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विक्रम संवत् और विक्रमादित्य
[ लेखक - श्री वासुदेवशरण ]
विक्रम संवत् के विषय में कुछ बातें पुरातत्व के निश्चित आधार से ज्ञात होती हैं, और कुछ के लिये केवल साहित्यिक अनुश्रुति प्रमाण है । शिलालेखों से प्राप्त होनेवाली सामग्री का सुंदर उल्लेख डा० अल्टेकर ने इसी अंक में प्रकाशित अन्यत्र अपने लेख में किया है। हमारे अब तक के ज्ञान की स्थापनाएँ संक्षेप में इस प्रकार हैं
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१ - विक्रम संवत् का प्रारंभ ५७ ई० पूर्व में हुआ।
२ - नवीं शताब्दि के आसपास इसका नाम विक्रम संवत् पड़ा। उससे पहले इसकी संज्ञा मालव संवत थी । सं० ८९८ के चंड महासेन के धौलपुर शिलालेख में अब तक विक्रम संवत् का सब से पहला उल्लेख प्राप्त हुआ है; कि ंतु इसके ३८ वर्ष बाद के ग्यारसपुर ( ग्वालियर ) के लेख में इसे 'मालवेशों का संवत्' कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि नवीं और दसवीं शताब्दियों के लगभग लोक में यह विश्वास था कि यह विक्रम संवत् मालेवेशों का स्थापित किया हुआ था । सं० ११३१ के चालुक्य कर्कराज के नवसारी ताम्रपट्ट ने इस संवत् को निश्चित रूप से विक्रमादित्य के द्वारा आरंभ किया हुआ संवत्सर कहा है (श्रीविक्रमादित्योत्पा दितसंवत्सर ) । अतएव कम से कम एक सहस्र वर्ष पूर्व हमारी जनता का यह दृढ़ विश्वास था कि विक्रमादित्य नाम के के द्वारा इस संवत्सर की स्थापना हुई ।.
राजा
३ - मालव संवत् नाम पड़ने से पहले विक्रम संवत् का नाम कृत संवत था। मंदसोर से प्राप्त नरवर्मा के सं० ४६१ के लेख में ऐतिहासिक स्थिति का ठीक ठीक वर्णन किया गया है और सूत्र रूप में इस संवत् के प्राचीन नाम और उसके क्षेत्र का निर्देश कर दिया गया है
श्रीमालवगणाम्नाते प्रशस्ते कृतसंज्ञिते । एकषष्ट्यधिके प्राप्ते समाशतचतुष्टये ॥
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