Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira
Author(s): Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधुनिक जैन काव्य ग्रन्थमाला ३ तीर्थकर भगवान महावीर सविता:धोरेम प्रसाद न वोर नि० सं० २४६१ विक्रमाब्द २०२२ किष्टाब्द १९६५ प्रकाशक: श्री अखिल विश्व जैन मिशन मलीगंज (एटा) उ० प्र० मूल्य : चार रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल विश्व जन मिशन ..अनीगंज (एटा) आभार श्री पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव गौहाटी (फरवरी १९६३) पर श्री दिजैन पंचायत गोहाटी के दान द्रव्य से प्रकाशित, हार्दिक धन्यवाद! निमो और बोने दो! अहिंसा परमो धर्मः यनो धर्मस्ततो जयः सबकी सेवा करो! प्रथम संस्करण.१९५९ १००० प्रतियां द्वितीय संस्करण १९६५ ..१००. प्रतियो महावीर मुद्रणालय मनोर्गन (एटा) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्यकारों ने भारतीय साहित्य के सभी मङ्गों को अपनी मूल्यमयी रचनामों द्वारा समलंकत किया है। तामिल, कन्नड, अपभ्रंश मादि भाषामों के मादि साहित्य निर्माता निस्संदेह जन साहित्यकार ही है । संस्कृत भाषा में 'चतुर्विशति संघान' सहश प्रभुत चमत्कार रचनामो को भी जनों में रख है । हिन्दी भाषा साहित्य के मादिकाल में जैनों ने ही अपनी रचनामों से उसको मूल्यमई बनाया है। प्रब भी जैन समाज ने साहित्य जगत का बैरिस्टर चम्पतराय जी जैन, श्री अनेन ब प्रभूति उल्लेखनीय लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार प्रदान किये हैं। किंतु इतना होते हुये भी एक बात जो खटकती है वह यह है कि जनों की पुरातन साहित्य परम्परा का पहले जैसा समुज्वल और प्रभावक रूप अब देखने को नहीं मिलता। जैन कथाबार्ता को लेकर माधुनिक शेनी में रचनामों का प्रायः प्रभाव ही है। उस पर जैन महापुरुषों के पादर्श जीवन और बोषप्रद शिक्षामों की परिवायत्मक नई रचनायें तो मिलती ही नहीं। माज हिंदी भाषा को भारत की राष्ट्र भाषा होने का गौरव प्राप्त है और उनमें एक दो प्रर्जन साहित्यकारों ने बैन धर्म के अन्तिम तीर्थकर भ० महावीर के पवित्र जीवन को काव्य पड करने का सद्प्रयास भी किया । परन्तु जैन सिदान्त पोर न साहित्य का गम्भीर मोर गहन परिचय न होने के कारण उसका ठीक निवाह वह न कर सके । इस परिस्थिति में अखिल विश्व बैन मिशन ने इस प्रकार के साहित्य के सूजन की पावश्यकता का अनुभव.करके हियो भाषा में 'माधुनिक जैन काव्य अन्धमाला' बामक नई शैली को पुस्तकमाला का प्रारम्भ किया है, जिसमें Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभी तक दो रचनायें प्रकाशित की जा चुकी है। प्रस्तुत रचना उसका तीसरा पुष्प है। तीर्थकर भगवान महावीर जैनधर्मके संस्थापक नहीं हैं और न ही जैन धर्म हिंसक यज्ञ परम्परा के विरोध में उद्भुत हुआ है। यह दोनों ही मान्यतायें भ्रान्त और निराधार है । इस कल्पकाल में जैन धर्म की पुनर्स्थापना प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव में उस प्राचीन युग में की थी, जब मन्तिम मनु नाभिराय इस संसार