________________
पृथिवीसूक्त-एक अध्ययन वह क्षमा और सहिष्णुता का सब से बड़ा आदर्श उपस्थित करती है। 'ज्ञानीगुरु (२६) और मूर्ख-बुद्ध दोनों को वह पोषित करती है। भद्र और पापी दोनों की मृत्यु उसी की गोद में होती है। (४८) प्रत्येक प्राणी दाहिनी-बाई पसलियों की करवट से उस पर लेटता है और वह सभी का बिछौना बनी है' (सवस्य प्रतिशीवरी, ३४)।
पृथिवी पर बसनेवाला जन व्यक्ति रूप से शतायु, पर समष्टि रूप से अमर है। जन का जीवन एक पोढ़ी में समाप्त नहीं हो जाता; वह युगांत तक स्थिर रहता है। सूर्य उसके अमृतत्व का साक्षी है। जन पृथिवी के उत्संग में रोग और हास से अभय होकर रहना चाहता है (अनमोवा अयक्ष्मा, ६२)। हे मातृभूमि, हम दीघ आयु तक जागते हुए तुम्हारे लिये भेंट चढ़ाते रहें (६२)। पृथिवी जन के भूत और भविष्य दोनों की पालनकर्ती है ( सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्नी, १)। उसको रक्षा स्वयं देव प्रमाद बिना स्वप्नरहित होकर करते हैं (७)। इसलिये पृथिवी का जीवन कल्पांत तक स्थायी है। उस भूमि के साथ यज्ञीय भावों से संबंधित जन भी अजर-अमर है।
भूमि के साथ जन का संबंध आज नया नहीं है। यही पृथिवी हमारे पूर्व पुरुषों की भी जननी है। 'हे पृथिवी, तुम हमारे पूर्व कालीन पूर्वजों की भी माता हो। तुम्हारी गोद में जन्म लेकर पूर्व जनों ने अनेक विक्रम के कार्य किए हैं
यस्यां पूर्वे पूर्वजना विधकिरे । (५) उन पराक्रमों की कथा ही हमारे जन का इतिहास है। हमारे पूर्वपुरुषा ने इस भूमि को शत्रओं से रहित (अनमित्र) और असपत्न बनाया। उन्होंने युद्धों में दु'दुभि-घोष किया ( यस्यां वदति दुदुभिः, ४१ ) और आनंद से विजयगान करते हुए नृत्य और संगीत के प्रमोद किए ( यस्यां नृत्यंति गायंति व्यैलबाः, ४९)। जनता की हर्षवाणी और किलकारियों से युक्त गीत और नृत्य के दृश्य, तथा अनेक प्रकार के पर्व और मंगलोत्सवों का विधान संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है जिसके द्वारा लोक की आत्मा प्रकाशित होती है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com