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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
अपनी विजय के साथ वृद्धि को प्राप्त होती हुई हमारा भी संवर्धन करो ( सा नो भूमिवधेयद् वर्धमाना, १३ ) । जीवन के कल्याणों के साथ हम सुप्रतिष्ठित हों । पृथिवी पर रहते हुए केवल भौतिक और पार्थिव विभूति ही जीवन में पर्याप्त नहीं है । कवि की क्रांतदर्शिनी प्रज्ञा द्युलोक के उच्च अध्यात्मभाषों की ओर देखती है, और उस व्योम में उसे मातृभूमि के हृदय का दर्शन होता है । इसलिये वह प्रार्थना करता है - 'हे भूमि, हे माता, हमें पार्थिव कल्याणों के मध्य में रखकर द्युलोक के भी उच्च भावों के साथ युक्त करो भूति और श्री दोनों की जीवन के लिये आवश्यकता है।' द्युलोक के साथ स मनश्क होकर श्री और भूति की एक साथ प्राप्ति ही आदर्श स्थिति है -
भूमे मातनिधेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम् ।
संविदाना दिवा कवे श्रियां म धेहि भूत्याम् । (६३)
पार्थिव संपत्ति की संज्ञा भूति है और अध्यात्म भावों की प्राप्ति श्री का लक्षण है । भूति और श्री का एकत्र सम्मिलन ही गीता को इष्ट है । यही भारतवर्ष का ऊँचा ध्येय रहा है ।
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