Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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आदि ग्रन्थों में पाया जाता है । नेमिनाथ करुणाके प्रतीक हैं । ये यदुवंशी थे । इनके पिताका नाम समुद्रविजय था। ये कृष्णके चचेरे भाई थे। नेमिनाथका विवाह-सम्बन्ध गिरिनगरके राजा उग्रसेनकी विदुषी पुत्री राजलमतीके साथ होना निश्चित हआ था, पर जैसे ही बारात गिरिनगर जा रही थी कि मार्गमें अतिथियोंके भोजनके निमित्त एकत्र किये गये सहस्रों पाओंकी करुणा चौत्कार नेमिनाथको सुनायी पड़ी। इस घटनासे द्रवित होकर उन्होंने इस विवाहका परित्याग कर दिया और वे मार्गसे ही तपोवनको चल दिये । नेमिनाथका समय महाभारतकाल है। यह काल ईस्वी पूर्व १००० के लगभग माना जाता है। महाभारतके हरिवंशमें अरिष्टनेमिका वर्णन आया है। इस ग्रन्थके अनुसार महाराज यदुके सहस्रद, पयोद, कोष्टा, नोल और अंजिक ये पांच पुत्र हुए। क्रोष्टाको माद्री नामक दूसरी रानीसे युधाजित और देवमितृष नामक दो पुत्र हुए । क्रोष्टाके बड़े पुत्र युधाजितसे वृष्णि और अन्धक ये दो पुत्र हुए। वृष्णिके स्वफल्क और चित्रक नामक पुत्र उत्पन्न हुए 1 चित्रकके पृथु, विपृथु, अश्वनीय, अश्वमा, पार्श्वक, गवेषण, अरिष्टनेमि, अश्व, सुधर्मा धर्मभृत, सुबाह और बवाह ये बारह पुत्र हुए। इस बंशपरम्परासे यह स्पष्ट है कि अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण चचेरे भाई थे। अरिष्ट. नेमिका उल्लेख ऋग्वेदमें भी प्राप्त होता है । यथा
"स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥"
--ऋग्वेद १,८९,६. यहाँपर अरिष्टनेमिका अर्थ हानिरहित नेमिवाला, त्रिपुरवासो असुर, पुरुजित् सुत और श्रौतोंका पिता कहा गया है। पर शत्पथब्राह्मणमैं अरिष्टका अर्थ अहिंसक है और 'अरिष्टनेमि'का अर्थ अहिंसाकी धुरी-अहिंसाके प्रवर्तक हैं। बृहस्पतिके समान अष्टिनेमिकी स्तुति भी की गयी है।
वैदिक युगमें अरिष्टनेमि करुणा और अहिंसा के रूपमें मान्य हो चुके थे। वे विश्वकी रक्षाकरनेवाले श्रेष्ठ देवताफे रूपमें प्रतिष्ठित थे।
इससे स्पष्ट है कि २२वें सीर्थकर अरिष्टनेमि करुणामतिके रूपमें महाभारतकालसे मान्य रहे हैं । जैन वाङमयमें तो इनका महत्त्व वर्णित है ही, वैदिक साहित्यमें भी इनका महत्त्व कम नहीं है । ऋग्वेदके समान यजुर्वेदौर
१. हरिवंश, पर्व १, अध्याय ३४, पद्य १५-१६. २. यजुर्वेद, अध्याय २५, मंत्र १६, अष्टक ९१, अध्याय ६, वर्ग १, १६ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्य-परम्परा