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पारिक्षिती गाथाएँ
[ लेखक-श्री वासुदेवशरण अग्रवाल ] राजा परिक्षित् के राज्य में प्रजा के योगक्षेम का एक आदर्श चित्र वैदिक साहित्य [अथर्व २०।१२७१७-१०] में मिलता है। ये परिक्षित् कुरु के वंशज थे और जनमेजय से बहुत पूर्व में हुए थे। इन मंत्रों को ब्राह्मण-ग्रंथों के व्याख्याताओं ने पारिक्षिती' संज्ञा दी है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा है कि छंदों का रस उनमें से निकल गया था। परंतु 'नाराशंसी' और 'पारिक्षिती' के द्वारा वह रस छंदों में पुन: भरा गया। प्रजाओं की संज्ञा 'नर' है और उनकी वाक् 'शंस' है। प्रजाओं की वाक् अर्थात् लोकवाणी नाराशंसी है। जब राष्ट्र की स्तुति में रसात्मक नाराशंसी फैलती है, तभी छंदों में रस बहने लगता है, अन्यथा छंद भी नीरस प्रतीत होते हैं। इसी तरह परिक्षित् जैसे विश्वजनीन या विश्वहितकारी गजा के राज्य में जब प्रजाएँ स्वस्तिमती हुई तब उनके कल्याण से उत्पन्न रस पारिक्षिती जैसी लोक-गीतियों में बह निकला। ये पारिक्षिती मंत्र इस प्रकार है
राज्ञो विश्वजनीनस्य यो देवोमा अति। . वैश्वानरस्य सुष्टुतिमा सुनोता परिक्षितः ॥ ७॥ परिच्छिनः क्षेममकरोत्तम आसनमाचरन् । कुलायन्कृण्वन्कौरव्यः पतिर्वदति जायया ॥८॥ कतरत्तश्रा हराणि दधि मन्यां परि श्रुतम् । जाया पतिं वि पृच्छति राष्ट्र राज्ञः परिक्षितः॥९॥ अभीव स्वः प्रजिहीते यवः पश्वः पयो बिलम् । जनः स भद्रमेधति राष्ट्र राज्ञः परिक्षितः ॥ १०॥
. * ऐतरेय ६।५।३२, कौषीतकी ३०५; गोपथ २।६।१२।
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