________________
नागरीप्रचारिणी पत्रिका द्वितीय विक्रमादित्य ने भारतवर्ष में अंतिम बार गणराष्ट्रों का संहार किया । तब से गणराष्ट्र भारतीय प्रजा के मानसिक क्षितिज से ओझल होने लगा और
आठवी-नवौं शताब्दि ई० ५०.तक, जब कि सारे देश में निरंकुश एकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी, गणराष्ट्र की कल्पना भी विलीन हो गई। अत: मालवगण का स्थान उसके प्रमुख व्यक्ति-विशेष विक्रमादित्य ने ले लिया और संवत् के साथ उनका नाम जुड़ गया। साथ ही साथ मालवगण-मुख्य विक्रमादित्य राजा विक्रमादित्य हो गए। राजनैतिक कल्पना की दुर्बलता का यह एकाकी उदाहरण नहीं है। आधुनिक ऐतिहासिक खोजों से अनभिज्ञ भारतीय प्रजा में आज कौन जानता है कि भगवान् श्रीकृष्ण और महात्मा बुद्ध के पिता गणमुख्य थे। अर्वाचीन साहित्य तक में वे राजा करके ही माने जाते हैं। यह भी हो सकता है कि राजशब्दोपजीवी गणमुख्यों की 'राजा' उपाधि राजनैतिक भ्रम के युग में विक्रमादित्य को राजा बनाने में सहायक हुई हो।
विक्रमादित्य के गुप्त सम्राट होने के विरुद्ध जो कठोर आपत्तियाँ हैं उनका भी उल्लेख करना आवश्यक है
(१) गुप्त सम्राटों का अपना वंशगत संवत् है। उनके किसी भी उत्कीर्ण लेख में मालव अथवा विक्रम संवत् का उल्लेख नहीं है। जब उन्होंने हो विक्रम संवत् का प्रयोग नहीं किया तो पीछे से, उनके गौरवास्त के बाद, जनता ने उनका संबंध विक्रम संवत् से जोड़ दिया, यह मत समझ में नहीं आती।
(२) गुप्त सम्राट पाटलिपुत्रनाथ थे, कि तु अनुश्रुतियों के विक्रमादित्य उन्नयिनीनाथ थे, यद्यपि उज्जयिनी गुप्तों की प्रांतीय राजधानी थी, किंतु वे प्रधानत: पाटलिपुत्राधीश्वर और मगधाधिप थे। मुगलसम्राट दिल्ली के अतिरिक्त
आगरा, लाहार और श्रीनगर में भी रहते थे। फिर भी वे दिल्लीश्वर ही कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त सोमदेव भट्ट ने अपने कथा-सरित्सागर में स्पष्टतः दो विक्रमादित्यों का उल्लेख किया है-एक उज्जयिनी के विक्रम तथा दूसरे पाटलिपुत्र के। उनके मन में इस संबंध में कोई भी भ्रम नहीं था।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com