को सुशोभित कर रहे थे । उनके पश्चात कालान्तर से २३ तीर्थकर और हुए, जिनमें सर्व अन्तिम भगवान महावीर थे। उन्होंने अपने समय की प्रावश्यकतानों को लक्ष्य करके जैन धर्म का पुनरोद्धार किया था। उन्हीं के प्रवचन और पावशे लोक के लिए विशेष उपकारी है । यद्यपि उनके दो तीन जीवन चरित्र हिंदों गद्य में प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तुं हिंदी पत्र में एक प्रमाणित काव्य का प्रभाव खटकता था । चि०वीरेन्द्र प्रसाद जैन, बी०ए०० सार, साहित्यालंकार ने प्रस्तुते काव्यको रच कर उस प्रभाव को पूर्ति का सराहनीय प्रयास किया है। जिनेन्द्र के मुरणे प्रवाह गम्भीर हैं, उनका ठीक निर्वाह मानव बुद्धि से परे की वस्तु है। फिर भी उसके परिशीलनसे जो भावों में निर्मलता पाती है उसके १.मस्वरूप जो भो साहित्य प्रसून प्रस्फुटित हों वे सुदर पोर सुखद ही होते है । प्रतः प्रस्तुत रंचना स्वागतार्ह है। * भविष्य में मिशन अपनी साहित्यनिर्माण योजना को श्रीमान् पौर श्रीमान सहयोगियों की समुदार सहकारिता के बल पर ही सम्पन्न करने की प्राणा रखता है। विश्वास है, मिशन को पूर्ण सहयोग प्राप्त होगा। विनोत्अलीगंज (एटा) । हिताहर . १८.४.५६ ) (प्रथम संस्करण से) मानरेरी संचालक सविन मिसन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द प्रस्तुत रचना महाकाव्य है अथवा खण्डकाव्य है या क्या ? -इस ओर मेरा कतई लक्ष्य नहीं है और न इससे न मुझे कुछ सरोकार ही है । यह जो कुछ भो है मेरे प्राराध्य के प्रति मेरा हार्दिक भक्तिभावयुक्त श्रदाध्य है। ___ तीर्थकर गुणानुवाद बड़ा ही विशद् है तथा वर्णनातीत होता है । कवि भूधर' कहते हैं। "जिन गुन कथन प्रगम विस्तार, बुषि बल कोन लहे कवि पार ?' इसी बात का प्रतिपादन कवि मनरंगलाल जी के निम्न दोहे में भो देखिए:'इन्द्र के गणषर थके, पर मजगेश थकन्त । जश बरनत जिनवर तनो, नर किम पार लहन?' भक्त हरजसराय का भी यही मत है :'भी जिन.जग में को ऐसो दुधिवन्त जू, . .जो तुम पुण वर्णन कर पावै अन्त जू।' ... अब जिन गुण-गान की बात यह तब सर्वाङ्ग तीपंकर-. जीवन को प्रकट करना सम्भव कहां? साक्षात् केवसी भगवाब उसको अनुभूति में ले पाते हैं, परन्तु वे उसको मुख से वर्णन करने में समर्थ नहीं होते। अपने प्रतिद्धन्दी धर्म-नेता भ. बुद्ध से प्रशंसित, इतिहास प्रसिद्ध राजा श्रेणिक और विम्बसारद्वारा पूषित नर-अमरचन्द तीर्षकर अगवान महावीर के विषय में भी जैनाचार्य का मत पठि प्रतिबयोति मनकार युक्त है Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथापि उनके प्रवर्णनीय गुणों की पोर इंगित करता है:असितगिरि समं स्यात्कज्जलं सिन्धुपावे. सुरतरुवर शाखा लेखनी पत्रम:। लिखति यदि गृहीत्वा, शारदा, सर्वकालं, ... तदपि तव गुणानां वीर पारं न याति ॥ ऐसी दशा में मैंने जो यह तीर्थकर भगवान महावीर .