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विक्रम संवत् और विक्रमादित्य राम, केशव, अर्जुन और भीमसेन के तुल्य थे। तेज में वे भाभाग, नहुष, जनमेजय, सगर, ययाति, राम और अंबरीष के सदृश थे। उन्होंने शकयवन-पलहवों का नाश किया और खखरात (क्षहरात ) वंश को निःशेष करके सातवाहन कुल के यश की स्थापना की। सर्व मंडल में उनके चरणों की अमिव दमा की गई। चातुर्वण्य के संकर को उन्होंने रोका। अमेक युद्धों में शत्रसंघ को पराजित किया और अपराजित विजयपताका फहराई । अभय की जलांजलि देकर सबको निर्मय बनाया। भुजंगेंद्र के समान उनकी विपुल वीर्ष भुजाएँ थी और गजेंद्र के सुदर विक्रम के समाम उनका विक्रम था (वरवारण-विक्रम-पासविक्रमाय)। उसके शासन को सब राजमंडल ने स्वीकार किया। वे वेदादि शास्त्रों के आधार (आगम मिलय) थे। कुलपुरुषों की परंपरा से उनको 'राजशब्द प्राप्त हुआ था। उनका प्रताप अपरिमित, अक्षय, अचित्य और अद्भुत था। उनकी माता महाराज पुलमावी को पितामही सत्यवचन, दान, क्षमा और अहिंसा में निरत, एव तप, दम, नियम
और उपवास में सत्पर, राजर्षिवधू शब्द को धारण करनेवाली प्रार्यका महादेवी गौतमी बालश्री थीं। महाराज शातकणिं ने असिक, (कृष्णवेणा नदी के किनारे का राज्य ), अश्मक (प्रतिष्ठान), मूलक (गोदावरी के तट पर ), स्वराष्ट्र, कुकुर, अपरांत, अमूप, विदर्भ, आकर और अति के देशों में राज्य किया, तथा विध्य, ऋक्ष, पारियात्र, सम, कृष्णगिरि, मलय और महेंद्र पर्वतों का स्वामित्व प्राप्त किया। .
मलब, महेंद्र और विध्य के विस्तृत त्रिकोण में राज्य का विस्तार करने वाले एकछशासक गौतमीपुत्र श्री शातकर्णि ने शक, पल्हव और यवनों का विवसन किया और अश्मक, आकर, अवाति को अपने विजित में मिलाया। इस घटना की ऐतिहासिक संगति पूर्वापर घटनाओं पर विचार करते हुए इस प्रकार समझ में आती है। उसमभद्रों ने मालवों के विरुद्ध अपने वैर का निर्यातन करने के लिये विदेशी शहरात शकों का आवाहन किया, परंतु मालबों ने शातकर्णि को अपनी सहायता के लिये बुलाया। इस अनुमान की भोर संकेत करनेवाली एक ऐतिहासिक कड़ी भी प्राप्त है। एक ओर मालव और शहरातवंशी महपान के संबंध की बात पुरातत्व-प्रमाणित है, दूसरी
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