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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
रघुवंश (४, १७ ) के कथनानुसार कांबोज में रत्नों की खाने थीं। वुड ने अपनी वक्षु की यात्रा में बताया है कि इशिकाश्म से २० मील की दूरी पर धरान प्रदेश में वक्षु के दक्षिणी किनारे पर माणिक्य की खाने हैं, कोक्चा की घाटी में राजवर्त (लाजवर्द ) की खाने हैं (वुड, वही पृ० १७१) । बदख्शाँ की चाँदी की खाने भी प्राचीन काल में मशहूर थीं। अरब काल में दरा तथा खान में चाँदी की खाने थीं (बार्थोल्ड, तुर्किस्तान डाउन टु दि मंगोल इन्वेजन, पृ० ६५-६७ )।
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इस संबंध में यह भी जानने योग्य है कि पंजाब में कंबोख नाम की एक कृषि प्रधान जाति है, परंतु यह कहना मुश्किल है कि प्राचीन कंबोजों से इनका क्या रिश्ता था। इनमें बहुत सी अनुश्रुतियाँ हैं कुछ कंबों का आदिस्थान काश्मीर बतलाती है और कुछ गढ़ गजनी । कुछ का कहना है कि महाभारत युद्ध में कबो जाति के पूर्व पुरुषों ने कुरुओं का साथ दिया था । महाभारत के युद्ध के बाद बचे-खुचे कबो नाभा में बस गए ( रोज – ए ग्लॉसरी ऑव दि कास्टस एंड ट्राइब्स इन पंजाब एंड नार्थ वेस्ट
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काल के
इनमें से
इनमें से
फांटियर, भाग २, पृ० ४३ - ४४ )। यह मार्के की बात श्रुतियाँ कब/जों की स्थिति सिधु पार बतलाती हैं। पुराने 'बोजों के आधुनिक प्रतिनिधि हों ।
कार्पासिक - ( सभा० ४७/७) । यह शब्द साहित्य में बहुत ही कम आया है, और महाभारत में तो इसका एक ही बार उल्लेख हुआ है । शब्द की ऐतिहासिकता साँची के एक लेख से सिद्ध होती है । १४३ सं० के अभिलेख में कार्पासी ग्राम के अरह नामक एक मनुष्य के भेट का उल्लेख है ( मानूमेंट्स ऑव साँची, भाग १, पृ० ३१४ ) ।
महाभारत कार्पासिक की स्थिति पर चुप है, इसलिये हमें यह देखना है कि दूसरे साहित्य से उसकी भौगोलिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है या नहीं । फान-यूत्सामिंग नामक संस्कृत चीनी प्रथ लि-एन ( ७१३-७९५ ई० ) के द्वारा लिखा गया है। उसमें किपिन और कपिशा के लिये संस्कृत शब्द कर्पिशय
है कि ये सब अनुहो सकता है कि ये
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* प्रबोधचंद्र बाग्ची - दि लेक्सीक संस्कृत शिन्वा, भाग २, पृ० ३४५ |
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