का पावन जीवन चरित छन्दबद्ध करने का प्रति साहस किया वह भी सूर्य को दोपक दिखाने के सदृश है । उसका पूर्ण होना तो असम्भव है । यथार्थ बात यह है कि भगवान महावीर का समय जीवन ही वह शतपत्रीय मादर्श काव्य-कमल है जिसको सुरमि प्रसाद से अनुप्रेरित हो हर कोई. अपनी प्राकृति, कुसुमांजलि अर्पित कर सकता है। मैं भी उस महामानव के प्रसाधारण व्यक्तित्व से माकर्षित हो भक्तिवश कुछ रच सका. तो इसमें पाश्चर्य हो क्या ? 'भक्तामर स्तोत्र' में प्राचार्य मानतुङ्ग ने सोहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश, कतुं स्तवं विगतशक्तिरपि-प्रवृत्तः।x . xxx xxx . xxx अल्पप तंबतपता परिहास ' धामः, ... स्वद्भक्तिरेष मुखरी कुरुते बलान्मा। •ई-पकपी बाबात में मेक पर्वत जितनी रोषणाई सबल • संसार के सारे लों की मनों से पृथ्वी मापक पर बाता . रेखदेव जिते रहने पर भी... महावीर के सम्पूर्व गुणों न कहीं होता। .. : xसीम शक्तिहीर पुतिकर, क्तिनावपरकम नहिं . * सुपरसन को पाग, मुन तब भक्ति पुलाचे पम । कहा: - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जब परमसुषी श्री-मानतुङ्ग बसे संस्कृताचार्य पुनव अपनेको शक्तिहान, अल्पस, विद्वानो के उपहासयोग्य बताते हैं । तब भला मुझ जैसे हिंदी साहित्य के बच्चे का ठिकाना ही क्या? लेकिन वास्तव में यह भक्ति की शक्ति ही है, जिसने मुझसे मेरे माराध्य के प्रति ११११ छन्द लिखवा लिए । इन छन्दों को लिखने में ययपि तीन साल का अन्तराल लगा पर यथार्थ में देखा जाय तो मैंने प्रति साल के दिसम्बर, जनवरी और इनके पास-पास के कुछ दिन- इस तरह लगभग ६ माह ही इस रचना में लगाये मोर महीनों में इसका अवलोकन (अपवादरूप छोड़कर) तक नहीं हो पाया। मैंने अपने जीवन के २५ वें वसंत तक इसे पूरा करनेको सोची थी पर भाजके लोक रंजनाके व्यस्त गुग में परमाधिक काम कब मन चाहे हो पाते हैं ? प्रतः इसमें भी देरो हुई। पर केवल एक साल को ही किंतु मुझे हार्दिक परि नोष है कि इस रचना के लिखने के मिस ही मेरा समय प्रशुभोपयोग से शुभोपयोग मे लगा । और मैं माशा करता है कि जो महानुभाव भी इसका परायण करेंगे, उनके समय का भी शुभो. पयोग होगा, जो शुद्धोपयोग की भोर भी अग्रसर कर सकेंगा। • इस रचना की प्रेरणा को बात सुन लीजिए । जब मैं हाई स्कूमय इण्टरका विद्यार्थी या उस समय जब महात्मा तुलसी दास जीकृत रामचरित मानस', राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का 'साकेत' व 'हरिमोष जी का प्रिय-प्रवास' मादि सु-काम्य अन्य पड़े तो मुझे लगा कि तपः प्रधान श्रमण संस्कृति के प्रचंड मातभ० महावीर पर भी किसी महत्वपूर्ण काव्यग्रन्य का सजन होना चाहिए। उस समय २० छन्दों की एक रचना म. महाबोर पर-रच डाली और उसको एक-दो न प्रायोजनों पर सुनाया। श्रोतामों ने मंत्रमुग्ध होकर सुना और मेरी लाषा भी की। साधा तो मुझे प्रत्यानुरूप पसन्द नहीं प्राई पर बोतामों मंगपोकर सुवना बकर अच्छा लगा। बाद को यह Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवदित रचना .. छन्दों की हो गई ।