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नागरीप्रचारिणी पत्रिका ग्यारहवी, बारहवीं शताब्दि में लोगों में यह धारणा प्रचलित थी कि विक्रमीय संवत् की स्थापना ईसा पूर्व ५७ वर्ष में विक्रमादित्य नामक किसी प्रतापो सम्राट् ने की थी। परंतु यहाँ भी विचारणीय बात यह है कि इस काल के प्राप्त शिलालेखों में केवल १५ प्रतिशत ही ऐसे हैं जिनमें विक्रमादित्य का इस संवत् से प्रत्यक्ष सबध बताया गया है, शेष ८५ प्रतिशत लेखों में सवत् का उल्लेख बिना विशेष संबोधन के ही है जैसे 'संवत् १२५३' 'सवत्सरेषु द्वादशशतेषु ।'
क्या प्राचीन काल में भी यही नाम प्रचलित या ?
परंतु हम जितना ही अधिकाधिक प्राचीन लेखों का अनुशीलन करेंगे उतना ही हमें विक्रमादित्य का इस संवत् से संबध कम होता हुआ दिखाई देगा। आज तक हमें विक्रमीय संवत् की दसवीं शताब्दि के ३४ शिलालेख प्राप्त हुए हैं। इनमें से ३२ लेखों में काल-गणना केवल 'सवत्' शब्द मात्र से उल्लिखित है। केवल बिजापूर नामक शहर से प्राप्त राष्ट्रकूट विदग्धराज के लेख में, जो वि० सं० ६७३. का है, इस सवत् का उल्लेख 'विक्रमकालगते' इस प्रकार किया गया है और इस तरह इस संवत् का संबंध विक्रमादित्य से स्थापित किया गया है। पर साथ ही साथ इसी शताब्दि के ६३६ के लेख में, जो कि गवालियर राज्य के ग्यारस पूर नामक स्थान से प्राप्त हुआ था, विक्रमकाल-गणना को मालव काल के नाम से संबोधित किया गया है-'मालककालाच्छरदा षटुत्रिंशत्स. युतेष्वतीतेषु'।
नवीं शताब्दि के दस लेख उपलब्ध हैं। उनमें से केवल स० ८९८ के शिलालेख में इस सवत् के साथ विक्रम का उल्लेख है-'वसु-नव-अष्टौ वर्षागतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य ।' अन्य लेखों में केवल सवत् या सवत्सर इतना हो नाम दिया गया है।
इसी प्रकार इस सवत् की आठवीं शताब्दि के सात लेख प्राप्त हैं। उनमें केवल काठियावाड़ के ढिंकणी नामक गाँव से प्राप्त ताम्रपट में 'विक्रम. सवत्सरशतेषु सप्तसु' यह उल्लेख है। अन्य लेखों में इस सवत् का
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