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पृथिवीसूक्त-एक अध्ययन
५७ . सत्संग में देखकर जिन लोगों ने श्रद्धा के भाव से उन वनस्पतियों को शिव के पुत्र के रूप में देखा, वे सचमुच जानते थे कि वनस्पति-संसार कितने उच्च सम्मान का अधिकारी है। स्वयं शिव ने केदारों का स्वामित्व स्वीकार किया आज अनवधान के कारण हम अपने इन वानस्पत्यों को देखना भूल गए हैं। तभी हम उस मालझन लता की शक्ति से अनभिज्ञ हैं जो सौ-सौ फुट ऊँचे उठकर हिमालय के बड़े बड़े वृक्षों को अपने बाहुपाश में बाँध लेती है। आज वनस्पति-जगत् के प्रति 'अमुं पुरः पश्यसि देवदारुम्' के प्रश्नों के द्वारा हमें अपने चैतन्य को फिर से झकझोरने की आवश्यकता है। जहाँ फूले हुए शालवृक्षों के नीचे विद्धशालभंजिका की क्रीडाओं का प्रचार किया गया, जहाँ उदीयमान नारी-जीवन के सरस मन से वनस्पति-जगत् को तर गित करने के लिये अशोकदोहद जैसे विनोद कल्पित किए गए, वहाँ मनुष्य और वनस्पति-जगत् के सख्यभाव को फिर से हरा-भग बनाने की आवश्यकता है। पुष्पों को शोभा वनश्री का एक विलक्षण ही शृगार होता है। देश में पुष्पों के संभार से भरे हुए अनेक वन-खंड और वाटिकाएँ हैं। कमल हमारे सब पुष्पों में एक निराली शोभा रखता है। वह मातृभूमि का प्रतीक ही बन गया है। इसी लिये पुष्पों में कवि ने कमल का स्मरण किया है। वह कवि कहता है-हे भूमि, तुम्हारी जो गंध कमल में बसी हुई है ( यस्ते गन्धः पुष्करमाविवेश, २४), उस सुगंध से मुझे सुरभित करो। -
__ इस पृथ्वी पर द्विपद और चतुष्पद ( पशु-पक्षी) दोनों ही निवास करते हैं। आकाश की गोद में भरे हुए हंस और सुपर्ण व्योम को प्राणमय बनाते हैं (यां द्विपाद: पक्षिण: संपतन्ति हंसाः सुपर्णाः शकुना वयांसि, ५१)। प्रतिवर्ष मानसरोवर की यात्रा करनेवाले हमारे हंसों के पंख कितने सशक्त हैं। आकाश में वन की तरह टूटनेवाले दृढ़ और बलिष्ठ सुपों को देखकर हमें प्रसन्नता होनी चाहिए। मनुष्यों के लिये भी जो वन अगम हैं उनमें पशु
और पक्षो चहल-पहल रखते हैं। उनके सुरीले कंठ और सुंदर रगों को देखकर हमें शब्द और रूप की अपूर्व समृद्धि का परिचय प्राप्त होता है।
भूमि पर रहनेवाली पशु-संपत्ति भी भूमि के लिये उतनी ही आवश्यक है जितना कि स्वयं मनुष्य । कवि की दृष्टि में यह पृथिवी गौओं और अश्वों का
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