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तीर्थङ्कर भगवान महावीर यह मदिर मधुरिम रसीला, स्वर्ग का संगीत । पर न पाया वीर की यह साधना को जीत ॥ किन्तु इससे अप्सराएं', हो न पाई तुष्ट । वासना की चेष्टाए', कर उठी अति पुष्ट ॥ सनिकट जा वीर के वे कर रहीं मृदु स्पर्श । कर रही अभिसार-चेष्टा, काम वृत्ति सहर्ष ॥ पर विरागी वीर वर हैं, मग्न रति-हत ध्यान । मूर्तिवत् ही देख निश्चल, देवियां हैरान ॥ वे ठगों सी देखतीं अब, है चकित-से भाव । शर्म-सी उनमें-समाई, गत हुए दुर्भाव ॥ फिर गई निज मुंह लिए-सी, देवियां ये स्वर्ग । किन्तु तप में लीन सन्मति, प्राप्त हो अपवर्ग ॥
स्वर्ग चाहिए नहीं वीर को,
विपदामय संसार । उपसर्गों को झेल कर रहे,
कर्मों का संहार ॥