________________
१३०
नागरीप्रचारिणी पत्रिका ओर गौतमीपुत्र शातकर्णि और शक-पल्हव युद्ध का भी शिलालेख में वर्णन है। यदि यह जाना जा सके कि जिन शकों से गौतमीपुत्र का संघर्ष हुआ था वे भो नहपानवशी थे तो यह चित्र पूरा हो सकता है। यह जान लेने पर कि मालवों के जो वैगे थे, वे ही शातकर्णि से परास्त हुए, हम मालव और शातकर्णि के बीच की राजनीतिक संधि की निश्चित कल्पना कर सकते हैं। इस शृंखला की पूर्ति सिक्कों से होती है। भारतीय मुद्राशास्त्र में यह भली भाँति विदित है कि शातकर्णि ने नहपान की विजय के उपलक्ष्य में उसके सिक्कों पर फिर से अपने नाम की छाप लगवाई (स्मिथ, प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास, पृ० २२१)। जोगलतम्मी स्थान से प्राप्त १३००० नहपान के सिक्कों में से अनेकों पर शातकर्णि ने पुनः अपना नाम अंकित कराया है (वही, पृ० २३२ )। मुद्राशास्त्र का यह प्रमाण बहुमूल्य है और इससे सिद्ध होता है कि शातकर्णि ने जिन शकों को परास्त किया था वह नहपान का वश ही था। यह स्मरण रखना चाहिए कि शकों को दो धाराएँ भारतवर्ष में आई। पहली बार के शक शहरातवंशी थे जिनका वर्णन ऊपर किया गया है। दूसरी बार के शकों में मथुरा के कुषाणवशी वेम कदफ, कनिष्क आदि थे, तथा उज्जयिनी के चष्टन, रुद्रदामा आदि थे। इन्हें भारतीय इतिहास में शाहानुशाहि शक कहा गया है। देवपुत्र शाहानुशाहि शक और पहरात शकों में अवश्य ही समय का व्यवधान मानना पड़ेगा। हम इन दोनों को एक साथ नहीं रख सकते। स्मिथ ने मथुरा के रंजुवुल-सुदास को प्रथम शती ई० पू० में रखा है (वही, पृ० २४१)
और शहरात शकों को प्रथम शती ई० के आरंभ में माना है। यह स्थापना किसी प्रकार समीचीन नहीं मानी जा सकती। भूमक की मुद्राओं और पल्हवों की मुद्राओं में बहुत कुछ साम्य पाया जाता है। प्रथम शती ईस्वी पूर्व में शकस्थान पल्हवों के अधिकार में था। वस्तुत: पल्हव और शहरात शक दोनों एक ही राजनीतिक चक्र के अंतर्गत थे। इस संयुक्त सैनिक शक्ति को पश्चिमी भारत से गौतमीपुत्र शातकर्णि ने निर्मूल किया। इसी लिये शिलालेख में गौतमीपुत्र को शंक और पल्हव दोनों का विध्वंस करनेवाला कहा गया है। मालूम होता है कि बाहीक के यूनानी शासक भी इसी विदेशी चक्र के पोषक थे, अतएव शातकर्णि के शक्तिशाली पत्कर्ष के भागे वे भी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com