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१८० तीर्थङ्कर भगवान महावोर सद्धर्म सुस्वर सु-मधुर सरगम, वाणी कल्याणी तव प्रकाम । हे सहस नाम धारी ललाम,
तुम निरुपमान उपमान-नाम ॥ कवि की वाणी के अलङ्कार, कवि के कवित्व के काव्य सुघर । कवि के गानों के चिर गाने,
फिर भी कवि प्रज्ञा के बाहर ॥ फिर कैसे गरिमा-गायन हो, कसे असोम ! अभ्यर्थन हो । कसे अभिनन्दन पद-वन्दन,
कैसे श्रद्धांजलि अर्पण हो । निस्सीम देव ! सीमित वाणी, यश-गान न कुछ भी बन पाता । श्रद्धालु विनत अन्तस लेकिन,
जय बोल झुका शिर सुख पाता।
जय जय जय जयवन्त सदा त्रिशला-नन्दन । जय जय जय जय जगवंद्यनीय शत् शत् वंदन ॥