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नागरीप्रचारिणो पत्रिका सलिलार्णव के नीचे छिपी हुई थी। जब मनीषियों ने ध्यानपूर्वक इसका चिंतन किया, तब उनके ऊपर कृपावती होकर यह प्रकट हुई। केवल मन के द्वारा ही पृथिवी का सान्निध्य प्राप्त किया जा सकता है। ऋषि के शब्दों में मातृभूमि का हृदय परम व्योम में स्थित है। विश्व में ज्ञान का जो सर्वोच्च स्रोत है, वहीं यह हृदय है। यह हृदय सत्य से घिरा हुआ और अमर है (यस्याः हृदय परमे व्योमन् सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः)। हमारी संस्कृति में सत्य का जो प्रकाश है उसका उद्गम मातृभूमि के हृदय से ही हुआ है। सत्य अपने प्रकट होने के लिये धर्म का रूप ग्रहण करता है। सत्य और धर्म एक हैं। पृथिवी धर्म के बल से टिकी हुई है (धर्मणा घृता)। महासागर से बाहर प्रकट होने पर जिस तत्व के आधार पर यह पृथिवी आश्रित हुई, कवि की दृष्टि में वह धारणात्मक तत्त्व धर्म है। इस प्रकार के धारणात्मक महान् धर्म को पृथिवी के पुत्रों ने देखा और उसे प्रणाम किया-नमो धर्माय महते धर्मो धारयति प्रजाः ( महाभारत, उद्योगपर्व)। सत्य और धर्म ही ऐतिहासिक युगों में मूर्तिमान होकर राष्ट्रीय संस्कृति का रूप ग्रहण करते हैं। संस्कृति का इतिहास सत्य से भरे हुए मातृभूमि के हृदय को ही व्याख्या है। जिस युग में सत्य का रूप विक्रम से संयुक्त होकर सुनहले तेज से चमकता है, वही संस्कृति का स्वर्णयुग होता है। कवि की अभिलाषा है-'हे मातृभूमि, तुम हिरण्य के संदर्शन से हमारे सामने प्रकट हो। तुम्हारी हिरण्मयो प्ररोचना को हम देखना चाहते हैं। ( सा नो भूमे प्ररोचय हिरण्यस्येव संशशि, १८)। राष्ट्रीय महिमा की नाप यही है कि युग की संस्कृति में सुवर्ण की चमक है या चांदी और लोहे को। हिरण्यसंदर्शन या स्वर्ण युग ही संस्कृति की स्थायो विजय के युग हैं।
पुराकाल में मनीषी ऋषियों ने अपने ध्यान को शक्ति से मातृभूमि के जिस रूप को प्रत्यक्ष किया था, वह प्राप्तिकरण का अध्याय अभी तक जारी है। आज भी चिंतन से युक्त मनीषी लोग नए नए क्षेत्रों में मातृभूमि के हृदय के नूतन सौंदर्य, नवीन श्रादर्श और अछूते रस का आविष्कार किया करते हैं। जिस प्रकार सागर के जल से बाहर पृथिवी का स्थूल रूप प्रकाश में आया, उसी प्रकार विश्व में व्याप्त जो ऋत है, उसके अमूर्त भावों को मूर्त रूप में
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