________________
षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १२७ प्राप ज्ञानी सोचिये यह, मोह का उद्वेग । जो विकल कर रहा सबको, त्याज्य वह आवेग ॥ नपति ने साहस सहित तब, कहा-'नागर बन्धु ! व्यर्थ अब तो है बढ़ाना, मोह का दुख-सिन्धु ।। जा रहे यह तो सु-पथ पर, है न दुख की बात । चिह्न इनके त्याग के कुछ, जन्म से ही ज्ञात ॥ प्राज माया समय वह जब, यह रहे सब त्याग । जा रहे क्रियमाण करने, सफल विश्व विराग ।। भूप को यह बात सुन कर, मौन थे सब लोग । दिख रहे अति तुच्छ सबको, अब जगत के भोग ।। मात त्रिशला ने कहा तब, धार उर में धीर ।
'तुम सफल हो कामना बस, यही अन्तिम वीर ॥ 'धन्य श्री माता-पिता तव ज्ञान पूर्ण विवेक । धन्य मैं हूं आपको पा, सफल जन्म अनेक ॥
क्षमा त्रुटियाँ कीजिये सब, सब जान अपना बाल।' . कर रहे जब बात यह सुर पा गए तत्काल ॥ पुष्प वर्षा हुई नभ से, वीर का जयनाद । प्रति-ध्वनित तब किया सबने, गुञ्जरित सुनिनाद ॥ किंतु समरस आत्म-दृष्टा, वोर ने सविवेक ।
सौम्य अमृत-रस-घुले-से, कहे शब्द कुछेक ॥ 'सूर्य ढलता जा रहा अब, लौटिये जन-बन्द । • तोडिए अब तो सु-जन जन मोह के दृढ़ फंद ॥