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४४ . नागरीप्रचारिणी पत्रिका
एक प्रकार से गंगा गुप्तों के विजित अथवा स्वराष्ट्र का प्रतीक ही बन गई। इस संबंध में समुद्र गुप्त को 'व्याघ्रपराक्रम' चलन की स्वर्णमुद्रा विशेष ध्यान देने योग्य है। इसके एक ओर धनुधर सम्राट् कर्णात प्रत्यंचा को खींचकर व्याघ्र का शिकार कर रहे हैं, और दूसरी ओर भगवती गंगा बाएँ हाथ में सनाल कमल लिए हुए करिमकर के वाहन पर खड़ी हुई हैं। यह सिक्का साभिशय ज्ञात होता है। इसकी ये दो विशेषताएँ सम्राटू की बंग-विजय को सूचित करती हैं, जब कि बलपूर्वक बंगदेशीय राजाओं को उखाड़कर गंगा के स्रोतों के बीच में उसने अपने यश के जयस्तंभ स्थापित किए। गंगा-सिंधु-संगम अर्थात् समतट की विजय का निश्चित उल्लेख प्रयागप्रशस्ति में है। ज्ञात होता है कि इस विजय के स्मारक रूप में ही 'ध्याघ्रपराक्रम' मुद्रा चालू हुई। एक प्रकार से गंगासागर से लेकर गंगाद्वार तक गंगा का दीर्घ श्रायाम गुप्त साम्राज्य का दृढ़ मेरुदंड बन गया।
तत्कालीन भौगोलिक परिभाषा में गंगा से परिवेष्टित यह प्रदेश आर्यावर्त अथवा मध्यदेश इस नाम से विख्यात था। गुप्तों के वरद प्रसाद से मध्यदेश की संस्कृति नए वर्ण से चमक उठी। यहां के स्फीत जनपद धन-धान्य से परिपूर्ण हो गए। विद्या और चरित्र में, धर्म और कला में मध्यदेश की कीर्ति दिगदिगंत में फैल गई। उस युग में चारों ओर मध्यदेश के प्रति जो श्रद्धामयी भावना जाग्रत् हुई, उसका आभास सामयिक साहित्य में प्राप्त होता है। काश्मीर राज्य के गिलगिट स्थान से प्राप्त प्राचीन संस्कृत विनयपिटक की हस्तलिखित प्रति में मध्यदेश के विषय में निम्नलिखित श्रद्धास्पद वर्णन प्राप्त होता है। मध्यदेश का एक माणव विद्याध्ययन के लिये दक्षिणापथ में गया था। वहाँ अनध्याय के दिन सहपाठियों में यह चर्चा उठी कि कौन कहाँ से आया है। उस विद्यार्थी ने कहा-"मैं मध्यदेश से आया हूँ।" इस पर उन्होंने कहा
..ऐलन : गुप्तमुद्रासूची, 'ब्याघ्रपराक्रम' चलन की मुद्रा (टाइगर टाइप), भूमिका, पृ० ७४ तथा पृ० १७; फलक २, चित्र १४ | इस सिक्के के अभी तक केवल चार उदाहरण मिले हैं।
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