Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अधर सिंहासन ?
आज्ञा दी है।" इस प्रकार विचार कर उस कुर्कुट को वैसा ही ले कर मैं गुरुजी के समीप आया और उसे नहीं मारने का कारण बतलाया । मेरी बात सुनकर गुरु ने-'धन्य धन्य' शब्द से प्रसन्नता व्यक्त की और समझ लिया कि यही शिष्य स्वर्ग-गमन के योग्य है। शेष दोनों नरक में जाने योग्य हैं । उपाध्याय ने पर्वत और वसु को कहा--'पापियों ! तुम स्वयं देख रहे थे, नभचर देख रहे थे और सर्वज्ञ देख रहे थे। इनके देखते हुए तुमने कुर्कुट को क्यों मारा ? मेरी आज्ञा एवं अभिप्राय पर विचार क्यों नहीं किया? पापपूर्ण परिणति ने तुम्हारी मति ही दूषित कर रखी है । तुम विद्याभ्यास के योग्य नहीं हो।' इस प्रकार कह कर उनका अध्ययन बन्द कर दिया। उपाध्याय को अपने प्रिय पूत्र और राजपूत्र की पापपूर्ण परिणति और अन्धकार युक्त भविष्य जान कर खेद हुआ और यह खेद उनकी विरक्ति का निमित्त बन गया। वे संसार त्याग कर निग्रंथ बन गए । उनके प्रवृजित होते ही उनका पुत्र पर्वत उपाध्याय बन गया और छात्रों को विद्याभ्यास कराने लगा। मैं अपने स्थान पर चला गया । कुछ काल बाद अभिचन्द्र नरेश के प्रवजित होने पर राजकुमार वसु, शासक-पद पर प्रतिष्ठित हुआ । प्रजा में वह 'सत्यवादी नरेश' के रूप में विख्यात हुआ।
अधर सिंहासन ?
एक समय कोई शिकारी, विद्यगिरि के निकट शिकार खेलने आया। उसने बाण छोड़ा, किंतु वह बाण मध्य में ही रुक कर गिर गया । शिकारी को आश्चर्य हुआ । उसने सोचा मेरे बाण के स्खलित होने का क्या कारण है ? जब पत्थर आदि कोई रोक जैसा नहीं है, फिर बाण किस वस्तु से टकरा कर रुका ? वह निकट जा कर हाथ लम्बा कर स्पर्श करता है, तो उसे आकाश के समान निर्मल स्फटिक शिला स्पर्श हुआ। उसने सोचा--कहीं अन्यत्र चरते हुए मृग परछाई, इस स्फटिक-शिला पर पड़ी होगी और उसी को मृग मान कर मैने बाण मारा होगा? वह सत्यवादी राजा वसु के पास आया और एकान्त में नरेश को स्फटिक-शना की बात बताई। राजा स्वयं वन में आया और स्फटिक शिला को देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। राजा ने शिकारी को बहुत-सा धन दिया और उस शिला को उठवा कर राज्य प्रासाद में लाया। फिर गुप्त रीति से राजसभा में उस शिला को वेदिका के समान स्थापित कर उस पर अपना सिंहासन रखवाया और वेदी बनाने वाले शिल्पकारों को मरवा दिया (जिससे रहस्य प्रकट नहीं हो सके) । स्फटिक
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