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नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्रथा जोरों से चलाई। इस वंश के संस्थापक मूलराज के लेखों में (सन् ९६१-९९६) केवल 'संवत्' कहा गया है। भीमदेव (१०२२-६४) के लेखों और कर्णदेव (१०६४-१०९४) के लेखों में विक्रम संवत् लिखा मिलता है। जयसिह ( १०१४-११४४), कुमारपाल (११४४-१९७४) और अजयपाल (११७४-११७६) के लेखों में 'श्रीमद्विक्रम संवत्' का उल्लेख है। तदनतर भीमदेव द्वितीय ( १९७८-१२३१ ) के शासनकाल में लिखित मेखों में 'श्रीमद्विक्रमादित्योत्पादितसंवत्सर' (श्री विक्रमादित्य द्वारा प्रारंभ किया हुआ संवत्सर) और 'श्रीमविक्रमनृपकालातीतसंवत्सर' ( श्री विक्रमादित्य राजा के संवत् के वर्षानुसार ) लिखा मिलता है। इससे यह बात साफ हो जाती है कि यवनकाल के प्रारंभ में ही गुजरात में वि० स० लोकमान्य हो गया था। अन्य प्रांतों के ज्योतिषियों ने भी स्वरचित पंचागों में उसको स्वीकार कर उसे भारत में लोकप्रिय बना दिया।
उपसंहार विक्रम संवत् के विषय में आज तक जो कुछ मिल सका है उसका विवेचन ऊपर किया गया है। साथ ही साथ उस साहित्य के मथन से विद्वानों ने जो निष्कर्ष निकाले हैं उनका भी दिग्दर्शन कराया गया है। पाठक समझ सकते हैं कि इतने अल्प साहित्य के आधार पर कोई निश्चयात्मक निर्णय देना कठिन है। यदि इस संवत् के प्रथम और द्वितीय शताब्दि के शिलालेख प्राप्त हों और उनमें भी इस सवत् को कृत संवत् नाम ही दिया गया हो तो लेखक ने जिस मत का प्रतिपादन किया है वह सर्वमान्य हो सकता है। भविष्य के गर्भ में छिपे हुए अति प्राचीन लेखों में या साहित्य में इस संवत् को विक्रमादित्य संवत् नाम दिया गया हो तो उपयुक्त मत अग्राह्य होगा। परतु विक्रम नामांकित प्रथम या द्वितीय शताब्दि के लेखों की प्राप्ति आज तो असभव सी मालूम होती है। अतएव इस क्षण यह बात तर्कसंगत जान पड़ती है कि मालव प्रजातंत्र के कृत नामक राष्ट्रपति या सेनाध्यक्ष ने इस सवत् की स्थापना ई० पू० ५७ में की और आगे चलकर वही प्रथमत: मालव संवत् और हवीं शताब्दि के अनतर विक्रम संवत् नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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