बी० ए० के बयन के लिए मैं प्रयाग के जैन छात्रावास में रहा । इसी समय भारवीय ज्ञान पीठ, काशी से प्रकाशित श्री अनूपशर्मा का 'वर्धमान महाकाव्य का विज्ञापन पढ़ा। तभी छात्रावास के पुस्तकालय में कुछ पुस्तकें भी मंगाई जाने वाली थीं। मैंने उक्त पुस्तक का नाम दिया । पुस्तक प्राई और सबसे पहले मेरे हाथ पाई। बड़े उत्साह से पढ़ना शुरू किया। पढ़ते-पढ़ते उत्साह तिरोहित होने लगा और उसका स्थान क्षोभ ने ले लिया। बात यह कि भंटल तपस्वी तीर्थकर भ० महावीर से सम्बन्धित जो काव्य हो उसका प्रधान रस अंगार हो यह कभी भी उपयुक्त नहीं होसकता । शैली परम्परागत शास्त्रीय हो पर विषयानुरूप न हो तो वह प्रमुपयुक्त ही मानी जायगी। दूसरे जैनधर्म के महान उन्नायक के मुखारविन्द से ही जैन सिद्धान्तों के विपरीत सिद्धान्तों जैसे सष्टि कृतिस्ववाद प्रादि का प्रतिगदन कराना भी न्याय-संगत नहीं जान पड़ा । सामयिक पत्र-पत्रिकामों के पालोचना स्तम्भ में इस बात की चर्चाएं भी हुई। फिर भी 'वर्षमान' बड़े परिश्रम से रची मई संस्कृत वर्णवृत्तों की प्रच्छो रचना है। __ यथार्थ बात यह कि म. महावीर के जीवन को देखते हुए तो उनसे सम्बंधित रचना के प्रकृतरूप में शान्तरस, करुणाईस ववीररस (विशेषकर धर्मवीर रस) का परिपाक होना ही श्रेयष्कर है । कहना न होगा कि अब जब मैं तटस्थ होकर अपनी इस रचना को देखता है तो प्रतीत होता है कि इसमें प्रसंगानुरूप उपयुक्त रसों का परिपाक स्वभावतः हो गया है। कहीं-कहीं सीमित अङ्गार व अन्य रसों को भी छाप है। भक्ति तो है हो । . बी. ए. परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात जब में परपर प्रागया, तब छात्रावास के कक्ष-साधी (Roomi Partnery st भोलानाथ गुप्त का कार्ड पाया जिसके एक प्रश का प्राशय यह बा कि पाप भ० महावीर पर काव्य लिखना चाहते हामिल Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया या नहीं- इसने मेरो सुसुप्त भिलाषा को जागृत कर दिया और प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना होगई जिसके लिए गुस जो का प्राभारी है। यपि मैंने दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों प्रम्नायों की बीर जीवन विषयक घटनामों का समन्वय करने की चेष्टा की तथापि मैंने भगवान को कुमार तीर्थकर या बाल-ब्रह्मचारी ही माना है । इसके पीछे मेरे पू० पिता जी (श्री कामता प्रसाद जी द्वारा प्रणीत 'भगवान महावीर' पुस्तक का 'युवावस्था और गृहस्थ जीवन' प्रध्याय की छाप है । मुझे भ० महावीर का यह बाल-ब्रह्मचारी स्वरूप ही सदेव से प्रिय व स्पृहणीय रहा हैं। हो सकता है कि बाल्यकाल पोर तपःकाल की घटनामों के क्रम में या और कहीं मेरे लिखने में कुछ हेर-फेर हो गया हो, लेकिन मैंने प्रायः सभी प्रमुख घटनामों के समावेश करने की चेष्टा की है। सम्मव है कोई प्रमुख बातें रह गई हों जिनके प्रति मेरी दृष्टि हो न गई हो । बहुत सावधानी बरतने पर यह भी हो सकता है कि प्रशानवश कोई अनुचित बात लिख गई हो । इन सब त्रुटियों के लिए मैं अपने सहृदय पाठकों से क्षमा चाहेगा तथा उनके सूचित करने पर वे त्रुटि यां अगले संस्करण में दूर करने का प्रयल करूंगा । अन्त में में अखिल विश्व जैन मिशन का मामार मानता हूं जिसके द्वारा प्रस्तुत रचना प्रकाश में पा रही है । मेरी मा० अग्रजा