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विक्रमादित्य
१०१ करते हुए तथा आवश्यकता के सामने सिर झुकाकर अपने ऊपर विजयो चष्टन के आधिपत्य में अपने को एकत्र कर के सघटित किया। यही. महान् घटना-एक बड़े शासक के आधिपत्य में मालव जातियों का संघटन-५७ ई० पू० में सवत् के प्रवर्तन से उपलक्षित हुई। तब से यह सवत् मालवा में प्रचलित है। चष्टन और रुद्रदामा ने मालव के पड़ोसी प्रांतों पर भी शासन किया इसलिये सवत् का प्रचार विंध्य पर्वत के उत्तर के प्रदेशों में भी हो गया।"
ऐयर महोदय का यह कथन कि विक्रम संवत वास्तव में मालव सवत है स्वतः सिद्ध है। कानष्क के विक्रम संवत के प्रवर्तक होने के विरोध में उनका तर्क भी युक्तिसंगत है। किंतु कनिष्क से कहीं स्वल्प शक्तिशाली प्रांतीय विदेशी क्षत्रप, जिसके साथ राष्ट्रीय जीवन का कोई अंग संलग्न नहीं था, सवत के प्रवर्तन में कैसे कारण हो सकता था, यह बात समझ में नहीं आती। रुद्रदामा के अभिलेख में सब वर्णों द्वारा राजा के चुनाव का उल्लेख केवल प्रशस्तिमात्र है। प्रत्येक शासक अपने अधिकार को प्रजासम्मत कहने की नीति का प्रयोग करता है। इसके अतिरिक्त यदि रुद्रदामा लोकप्रिय हो भी गया हो तो भी उसका यह गुण दो पीढ़ी पहले चष्टन में, संघर्ष की नवीनता तथा तीव्रता के कारण, नहीं आ सकता था। भी ऐयर की यह युक्ति अत्यत उपहसनीय मालूम पड़ती है कि मालवगण ने चष्टन के आधिपत्य में अपना स'घटन किया और इसके उपलक्ष में सवत् का प्रवर्तन किया। राजनीति का यह एक साधारण नियम है कि कोई भी विदेशी शासक विजित जातियों को तुरत संघटित होने का अवसर नहीं देता। फिर अपने पराजय-काल से मालवों ने संवत् का प्रारम किया हो, यह बात भी असाधारण मालूम पड़ती है।
(४) स्व डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल ने जैन अनुश्रति के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि "जैन गाथाओं और लोकप्रिय कथाओं का विक्रमादित्य मौतमीपुत्र शातकर्णि था। प्रथम शताब्दि ई० पू० में मालवा में मालवगण वर्तमान था, जैसा कि उसके प्राप्त सिकों से सिद्ध होता है। शातकणि
और मालवगण की संयुक्त शक्ति ने शकों को पराजित किया। इसलिये शकों के पराजय में मुख्य भाग लेनेवाले शातकर्णि 'विक्रमादित्य' के विरुद से विक्रम संवत् का प्रवर्तन हुआ। मालवगण ने भी उसके साथ संधि के विशेष
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