्व (११।२४ ) में कंबोज बर्बरों के साथ आए हैं; उद्योगपर्व ( १८६, ८० ) में इनका संबंध शक- पुलिंद तथा यवनों के साथ आया है । हरिव ंश ( १३-०६३-६४; १४, ७७५-८३ ) में आया है कि कंबोज पहले क्षत्रिय सगर की आज्ञा से पतित किए गए और उनका सिर यवनों की भाँति मूँड़ दिया गया। पाणिनि के गणपाठ
यवनमुंड और
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* कीटा पतङ्गा उरगा च भेका हन्त्वा किमि सुज्झति मक्खिका च । एतो हि धम्मा अनरियरूपा कम्बोजकान वितथा बहुन्नम् ॥
+ " शकानां शिरसौ मुण्डयित्वा विसर्जयत् ।
यवनानां शिरः सर्वं कंबोजानां तथैव च ॥ पारदा मुक्तकेशाश्च पल्लवाः श्मश्र धारणैः । निःस्वाध्यायवषट्काराः कृतास्तेन महात्मना ॥
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