श्रीमती सरोजनो देवी जैन ने भी इस पुस्तक की रूप-योजना में सहयोग दिया है उसके लिए में उनको भुला नहीं सकता । शात या प्रज्ञात रूप में जिन महानुभावों या जिन स्रोतों से मुझे इस पुस्तक के निर्माण में योग मिना उन सबका मैं प्राभार मानता है। समस्त शुभ कामनामों के साप । विनीत्बीर जयन्ती औरत १९५६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे संस्करण की बात प्रथम संस्करणके तुरंत ही समाप्त होने के बाद अब ६ साल बाद इसका प्रकाशन हो रहा है । कारण यह कि प्रथम संस्करण धर्म प्रचार भावना से प्रकाशित हना था कोई व्यापारिक दृष्टिकोण नहीं था। प्रतः दूसरे संस्करण के लिए दातार की प्रतीक्षा रही। श्री पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव गौहाटी (फरबरी १९६५) पर गौहाटी को धो दि० जैन पंचायत के दान द्रव्य से इसका पुनः प्रकाशन हो रहा है । गौहाटी जैन पंचायतके यशस्वी मंत्री बा० नेमोचंद्र जी पांडया ने वीर जयन्ती पर ही इसका प्रकाशन करने की बात लिखी थी किन्तु यह वीर-निर्वाण पर प्रकाशित हो पा रहा है। हम मंत्रीजी एवं समूची दि जैन पंचायत गौहाटी का इस प्रकाशन की आर्थिक सहायता के लिए हार्दिक प्राभार मानते हैं। इस अन्तरकाल में कुछ अन्य रचनाएँ भी रची गई हैं जिनमें तीर्थकर भ•पार्श्वनाथ के पावन जीवनवृत्त से सम्बन्धित प्रबन्ध काव्य प्रमुख है । परिस्थितियों को अनुकूलता होने पर ही वह भी पाठकों के हाथों में पहुंचेगा। दूसरे संस्करण में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किए गए हैं। कहीं कहीं यत्किचित परिवद्धन हुमा है। अलीगंज दीपावली १९ ) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश और सम्मतियां [प्रस्तुत काव्य के प्रथम प्रकाशन पर कुछ विश्रुत और गण्यमान सन्त, नेता एवं विद्वान महानुभावों तथा इष्ट जनों ने अपने पाशीर्वाद, शुभकामनाएं एवं सम्मतियां भेज कर मुझे प्रोत्साहित एवं अनुग्रहीत किया, उन सबका मैं हृदयसे प्राभार मानता हूं। शुभ सन्देशों एवं सम्मतियों के कुछ अंश यहां साभार उद्धृत किये जा रहे हैं।] सन्तप्रवर क्षुल्लक स्व. श्री १०८ गणेशकोति (गणेशप्रसाद) जी वर्णी, उदासीनाश्रम, ईसरी "....""योग्य कल्याण भाजन हो । प्रापका पुस्तक मिली। मापने प्रकाशन में परिश्रम किया है, तदर्थ धन्यवाद । भ० महा. वीर के चरित्र में दो बातें मुख्य हैं १- ब्रह्मचर्य, २- अपरिग्रह । अन्य भी बातें हैं । परन्तु जो मनुष्य इन दो बातों को अपनायगा वह कल्याण का पात्र होगा । स्वयं महावीर हो जायगा।" (पत्र ता० १३६२५६) भारत के महामहिम प्रथम राष्ट्रपति डा.स्व. राजेन्द्र प्रसाद के पर्सनल सेक्रेटरी ने प्रस्तुत काव्य पर उनकी प्रोर से धन्यवाद प्रेषित किया(पत्र नं० एफ०४-एच । ५६ : जून २५, १९५६ : भाषाढ़ ४, १८८१ [शक] 1) वयोवृद्ध हिन्दो-सेवक राजषि स्व. श्रीमान पुरुषोत्तमदास जी टण्डन, नई दिल्ली"पापकी भेजो पुस्तक 'तीर्थंकर भगवान महावीर' मिली। धन्यवाद । मैंने उसके कूछ पन्ने इधर उधर पढ़े। मेरा स्वास्थ अब विशेष काम नहीं करने देता । मापको इस हिन्दी काव्य पर Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर भगवान महावीर बधाई देता है। प्रापकी प्रतिभा दिन-दिन प्रौढ़ हो यह मेरी कामना है।" (पत्र ता. १२५६) राष्ट्र-कवि स्व.