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तीर्थङ्कर भगवान महावीर में जिस प्रकार रहस्यवाद, छायावाद और उसके बाद प्रगति. वाद पंख लगाये दौड़ा पाया, उसी प्रकार महा कवि बनारसी दास, वृन्दावन, भूधरदास और दौलतराम आदि की शान्तिवादी सात्विक साहित्यिक परम्परा के बाद जैन साहित्य में भी प्रगति वाद का काफी प्रभाव पड़ा और उसमें भीरवड़ छन्द, केंचुपा छन्द, प्रादि स्वच्छन्द वादी परम्परा चल निकली। कुछ तुक्कड़. वाज अपनी प्रशास्त्रीय विचार हीन तुकबन्दी वाली दस-बीस पंक्तियों को कविता मानकर तथा उन्हें प्रकाशित कराकर अपने को कवि मान बैठते हैं । इस प्रकार की प्रवृत्तियोंसे जैन साहित्य को विगत पचास वर्षों में जिस प्रकार की स्वस्थ सामग्री प्राप्त होनी चाहिए थी वह नहीं हो सकी।
अभी हाल में कुछ रचनायें ऐसी प्रकाशित हुई हैं जो पचात्मक एवं शास्त्रीय पद्धति के प्राधार पर लिखी गई है लेकिन उनमें किसी में तो सैद्धान्तिक उलझनें हैं और किसी में एकाङ्गीय दृष्टिकोण । इस कारण उन्हें जन सामान्य के लिए लिखी गई कृतियां नहीं कहा जा सकता।
श्री वीरेन्द्रप्रसाद जी जैन की लिखी हुई "तीर्थकर भगवान महावीर" नामक काव्य भो देखने का सुअवसर प्राप्त हुमा। उसे प्राधान्त पढ़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि तरुण कवि ने जन साधारण की भावनामों के प्रतिनिधित्व करने का प्रयत्न किया है । इस काव्य को उसने पाठ सगों में विभक्त किया है । जो भगवान महावीर के पंच कल्याणकों से सम्बर हैं । कवि ने दिगम्बर एवं श्वेताम्बर मान्यतामों को ध्यान में रखते हुए उनके जीवन का वर्णन उस रूप में किया है जिसे उसने तर्क सम्मत समझ इस काव्य की यही विशेषता है। कवि ने साम्प्रदायिक संकीर्णता से ऊपर उठकर अपने हृदय की विशालता का परिचय दिया है।
कवि ने अपने काव्य में गेयता का ध्यान रखा है। इसमें साकेत, प्रिय प्रबास मादि की परम्परा स्पष्ट दिखाई देती है।