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नामकरण
पामीर ( कंबोज ) का प्राचीन भूगोल एक प्रकार से बिलकुल भारतीय संस्कृति की देन है और भारतवर्ष का जो सबसे पुराना प्राक-पाणिनि-काल का साहित्य है, उसके साथ उस भूगोल का घनिष्ठ संबंध है। विक्रम की लगभग दसवी शताब्दी तक सिधु के उस पार के देशों से भारतवर्ष की हिंदू-सस्कृति का सबंध अटूट बना रहा। उस समय सिंधु के तट पर उद्भोडपुर नामक राजधानी (आधुनिक ओहिद ) में हिंदू धर्म के अनुयायी शाही राजाओं का आधिपत्य था।
सिंधु नाम से हिंदू शब्द की कल्पना का संबंध मुस्लिमकाल से समझना भ्रम है। मुसलमानी धर्म के जन्म से भी बारह सौ वर्ष पहले ईरानी सम्राट् दारी (प्राचीन रूप दारयवहु, संस्कृत धारयद्वसु) के शिलालेखों में विक्रम से छठी शताब्दी पूर्व में भारतीय प्रदेशों के लिये हिंदु शब्द प्रयुक्त हुआ था। प्राचीन शुषा (आधुनिक सूसा) के राजमहल से मिले हुए शिलालेख में लिखा है
पिरुष ह्य इदा कर्त हचा कुष् श्रा उता हचा हिन्दउव उता हचा हरउवतिया अवरिय (पंक्ति.४३-४४)।
अर्थात् (इस राजप्रासाद के लिये) हाथीदांत जो यहाँ बनाया गया, वह कुष देश से, और हिंदु से, और हरह्वती से लाया गया।
इसमें हिदउ हिदु शब्द की सप्तमी का एकवचन संस्कृत सिन्धौ के बराबर है। उस समय भारतवर्ष का हिंदु नाम ईरान आदि विदेशों में प्रसिद्ध था।
दारा के अन्य लेखों में 'हिंदुष' अर्थात् हिदु (सं० सिधु.) और 'हिंदुवित्र' अर्थात् हिदु देश का निवासी (सं० सिधुव्यः) ये शब्द भो प्रयुक्त हुए हैं। पाणिनि के भूगोल के अनुसार सिधु एक जनपद-विशेष का नाम भी था, जो आधुनिक पंजाब का सिंध-सागर दोआब है। यह स्मरण रखना चाहिए कि जिसे अब सिध कहते हैं उसका प्राचीन नाम सौवीर था। प्राचीन सिधु जनपद का नाम सिंधु नदी के तट पर दूर तक फैले हुए होने के कारण ही पड़ा था। इसलिये यद्यपि एक जनपद-विशेष के लिये भी सिधु शब्द रूढ़ हो गया था, फिर भी भारत देश के लिये उसके रूपांतर हिदु का प्रयोग उस
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