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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
विद्यासुंदर काव्य के कुछ मूल श्लोक भी देखने योग्य हैंसाहसाङ्कस्य भूपस्य सभायां काव्यकोविदैः । आलापः................... .. न्मनोहर्षविवर्धनः ॥ ७ ॥ वररुचिनामा स कविः श्रुत्वा वाक्यं नृपेन्द्रस्य । विद्यासुन्दरचरितं श्लोकसमूहैस्तदारेभे ● ॥ ६॥
इन श्लोकों से ज्ञात होता है कि वररुचि ने महाराज साहसांक की आज्ञा से विद्यासुंदर काव्य की रचना की। यही साहसांक विद्यासुंदर की प्रशस्ति में लिखा गया विक्रमादित्य है ।
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५ - सवत् १३६१ में लिखी गई प्रबंध चितामणि के प्रथम प्रबंध के भ में ही मेरुतुंगाचार्य ने लिखा है
अन्त्योऽप्याद्यः समजनि गुणैरेक एवावनीशः
•
शौर्योदार्यप्रभृतिभिरिहोर्धीतले • विक्रमार्कः ।
तथा इसी प्रबंध के अंत में लिखा है
इत्थं तेन पराक्रमाक्रान्तदिग्बलयेन षण्णवति प्रतिनृपमण्डलानि स्वभोग मानिन्ये ।
वन्यो हस्ती स्फटिकघटिते भितिभागे स्वविम्बं
दृष्ट्वा दूरात् प्रतिगज इति श्वद्विषां मन्दिरेषु ।
हत्वा कोपाद् गलितरंदनस्तं पुनर्वीक्ष्यमाणो
मन्दं मन्दं स्पृशति करिणीशङ्कया साहसाङ्क ॥ ३ ॥ कालिदासाद्यैर्महाकविभिरत्थं संस्तूयमानश्विरं प्राज्यं साम्राज्यं
बुभुजे ।
६ - बन्यो हस्ती से आरंभ होनेवाला यही श्लोक श्रीधरदासकृत दुक्तिकर्णामृत में भी पाया जाता है । उसको पाठ निम्नलिखित हैवन्यो हस्ती स्फटिकघटिते भित्तिभागे स्वबिम्बं
रुष्टः प्रतिगज इति त्वद्विषां मन्दिरेषु ।
* लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास के महोपाध्याय श्री चरणदास चट्टोपाध्याय की कृपा से हमें ये श्लोक देवनागरी लिपि में मिले हैं।
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