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नागरीप्रचारिणी पत्रिका उसको कल्पना वेद का भाव नहीं है। ऋषि की दृष्टि में विविधता का कारण भौमिक परिस्थिति है। नाना धर्म, भिन्न भाषाएँ, बहुधा जन, ये सब यथौकस अर्थात् अपने अपने निवासस्थानों के कारण पृथक हैं। इस स्वाभाविक कारण से जूझना मनुष्य की मूर्खता है। ये स्थूल भेद कभी एकाकार हो जायेंगे, यह समझना भी भूल है। 'पृथिवी से जो प्राणी उत्पन्न हैं उन्हें भूमि पर विचरने का अधिकार है। जो भद्र और पाप हैं उन्हें भी जनायन मार्गों के उपयोग का स्वत्व है। जितने मर्त्य 'पंच मानव' यहाँ हैं वे तब तक अमर रहेंगे, जब तक सूर्य आकाश में है क्योंकि सूर्य ही तो प्रात:काल सबको अपनी रश्मियों से अमर बना रहा है। (१५)
पृथिवी के 'पंच मानव' और छोटी मोटो और भी अनेक प्रजाएँ (पंच कृष्टयः ) विधाता के विधान के अनुसार ही स्थायी रूप से यहाँ निवास करने के लिये हैं, अतएव उनको परस्पर समग्र भाव से एकता के सूत्र में बंधकर रहना आवश्यक है
ता नः प्रजाः सं दुहृतां समग्रा
वाचो मधु पृथिवि धेहि मह्यम् । (१६) बिना एकता के मातृभूमि का कल्याण असंभव है। पृथिवी के दोहन के लिये श्रादिराज पृथु ने जड़-चेतन के अनेक वर्गों को एक सूत्र में बाँधा था, और भूमि का दूध पीने के लिये पृथु को अध्यक्षता में सभी को बछड़ा बमना पड़ा था। इस ऐक्य भाव की कुंजी वाणी का मधु या बोली का मिठास है (वाचः मधु)। यह कुंजी तीन काल में भी नहीं बिगड़ती। हमें चाहिए कि जब बोलने लगे तो पहले यह सोच ले कि हम उससे किसी के हृदय पर आघात तो नहीं कर रहे हैं। 'हे सब को शुद्ध करनेवाली माता, तुम्हारे मर्म और हृदय स्थान का वेधन मैं कभी न करूँ। (३५) प्रियदर्शी अशोक ने संप्रदायों में सुमति और सद्भाव के लिये वाणी के इस शहद का उपदेश दिया था। अपने को उज्ज्वल सिद्ध करने के लिये जब हम दूसरों की निदा करते हैं तब आप भी बुझ जाते हैं। राष्ट्र की वाक् में मधु को अनेक धाराओं के अनवरत प्रवाह में ही सब का कल्याण है और वही मधु समप्र प्रजाओं को एक अखंड भाव में गृथता है । पृथिवी स्वयं क्षमाशील धात्री है (क्षमा भूमिम् ,२९)।
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