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विक्रम संवत् कथावस्तु की सत्यता
. यह बात निश्चय से मानी जा सकती है कि यद्यपि कालकाचाय की कथा १३वीं शताब्दि में लिखी गई, फिर भी उसमें ऐतिहासिक अंश अच्छे प्रमाण में मिलते हैं। इतिहास से मालूम होता है कि कथा के अनुसार ई० पू० प्रथम शताब्दि के मध्यकाल के लगभग सिध में शक शासन था। और यह भी निश्चित है कि उन राजाओं को 'शाही' नाम से पुकारा जाता था। यह भी संभवनीय है कि ये शक राजा कुछ काल के अनतर काठियावाड़ में आ गए. हों । ऐतिहासिक प्रमाणों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि ई० पू० ६० के आसपास शकों का राज्य उज्जयिनी तक फैला हुआ था। अतएव कालकाचार्य की कथा के अनुसार कुछ ही दिनों के लिये अवती में रहनेवाले शक राजा का पराभव ई० पू० ५७ के लगभग विक्रमादित्य नामक राजा ने किया यह बात भी पूर्णतया सौंभव है। संवत् स्थापना का उल्लेख करनेवाले श्लोक प्रक्षिप्त मालूम पड़ते हैं . इतना सब होने पर भी यह बात सिद्ध नहीं होती कि विक्रमादित्य ने ई० पू० ५७ में शकों का पराभव कर संवत् की स्थापना की। पहली बात तो यह है कि यह कथा १३वीं शताब्दि की लिखी हुई है, अतएव तत्कालीन दंतकथाओं का उस पर असर हुआ है। यह भी स्पष्ट मालूम पड़ता है कि पर पराप्राप्त मूल कथा में उपर्युक्त अभिप्रायवाले श्लोक न थे। बाद में कवि ने प्रचलित कथाओं के आधार से इन श्लोकों का सृजन किया। इन तीन श्लोकों के कारण कथा की धारा खडित सो जान पड़ती है। मूल कथा में देशद्रोही कालकाचार्य की सहायता जिस शक राजा ने को उसके पराक्रम का वर्णन तो अनिवार्य है; परंतु आगे चलकर विक्रमादित्य ने शक राजा का पराभव किस प्रकार किया इसका वर्णन अप्रासंगिक जान पड़ता है, क्योंकि उससे कथा की रसोत्पत्ति में बाधा पड़ती है। क्षण भर यदि हम यह बात
* नार्वेजियन पुरातत्त्ववेत्ता कोनो ने इस कथा को पूर्णतया ऐतिहासिक माना है। एपिग्राफिया इंडिका, माग १४, पृ० २९३-९५ ।
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