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नागरीप्रचारिणी पत्रिका बहुविध स्थान है ( गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा, ५)। देश में जो गोधन है, उसकी जो नस्लें सहस्रों वर्षों से दूध और घी से हमारे शरीरों को सोंचती आई हैं उनके अध्ययन, रक्षा और उन्नति में दत्तचित्त होना राष्ट्रीय कर्तव्य है। गोधन के जीर्ण होने से जनता के अपने शरीर भी क्षीण हो जाते हैं। गौओं के प्रति अनुकूलता और सौमनस्य का भाव मानुषी शरीर के प्रत्येक अणु को अन्न और रस से तृप्त रखता है। सिंधु, कंबोज और सुराष्ट्र के जो तुरंगम दीर्घ युगों तक हमारे साथी रहे हैं उनके प्रति उपेक्षा करना हमें शोभा नहीं देता। इस देश के साहित्य में अश्वसूत्र और हस्तिसूत्र की रचना बहुत पहले हो चुकी थी। पश्चिमी एशिया के अमरना स्थान में
आचार्य किक्कुलि का बनाया हुआ अश्व-शास्त्र संबंधी एक ग्रंथ उपलब्ध हुश्रा है, जो विक्रम से भी पंद्रह शताब्दी पूर्व का है। इसमें घोड़ों की चाल और कुदान के बारे में एकावर्तन, व्यावर्तन, पंचावर्तन, सप्तावर्तन सदृश अनेक संस्कृत शब्दों के रूपांतर प्रयुक्त हुए हैं।
जो व्याघ्र और सिह कांतारों की गुफाओं में निद्व विचरते हैं, उनकी ओर भी कवि ने ध्यान दिया है। यह पृथिवी वनचारी शुकर के लिये भी खुली है, सिंह और व्याघ्र जैसे पुरुषाद पारण्य पशु यहाँ शौर्य-पराक्रम के उपमान बने हैं (४९)। पशु और पक्षी किस प्रकार पृथिवी के यश को बढ़ाते हैं इसका इतिहास साक्षी है। भारतवर्ष के मयूर प्राचीन बावेरु ( बेबीलन ) तक जाते थे (बावेरुजातक)। प्राचीन केकय देश (आधुनिक शाहपुर-झेलम) के राजकीय अंतःपुर में कराल दाढ़ोंवाले महाकाय कुत्तों की एक नस्ल व्याघ्रों के वीर्य-चल से तैयार होती थी, जिसकी कीर्ति यूनान और रोम तक प्राचीन काल में पहुंची थी। लैम्प्सकस से प्राप्त भारत-लक्ष्मी की चाँदी की तश्तरी पर इस बघेरी नस्ल के कुत्तों का चित्रण पाया जाता है। कुत्तों को यह भोम जाति आज भी जीवित है और राष्ट्रीय कुशल-प्रश्न और दाय में भाग पाने के लिये उत्सुक है । विषैले सर्प और तीक्ष्ण डंकवाले बिच्छू हेमत ऋतु में सर्दी से ठिठुरकर गुम-शुम बिलों में सोए रहते हैं। ये भी पृथिवी के पुत्र हैं। जितनी लखचौरासी वर्षा ऋतु में उत्पन्न होकर सहसा रंगने और उड़ने लगती है उनके जीवन से भी हमें अपने लिये कल्याण की कामना करनी है (४६)।
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