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गुप्त-युग में मध्यदेश का कलात्मक चित्रण मध्यदेश के इस मूर्त चित्रण में संगम के बाद नीचे की ओर बहुत अधिक जलराशि दिखाई गई है। उसके बीच में एक सुंदर पुरुष की मूर्ति पात्र से अर्घ्य देती हुई खड़ी है। इस मूर्ति का उदार नेपथ्य अत्यंत आकर्षक है। बाहुओं में केयूर और प्रकोष्ठ वलय, गले में हार तथा कानों में कुंडल हैं। धोती और उत्तरीय दोनों के पहनने का ढंग कुषाण-कालीन है। सिर पर पत्राकृति मुकुट भी कुषाण शैली का सूचक है। अतएव यह मूर्ति प्रारंभिक गुप्त-युग अर्थात् समुद्र गुप्त के राज्यकाल (वि० तीसरी शती) में बनी हुई जान पड़ती है। .
. अपार जलराशि के मध्य में स्थित इस पुरुष-मूर्ति की पहचान आसानी से की जा सकती है। यह स्वयं समुद्र की प्रतिमा है जिसमें गंगा और यमुना की सम्मिलित जलधाराएँ मिली हैं। स्त्रीरूप में गंगा और यमुना की मूर्ति, प्रयागराज में उनका सम्मिलन और पुरुषविप्रा में समुद्र की अपार जलराशि-ये तीन सूत्र इस दृश्य में जान डाल रहे हैं। सौभाग्य से इनकी व्याख्या कालिदास के एक ही श्लोक में एकत्र मिल जाती है, जिसे महाकवि ने संगम-प्रशस्ति के ठीक बाद कहा है। यथा
समुद्रपल्योर्जलसनिपाते पूतात्मनामत्र किलाभिषेकात् । तत्त्वावबोधेन विनापि भूयस्तनुत्यजां नास्ति शरीरबंधः ॥
- (रघुवंश १३॥५८) समुद्र, उसकी दोनों पत्नियों और उनके जलों का सम्मिलन-इन तीन शब्दों के कविनिर्मित सूत्र में उदयगिरि के दृश्य की पूरी व्याख्या मिल जाती है । इस प्रकार यह चित्र समुद्र से हिमालय तक विस्तीर्ण मध्यदेश या आयोजत की भौगोलिक सीमाओं को और आर्य समुद्रगुप्त के साम्राज्य के साथ उनके संबंध को इतने सुंदर और काव्यमय ढंग से प्रकट करता है कि उसकी सार्थक तुलना में तत्कालीन अन्य कोई शिल्प-कृति नहीं ठहरती।
इसी दृश्य को एक और कड़ी उसो गुफा में पास बनी हुई वराह मूर्ति के द्वारा पृथिवी के उद्धार का चित्रण है। वराह की दंतकोटि पर खीरूप में
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