________________
नागरीप्रचारिणी पत्रिका इस पूर्ण घट में उत्पन्न नहीं होती। पृथिवी के ऊन भावों की पूर्ति का उत्तरदायित्व प्रजापति के ऋत या विश्व को संतुलन-शक्तियों पर है ( यत्त उन तत्त आपूरयति प्रजापतिः प्रथमजा ऋतस्य, ६१)।
पृथिवी पर बसे हुए अनेक प्रकार के जनों की सत्ता ऋषि स्वीकार करता है। मातृभूमि को वे मिलकर शक्ति देते हैं और उसके रूप की समृद्धि करते हैं। अपने अपने प्रदेशों के अनुसार ( यथोकसम् ) उनकी अनेक भाषाएँ हैं और वे नाना धर्मों के माननेवाले हैं
जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं,
नानाधर्माणं पृथिवी ययौकसम् । (४५) उनमें जो विभिन्नता की सामग्री है उसे मातृभूमि सहर्ष स्वीकार करती है। विभिन्न होते हुए भी उन सब में एक ही तार इस भावमा का पिरोया हुआ है कि वे सब पृथिवी के पुत्र हैं। कवि की दृष्टि में यह एकता दो रूपों में प्रकट होती है। एक तो उस गंध के रूप में है जो पृथिवी का विशेष गुण है। यह गंध सब में बसी हुई है। जिसमें भूमि को गंध है वही सगंध है और उसी में भूमि का तेज झलकता है। पृथिवी से उत्पन्न वह गंध राष्ट्रीय विशेषता के रूप में स्त्रियों और पुरुषों में प्रकट होती है। उसी गंध को हम स्त्री-पुरुषों के भाग्य और मुख के तेज के रूप में देखते हैं। वीरों का पौस्य भाव और कन्या का वर्चस् उसी गंध के कारण है। मातृभूमि को पुत्रो प्रत्येक कुमारी अपने लावण्य में उसी गंध को धारण करती है। मातृभूमि की उस गंध से हम सब सुरमित हों, उस सौरभ का आकर्षण सर्वत्र हो। अन्य राष्ट्रों के मध्य में हमारी उस गंध का कोई वैरी न हो, केवल उस गंध के कारण अथोत् मातृभूमि की उस छाप को अपने सिर पर धारण करने के कारण, कोई हमसे द्वेष न करे ( तेन मा सुरभि कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन, २४, २५)। वह गंध भूमि के प्रत्येक परमाणु की विशेषता है। - ओषधियों और वनस्पतियों में, मृगों
और आरण्य पशुओं में, अश्वों और हाथियों में सर्वत्र वही एक विशेषता स्पष्ट है। मातृभूमि की उस गंध के कारण किसी को कहीं भी निरादर प्राप्त न हो, वरन् इसी गुण के कारण राष्ट्र में वे तेजस्वी और सम्मानित हों। वही गंध उस पुष्कर में बसी हुई थी जिसे सूर्या के विवाह में देवों ने सूंघा था।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com