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पृथिवीसूक्त - एक अध्ययन
[ लेखक - पृथिवीपुत्र ]
माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः
अथर्ववेदीय पृथिवीसूक्त ( १२।१।१-६३ ) में मातृभूमि के प्रति भारतीय भावना का सुंदर वर्णन पाया जाता है । मातृभूमि के स्वरूप और उसके साथ राष्ट्रीय जन की एकता का जैसा वर्णन इस सूक्त में है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । इन मंत्रों में पृथिवी की प्रशस्त वंदना है, और संस्कृति के विकास तथा स्थिति जो नियम हैं उनका अनुपम विवेचन भी है। सूक्त की भाषा में अपूर्व तेज और अर्थवत्ता पाई जाती है। स्वर्ण का परिधान पहने हुए शब्दों को कवि ने श्रद्धापूर्वक मातृभूमि के चरणों में अर्पित किया है । कवि को भूमि सब प्रकार से महती प्रतीत होती है, 'सुमनस्यमाना' कहकर वह अपने प्रति भूमि की अनुकूलता को प्रकट करता है । जिस प्रकार माता अपने पुत्र के लिये मन के वात्सल्य भाव से दुग्ध का विसर्जन करती है उसी प्रकार दूध और अमृत से परिपूर्ण मातृभूमि अनेक पयस्वती धाराओं से राष्ट्र के जन का कल्याण करती है । कल्याण-परंपरा की विधात्री मातृभूमि के स्तोत्र-गान और वंदना में भावों के वेग से कवि का हृदय उमँग पड़ता है । उसकी दृष्टि में यह भूमि कामदुधा है । हमारी समस्त कामनाओं का दोहन भूमि से इस प्रकार होता है जैसे अडिग भाव से खड़ी हुई धेनु दूध की धाराओं से पन्हाती है । कवि की दृष्टि में पृथिवीरूपी सुरभि के स्तनों में अमृत भरा हुआ है । इस अमृत को पृथिवी की आराधना से ज़ो पी सकते हैं वे अमर हो जाते हैं। मातृभूमि की पोषण शक्ति कितनी अनंत है ? वह विश्वंभरा है। उसके विश्वधायस (२७)* रूप को प्रणाम है ।
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मातृभूमि का हृदय - स्थूल नेत्रों से देखनेवालों के लिये यह पृथिवी शिलाभूमि और पत्थर-धूलि का केवल एक जमघट है। किंतु जो मनीषी हैं, जिनके पास ध्यान का बल है, वे ही भूमि के हृदय को देख पाते हैं। उन्हों के लिये मातृभूमि का अमर रूप प्रकट होता है। किसी देवयुग में यह भूमि * कोष्ठक के अंक सूक्तांतर्गत मंत्रों के अंक हैं ।
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