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नागरीप्रचारिणी पत्रिका अर्जुन ने बाल्हीक से उत्तर की ओर जाने के लिये कौन सा मार्ग लिया। इस प्रश्न का दारोमदार वल्गु' शब्द की पहचान में है। विचार करने पर पता लगता है कि 'वल्गु' पूर्वी अफगानिस्तान की वगलान नदी है। वक्षु प्रदेशों की जांच-पड़ताल में वुड तथा लॉर्ड ने उस रास्ते की पड़ताल की जो कुंदूज से दक्षिण की ओर कुंदूज नदी के साथ साथ कुंदूज और बगलान के संगम तक जाता है। वहाँ तक पहुँच कर वे लोग नदी के ऊपर चलते हुए मुर्गदरे से होकर अंदराब की घाटी में आए और फिर पूरब की तरफ होते हुए खावक दरें को पार करते हुए वे पंजशीर घाटी पहुंचे और वहाँ से काबुल। यह रास्ता कठिन न था। वक्षु तथा काबुल के बीच में केवल दो दरें मिले जो इतने ऊँचे न थे कि उनसे कोई कठिनाई पड़ सके (होल्डिश-दि गेट्स ऑव इंडिया, पृ० ४३५)। अर्जुन शायद इसी पर्वत से श्वेत पर्वत, जिसे हम सफेद कोह कहते हैं, लौटे। लेकिन उत्तर में परम कांबोज तथा ऋषिकों से लड़ते जाते हुए अर्जुन ने बगलान का रास्ता छोड़ दिया, नहीं तो वह सीधा काबुल पहुँच जाता। वह सीधा उत्तर की ओर बढ़ा और लड़ाई में उसने कांबोजों को दरदों के साथ जो उसकी मदद के लिये दोरा दरे से, जो हिंदुकुश और बदख्शाँ को जोड़ने का एक प्रधान दर्रा है, आए थे, हराया (होल्डिश, पृ० ४३५)। लड़ाई का दूसरा दौरा तब शुरू होता है जब अजुन उत्तर-पूरब की तरफ बढ़ा ( सभा०, २४।२३)। यहाँ उसने बहुत से दस्यु जनपदों को हराया। शायद ये दस्यु उन पूर्वी ईरानी बोलनेवालों के पुरखे होंगे जिन्हें आज दिन हम 'बखानी', 'शिघनानी', 'रोशनी' तथा 'शरीकोली' कहकर पुकारते हैं। इसके बाद अर्जुन ने लोह, परम कांबोज, ऋषिक, उत्तर ऋषिकों की संयुक्त सेना को हराया ( सभा०, २४।२४)। परम कांबोजा की पहचान जयचंद्र विद्यालंकार ने (भारतभूमि और उसके निवासी, पृ० ३१३-१४) गल्चा बोलनेवाले याग्नूदियों से की है, जो याब्नब नदी के ऊपरी हिस्से में पामोर के उत्तर में रहते हैं। जयचंद्रजी ने 'यू-शी' लोगों की पहचान ऋषिकों से की है। ऋषिको और यू-शी लोगों की पहचान का प्रश्न बहुत पुराना है। इस प्रश्न का सबध शकों को भाषा आत्शीकांत की पहचान से है ( कोनो का० इ० ई०, ५८, नो० ३)। इस संबंध में बहुत कुछ बहस हुई है, जिसका वर्णन यहाँ
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