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विक्रमादित्य नहीं होती। यदि परंपरा के समुचित आदर के साथ साधो ऐतिहासिक खोज की जाय तो सवत्-प्रवर्तक विक्रमादित्य का पता सरलता से लग सकता है। वास्तविक विक्रमादित्य के लिये निम्नलिखित शतों का पूरा करना आवश्यक है -
(१) मालव प्रदेश और उज्जयिनी राजधानो, (२) शकारि होना, (३) ५७ ई० पू० में सवत् का प्रवर्तक होना और (४) कालिदास का आश्रयदाता ।
अनुशीलन-(१) यह बात अब ऐतिहासिक खोजों से सिद्ध हो गई है कि प्रारंभ में मालव प्रदेश में प्रचलित होनेवाला सवत् मालवगण का संवत् था। सिकंदर के भारतीय आक्रमण के समय मालव जाति पंजाब में रहती थी। मालव-क्षुद्रक-गण सघ ने सिकदर का विरोध किया था, किंतु पारस्परिक फूट के कारण मालवगण अकेला लड़कर यूनानियों से हार गया। इसके पश्चात् मौर्यो के कठोर नियंत्रण से मालव जाति निष्प्रभ सी हो गई। मौर्य साम्राज्य के अंतिम काल में जब पश्चिमोत्तर भारत पर बास्त्रियों के आक्रमण प्रारभ हुए तब उत्तरापथ की मालवादि कई गणजातियाँ वहाँ से पूर्वी राजपूताना होते हुए मध्य-भारत पहुँची और वहां पर उन्होंने अपने नए उपनिवेश स्थापित किए। समुद्रगुप्त के प्रयाग-प्रशस्ति लेख से सिद्ध है कि चौथी शताब्दि ई० ५० के पूर्वाद्ध में उसके साम्राज्य की दक्षिण-पश्चिम सीमा पर कई गण-राष्ट्र वर्तमान थे। किंतु इसके भी पहले प्रथम-द्वितीय शताब्दि ई० पू० में मालव जाति श्राकर-अवंति (मालव प्रांत) में पहुँच गई थी, यह बात मुद्राशास्त्र से प्रमाणित है। यहाँ पर एक प्रकार के सिक्के मिले हैं जिन पर ब्राह्मी अक्षरों में 'मालवानां जयः' लिखा है ( इंडियन म्यूजियम क्वायन्स, जिल्द १, पृ० १६२; कनिंगहेम : आर्केलॉजिकल सवे रिपोर्ट जिल्द ६, पृ० १६५-७४)।
(२) ई० पू० प्रथम शताब्दि के मध्य में मगध-साम्राज्य का भग्नावशेष काण्वों की क्षीण शक्ति के रूप में पूर्वी भारत में बचा हुआ था। बास्त्रियों के पश्चात् पश्चिमोत्तर भारत शकों द्वारा श्राक्रांत होने लगा। शक जाति ने सिंध प्रांत के रास्ते भारतवर्ष में प्रवेश किया। यहाँ से उसकी एक शाखा सुराष्ट्र होते हुए अवति-आकर की ओर बढ़ने लगो। इस बढ़ाव में शकों का
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