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नागरीप्रचारिणी पत्रिका शकास्तुषाराः ककाश्च रोमशा: शृंगिणो नराः। महागजान्दूरगमान् गणितानबु'दान् हयान् ॥ ३० ॥ शतशश्चैव बहुशः सुवर्ण पद्मसमितम् । बलिमादाय विविध द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः ॥ ३१ ॥ श्रासनानि महार्हाणि यानानि हायनानि च ।
मणिकाञ्चनचित्राणि गजदंतमयानि च ॥ ३२ ॥ अर्थात् शक, तुषार, कंक और शृंगी रोमश लोग अन्य उपहारों के अतिरिक्त अनेक प्रकार के बहुमूल्य प्रासन, यान और शयन उपहार में लाए, जो कि मणि और सुवर्ण से जड़ाऊ होने के साथ गजदंत के बने हुए थे। हाथीदांत पर सुवर्ण का जड़ाऊ काम यूनानी कला की एक बड़ी पुरानी विशेषता थी, जिसका प्रचार रोम-साम्राज्य में भी रहा ।
भारतमाता के दोनों ओर कुछ पक्षो और पशु अंकित हैं, जो शुद्धत: भारतीय हैं। प्रथम शताब्दी के लगभग भारतीय महासागर की मौसमी हवाओं का परिचय रोम के व्यापारियों को हुआ, और तब से व्यापार अधिकांश में सामुद्रिक मार्गों से होने लगा। परंतु पशु-पक्षियों का भारतीय व्यापार स्थल-मार्ग से ही होता रहा। यह व्यापार एशिया माइनर के स्थलमार्ग से होता था। वार्मिग्टन का मत है कि चतुर शिल्पी ने अपने कौशल से इसी विशेषता की ओर संकेत किया है। संभवत: वह स्वयं व्यापारी न था, ' और उसे व्यापार की अन्य वस्तुओं की अपेक्षा स्थल-मार्ग से आनेवाली इन्हीं वस्तुओं का अधिक ज्ञान था।
भारतमाता के दाहिने हाथ के पास एक सुग्गे की मूर्ति है। बाई ओर हिमालय प्रदेश का चकोर पक्षी है, जिसके गले से दो मांसपिंड के गलस्तन झूल रहे हैं। वार्मिग्टन ने इसको पूर्वी अफ्रीका की कुक्कुटी कहा है, परंतु डा० कुमारस्वामी के मत में यह पहचान ठीक नहीं है। हाथीदाँत की कुर्सी के दोनों ओर दो पशु हैं, जिन्हें वार्मिग्टन ने संदेह के साथ हनुमान या लंगूर कहा था। इनकी पूछे लंबी, सिर पर झब्बूदार बाल, लंबे कान, बड़ी बड़ी गोल आँखें, पतली कमर और गले में पट्टा है। हमारी सम्मति में ये बघेरी
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