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नागरीप्रचारिणी पत्रिका हासिकता सिद्ध होती है। इस ऐतिहासिक तथ्य का प्रतिपादन महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री ने अच्छी तरह किया था (एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द १२, पृ० ३२०)। इसके विरुद्ध डॉ. देवदत्त रामकृष्ण भांडारकर ने गाथासप्तशती में आए हुए ज्योतिष के संकेतों के आधार पर कुछ आपत्तियों उठाई थों (भांडारकर स्मारकमथ, पृ० १८७-१८९), किंतु इनका निराकरण म० म० पं. गौरीशंकर होराचंद ओझा ने भली भांति कर दिया है (प्राचीन लिपिमाला, पृ० १६८)।
(२) जैन पंडित मेरुतुगाचार्य-रचित पटावली में लिखा है कि नभोवाहन के पश्चात् गर्दभिल्ल ने उज्जयिनी में तेरह वर्ष तक राज्य किया। उसके अत्याचार के कारण कालकाचार्य ने शकों को बुलाकर उसका उन्मूलन किया। शकों ने उज्जयिनी में चौदह वर्ष तक राज्य किया। इसके बाद गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों से उज्जयिनी का राज्य वापस कर लिया। यह घटना महावीर-निर्वाण के ४७०वे वर्ष (५२७.४७० -५७ ई० पू०) में हुई। विक्रमादित्य ने साठ वर्ष तक राज्य किया। उनके पुत्र विक्रमचरित उपनाम धर्मादित्य ने ४० वर्ष तक शासन किया। तत्पश्चात भैल्ल, बैल तथा नाहद ने क्रमशः ११, १४ तथा १० वर्ष राज्य किया। इस समय वीर-निर्वाण के ६०५ वर्ष पश्चात ६०५-५२७ = ७८ ई० पू०) शक संवत का प्रवर्तन हुआ।
(३) प्रबंधकोष के अनुसार महावीर-निर्वाण के ४७० वर्ष बाद (५२७-४७० = ५७ ई० पू०) विक्रमादित्य ने संवत् का प्रवर्तन किया।
(४) धनेश्वर सूरि विरचित शत्रुजय-माहात्म्य में इस बात का उल्लेख है कि वीर ( महावीर ) संवत के ४६६ वर्ष बीत जाने पर विक्रमादित्य का प्रादुर्भाव होगा। उनके ४७७ वर्ष पश्चात् शिलादित्य अथवा भोज शासन करेगा। इस ग्रंथ की रचना ४७७ विक्रम संवत में हुई जब कि वलभी के राजा शिलादित्य ने सुराष्ट्र से बौद्धों को खदेड़ कर कई तीर्थों को उनसे वापस किया था। (देखिए डॉ० भाऊ दाजी, जरनल आफ बांबे एशियाटिक सोसायटी, जिल्द ६, पृ० २९.३०)।
(५) सोमदेव भट्ट विरचित कथासरित्सागर (लंबक १८ तरंग १) में भी विक्रमादित्य की कथा आती है। इसके अनुसार विक्रमादित्य उज्जयिनी के
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