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विक्रम संवत्
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* देखना चाहिए कि प्राचीन साहित्य हमारी विचारधारा को किस और परिवर्तित करता है ।
प्रचलित दांतकथा को जैन ग्रंथों का आधार
तेरहवीं शताब्दि में लिखित 'प्रभावकचरित' नामक जैन ग्रंथ में 'कालका'चार्यकथा' नामक एक कहानी है । उसमें विक्रमादित्य नामक राजा ने शकों को पराभूत कर ई० पू० ५७ वर्ष के लगभग एक नए संवत् की स्थापना की ऐसा वृत्तांत मिलता है । वि० सं० का विचार करते हुए इस कहानी को एक विशिष्ट स्थान देना पड़ता है, इसलिये उसका सारांश इस पयुक्त न होगा ।
स्थल पर देना अनु
कालकाचार्य की कथा - प्राचीन काल में वीरसिंह नामक राजा धारा नगरी में राज्य करते थे। उनके कालक नामक पुत्र व सरस्वती नामक कन्या थी। कुछ ही दिनों में दोनों भाई-बहन सूरि गुणाकर नामक जैन भिक्षु के उपदेश से संन्यासी हो गए। अपने गुरु गुणाकर के पश्चात् कालक पोठाधिपति भी हो गया । एक समय भ्रमण करते हुए वह अपनी भिक्षुणी बहन के साथ उज्जयिनी को गया । उस समय उज्जयिनी में गर्दैभिल नामक एक विषयी राजा राज्य करता था । एक दिन भिक्षुणी सरस्वती भिक्षाटन के लिये चल पड़ी । पर ंतु वह अपने को राजा की कलुषित दृष्टि से न बचा सकी। फलतः उसे अ ंतःपुर में कैद होना पड़ा। अपनी बहन को मुक्त करने के लिये कालकाचार्य ने राजा की अनेक प्रकार से प्रार्थना की, परंतु नीच राजा का हृदय न पसीजा। तब क्रुद्ध होकर उन्होंने राजा के नाश' की प्रतिज्ञा की और वे सिंध की ओर चल पड़े ।
शकों के द्वारा गर्दभिल का पराभव - उस काल में सिध में शक का शासन था । उस प्रदेश में ९६ छोटे-छोटे राज्य थे और उन सबके ऊपर एक शुक-सम्राट् शासन कर रहा था । अधीन राजाओं को 'शाही' और सम्राट् को 'शाहानुशाही' कहा जाता था। इन अधीन राजाओं में से एक की मित्रता कालकाचार्य से हो गई । परंतु कुछ ही दिनों में तत्कालीन शाहानुशाही तथा कालकाचार्य के मित्र में कुछ मनमुटाव हो गया । अतएव उस सम्राटू के चंगुल से
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