Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
तीर्थकर चरित्र
वेदिका के बीच में आ जाने से सिंहासन भूमि से ऊपर--आकाश में अधर दिखाई देने लगा । यह देख कर अबुझ लोग कहने लगे;--"राजा के सत्यवादी होने से--सत्य के प्रभाव से सिंहासन पृथ्वी से ऊपर उठ कर अधर (आकाश में) टिका है। सत्य-व्रत के प्रभाव से आकर्षित हो कर देवता, इस राजा के सिंहासन को आकाश में अधर लिये हुए हैं।" राजा अपनी मिथ्या मान-बढ़ाई में मग्न हो कर इस पाखण्ड को चलाता रहा । उसकी सत्यवादिता, देवाधिष्टित के रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध होगई । अन्य राजागण उसके प्रभाव से आतंकित हो कर उसके अधीन होगए।
अर्थ का अनर्थ
नारद ने आगे कहा--एक बार में घूमता हुआ उपाध्याय पर्वत की पाठशाला में चला गया। वह अपने शिष्यों को ऋग्वेद की व्याख्या समझा रहा था। उसमें "अजैर्यष्टव्यं" शब्द का-'भेड़ से यज्ञ करना'- अर्थ सिखाया जाता था। यह सुन कर मैने उसते कहा--"भाई ! तुम असत्य अर्थ कर रहे हो । गुरुजी ने इस शब्द का अर्थ-तीन वर्ष पुराना धान्य" किया था, जो फिर उगने की शक्ति नहीं रखता है। ऐसा धान्य-'अज' कहलाता है । इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है--"न जायते इति अजः"--जो उत्पन्न नहीं हो, वह 'अज' कहलाता है । इस प्रकार गुरुजी का बताया हुआ सत्य अर्थ तू भूल गया है क्या ?"
पर्वत ने कहा--"नहीं, पिताजी ने इसका ऐसा अर्थ नहीं बताया था। उन्होंने 'अज' का अर्थ 'मेष' (मेढ़ा) ही किया था और निघंटु (कोष) में भी ऐसा ही अर्थ किया है।"
__ मैने कहा--"शब्दों के अर्थों की कल्पना मुख्य और गौण-~यों दो प्रकार से होती है। गुरुजी ने यहाँ गौण अर्थ बताया है । गुरु तो धर्म का ही उपदेश करते हैं । जो वचन धर्मात्मक हो, वही 'वेद' कहलाता है । इसलिए मित्र ! बिना विचार किये अनर्थ कर के पाप का उपार्जन करना तेरे लिए उचित नहीं है।"
मेरी बात सुन कर पर्वत आक्षेपपूर्वक बोला;--
"नारद ! गुरु ने तो अज का अर्थ 'मेढ़ा' ही बताया है । तू स्वयं अपनी इच्छा से अनर्थ कर के अधर्म कर रहा है । अब इस का निर्णय सत्यवादी राजा वसु से करवाना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org