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नागरीप्रचारिणी पत्रिका बहती है। इस दुर्धर्ष वात के बवंडर ऊपर-नीचे जब चलते हैं, तब बिजलो कड़कता है और आकाश कौंध से भर जाता है
यस्यां वातो मातरिश्वा ईयते रजांसि कृण्वन् च्यावयंश्च वृक्षान् । .. वातस्य प्रवामुपवामनुवाति अर्चिः, ५१ ।। .. जिस देश का आकाश तडित्वत मेघों से भरता है वहाँ भूमि वृष्टि से ढक जाती है
वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता, ५२ . प्रतिवर्ष सचित होनेवाले मेघजालों के उपकार का स्मरण करते हुए कवि ने पर्जन्य को पिता (१२ ) और भूमि को पजन्यपत्नी (४२) कहा है।
. भूम्यै पर्जन्यपल्यै नमोऽस्तु वर्षमेदसे । 'पर्जन्य की पत्नी भूमि को प्रणाम है, जिसमें वृष्टि मेद की तरह भरी है।' मेघों की यह वार्षिक विभूति जहाँ से प्राप्त होती है, उन समुद्र और सिंधुओं का भी कवि को स्मरण है। अन्न से लहलहाते हुए खेत, बहनेवाले जल और महासागर इन तीनों का घनिष्ठ संबंध है (यस्यां समुद्र उत सिंधुरापो यस्यामन्नम् कृष्टयः संबभूवुः, ३)। दक्षिण के गर्जनशील महासागरों के साथ हमारी भूमि का उतना ही अभिन्न संबध समझना चाहिए जितना कि उत्तर के पर्वतों के साथ। ये दोनों एक ही धनुष को दो कोटियाँ हैं। इसी लिये रमणीय पौराणिक कल्पना में एक सिरे पर शिव और दूसरे पर पार्वती हैं । धनुष्कोटि के समीप ही महोदधि और रत्नाकर के सगम की अधिष्ठात्री देवो पार्वती कन्याकुमारी के रूप में आज भी तप करतो हुई विद्यमान हैं।
कुमारिका से हिमालय तक फैले हुए महाद्वीप में निरंतर परिश्रम करती हुई देश की नदियों और महानदियों की ओर सबसे पहले हमारा ध्यान जाता है । इस सूक्त में कवि ने नदियों के संतत विक्रम का अत्यंत उत्साह से वर्णन किया है
यस्यामापः परिचराः समानीरहोरात्रे अप्रमाद क्षरन्ति ।
सा नो भूमिभूरिधारा . पयोदुहामथो उक्षतु वर्चसा ॥ ९ ... जिसमें गतिशील व्यापक जल रात दिन विना प्रमाद और आलस्य के बह रहे हैं, वह भूमि उन अनेक धाराओं को हमारे लिये दूध में परिणत करे
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