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विक्रमादित्य
राजा थे। इनके पिता का नाम महेंद्रादित्य तथा माता का नाम सौम्यदर्शना था। महेंद्रादित्य ने पुत्र की कामना से शिव की आराधना की । इस समय पृथ्वी म्लेच्छाक्रांत थी । अतः इसके त्राण के लिये देवताओं ने भी शिव से प्रार्थना की। शिवजी ने अपने गए माल्यवान् को बुलाकर कहा कि पृथ्वी का उद्धार करने के लिये तुम मनुष्य का अवतार लेकर उज्जयिनीनाथ महेंद्रादित्य के यहाँ पुत्ररूप से उत्पन्न हो । पुत्र उत्पन्न होने पर शिवजी के आदेशानुसार महेंद्रादित्य ने उसका नाम विक्रमादित्य तथा उपनाम ( शत्रुसंहारक होने के कारण ) विषमशील रखा। बालक विक्रमादित्य पढ़-लिखकर सत्र शास्त्रों में पारंगत हुआ और प्राज्यविक्रम होने पर उसका अभिषेक किया गया । वह बड़ा ही प्रजावत्सल राजा हुआ । उसके बारे में लिखा है
स पिता पितृहीनानामबन्धूनां सबान्धवः ।
श्रनाथानां च नाथः सः प्रजानां कः स नाभवत् || १८ | ११६६
( वह पितृहीनों का पिता, बंधुर हितों का बंधु और अनाथों का नाथ था । प्रजा का वह क्या नहीं था ? ) इसके अनंतर विक्रमादित्य की विस्तृत विजयों और अद्भुत कृत्यों का अतिरंजित वर्णन है ।
• कथासरित्सागर अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रंथ होते हुए भी क्षेमेंद्र- लिखित बृहत्कथाम जरी और अंततोगत्वा गुणाढ्य रचित बृहत्कथा पर अवलंबित है । गुणाढ्य सातवाहन हाल का समकालीन था जो विक्रमादित्य से लगभग १०० वर्ष पीछे हुआ था । अतः सोमदेव द्वारा कथित अनुश्रुति विक्रमादित्य के इतिहास से सर्वथा अनभिज्ञ नहीं हो सकती । सोमदेव के संबंध में एक और बात ध्यान देने की है। वे उज्जयिनी के विक्रमादित्य के अतिरिक्त एक दूसरे विक्रमादित्य को भी जानते हैं जो पाटलिपुत्र का राजा था - 'विक्रमादित्य इत्यासीद्राजा पाटलिपुत्रके' ( लंबक ७, तरंग ४ ) । इसलिये जो आधुनिक ऐतिहासिक मगधाधिप पाटलिपुत्रनाथ गुप्त सम्राटों को केवल उज्जयिनी नाथ विक्रमादित्य से अभिन्न समझते हैं वे अपनी परंपरा और अनुश्रुति के साथ अत्याचार करते हैं ।
* कथा की पौराणिक शैली में 'गण' से गणतंत्र और 'माल्यवान्' से मालव जाति का आभास मिलता है ।
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