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विक्रम संवत् और विक्रमादित्य
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यह राजा नरवर्मा सं० ४६१ (४०४ ई० ) में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समकालीन थे और संभवतः उनकी ओर से मालव के अधिपति शासक थे । गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने मालव को विजित किया था और वहाँ पर जो चाँदी के सिक्के जारी किए उनपर इस प्रकार अपना विरुद लिखा है
परमभागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तविक्रमादित्यस्य ।
ई० सन् ४०० के लगभग उत्तर भारत और मालवा में चंद्रगुप्त का राज्य था और 'विक्रमादित्य', 'विक्रमांक' या 'विक्रम' विरुद घर घर में प्रचलित था। रीवा राज्य के सुपिया नामक गाँव से अभी हाल में मिले एक गुप्तलेख में वंशावली देते हुए श्री समुद्रगुप्त के पुत्र को विक्रमादित्य और विक्रमादित्य के पुत्र को महेंद्रादित्य कहा गया है। चंद्रगुप्त और कुमारगुप्त नाम नहीं दिए गए। इससे ज्ञात होता है कि लोक की जिह्वा पर इन दोनों का free हो अधिक प्रसिद्ध था। जब विक्रमादित्य नाम इस प्रकार सर्वत्र प्रसिद्ध था और मालवे से उसका विशेष संबंध था, तब भी ४०० ई० के लगभग यही प्रसिद्ध था कि इस संवत् का नाम कृत संवत है, और मालवगा में इसकी प्रसिद्धि और इसकी स्थापना हुई। मालवा से बाहर और सब जगह गुप्त साम्राज्य में गुप्त संवत् का प्रयोग हो रहा था, कृत स ंवत् या विक्रम संवत् का नहीं ।
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अब तक कृत संवत का पहली बार नाम और प्रयोग उदयपुर रियासत के नांदसा स्थान से प्राप्त सांवत् २८२ (२२५ ई० ) के यूप-लेख में पाया गया है। यह निरे संयोग की बात है कि जन्म के बाद करीब पौने तीन सौ वर्षों तक इस संवत के प्रयोग का कोई उदाहरण हमारे लिये नहीं बचा। इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रारंभ के तीन सौ वर्षों में इसका प्रयोग और प्रचार था ही नहीं । ऐतिहासिक पद्धति से सही अनुमान यही निकलता है कि उन तीन सौ वर्षों में भी इस संवत् का नाम कृत संवत् था और मालवों में इसका प्रचार था। उनमें यही अनुभूति विख्यात होगी कि उनके गण की स्थापना से कृत संवत का प्रारंभ हुआ ।
विक्रम की तीसरी शताब्दि से छठी शताब्दि तक कृत संवत के जो लेख अब तक मिले हैं उनसे एक बात अच्छी तरह मालूम होती है कि इन तीन सौ
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