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पृथिवीसूक्त-एक अध्ययन 'पृथिवी पर जो ग्राम और अरण्य हैं, जो सभाए और समितियाँ हैं, जो सार्वजनिक सम्मेलन हैं, उनमें हे भूमि, हम तुम्हारे लिये सुदर भाषण करें। .. सुंदर भाषण का स्मरण करते हुए कवि का हृदय गद्गद हो जाता है। वह चाहता है कि भूमि के प्रशंसा-गान में हमारा हृदय विकसित हो, हमारी पाणी उदार हो, और हमारी भाषा की शब्दसंपत्ति का भंडार उन्मुक्त हो। वाणी का सर्वोत्तम तेज उन सभाओं और समितियों में देखा जाता है जो राष्ट्रीय जीवन को नियमित करती हैं। सभा और समिति को वेदों में प्रजापति की पुत्रियों कहा गया है। राष्ट्रीय जीवन के साथ उनका मिलकर कार्य करना अत्यंत आवश्यक है। सभाओं और समितियों में जनता के जो प्रतिनिधि सम्मिलित होते हैं, मातृभूमि के लिये उनके द्वारा सुदरतम शब्दों के प्रयोग की कल्पना कितनी मार्मिक है। वेदों के अनुसार पृथिवी पर बसनेवाली जनता का सबध राष्ट्र से है। राष्ट्र के अंतर्गत भूमि और जन दोनों सम्मिलित हैं। इसलिये यजुर्वेद के 'श्राब्रह्मन्' सूक्त में एक ओर ब्रह्मवर्चस्वी ब्राह्मण, तेजस्वी राजन्य और यजमानों के वीर युवा पुत्रों का आदर्श है, दूसरी ओर उचित समय पर मेघों से जलवृष्टि और फलवती ओषधियों के परिपाक से पृथिवी पर धन-धान्य की समृद्धि की अभिलाषा है। इन दोनों के सम्मिलन से ही राष्ट्र का योगक्षेम पूर्ण होता है । पृथिवीसूक्त में राष्ट्र के आदर्श को कई प्रकार से कहा गया है। भूमि पर जन की दृढ़ स्थापना, जनता में समप्रता का भाव, जन की अनमित्र, असपत्र और अस'बाध स्थिति, जो बातें राष्ट्र-वृद्धि के लिये आवश्यक हैं उनका वर्णन सूक्त में यथास्थान प्राप्त होता है।
भूमि, जन और जन की सस्कृति, इन तीनों की सम्मिलित संज्ञा राष्ट्र है। पृथिवीसूक्त के अनुसार राष्ट्र तीन प्रकार का होता है-निकृष्ट, मध्यम
और उत्तम । प्रथम कोटि के राष्ट्र में पृथिवी की सब प्रकार की भौतिक संपत्ति का पूर्ण रूप से विकास देखा जाता है। मध्यम कोटि के राष्ट्र में जन की वृद्धि और हलचल देखी जाती है, और उत्तम कोटि के राष्ट्र की विशेषता का लक्षण राष्ट्रीय जन की उच्च संस्कृति है। इसी को ध्यान में रखते हुए ऋषि
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