श्रीमान् मैथिलीशरणजी गुप्त, चिरगांव. "तीर्थकर भगवान महावीर' पर लिखकर मापने वो अपनी पदा प्रकट की है वह प्रशंसनीय है। कामना है भविष्य में प्राप भोर भी अच्छा लिख सकें।" (पत्र ता. १५३५९) बयोवृद्ध हिन्दी एवं जैन साहित्य-सेवक स्व० श्रीमान् नाथूराम जी प्रेमी, गजपंथ, म्हसरूल नासिक "तीर्थकर भगवान महावीर' की प्रति जो प्रापने भेजी है वह यथा समय मिलगई थी, उसके पहुंचने का सूचना भी में न पापको दे सका । यहां प्राये हुए डेढ़ महीने से अधिक हो गया, परन्तु हालत नहीं सुधरी । चन फिर नहीं सकता। बहुत ही अशक्त हो गया हूं। पढ़ना लिखना भी नहीं हो सकता। पापके इस सत्प्रयत्न का अभिनन्दन ही कर सकता है। माशा है, भाप इस मार्ग में उत्तरोत्तर उन्नति करेंगे।" पिन ता. २८५४६) प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी के उद्भट विद्वान गहीरालाल भोजन, एम०ए०.एल-एल० बी०, डी. लिट्, गहरेक्टर प्राकृत जन विद्यापीठ, मुजफ्फरपुर (बिहार) ........"तीर्थकर भगवान महावीर' की प्रति का उपहार मिल गया जिसके लिए में बहुत कता है। भाई कामता प्रसाद जी की 'भगवान महावीर' पुस्तक द्वारा समाज में भगवान के जीवन चरित्र की मच्छी जानकारी हो गई । प्रब जो उनके सुपुत्र द्वारा हो उक्त परित्र का काव्य में स्पान्तर समाज के सम्सुख पाया है उससे पाठकों को भगवान के चरित्र की जानकारी के साथ-साथ रुचिकर, सरस, मनोहर काव्य-रस का भी प्रास्वादन मिलेगा। इस बहुमूल्य साहित्य सेवा के लिए में दोनों का हदय से अभिनन्दन करता हूं तषा भतीजे के नाते तुम्हें Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सन्देश और सम्मतियां पाशीर्वाद देता है कि तुम प्रपनी काव्य प्रतिभा का खूब विकास करो और धर्म की ज्योति बढ़ानो।" (पत्र ता. २९।५२९) ... . . . Dr.A. N. Upadhye, M. A., D. Litt., Raja Ram College, Kolhapur"I read portions of Shri Virendra Prasad's poem Tirthankara Bhagawana Mahavira'...........He seems to possess a natural gift and his verses flow with a remarkable liquidity and poet ic grace." ___ (His letter to Shri K. P. Jain dated 15-5-59) जन वाङ्गमय के वयोवृद्ध उद्भट विद्वान श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार, दिल्ली- "प्रापकी श्रद्धोपहार' के रूप में भेजी हुई 'तीर्थकर भगवान महावीर' नामक पुस्तक मुझे यथा समय मिल गई थी और में उसे सरसरो नजर से देख गया हूं। इस चरित्र-चित्रण में मापके उत्साह और परिश्रम को देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई. । यह उत्साह और परिश्रम यदि बराबर चालू रहा तो एक दिन माप अच्छे कवि बन जानोगे । इसके लिए मेरा प्रापको शुभा. शीर्वाद है पापका यह प्रथम प्रयास प्रायः प्रच्छा ही रहा है।". ... (पत्र ता० १२-८-२९) राजस्थानी साहित्य के प्रवेषक विद्वान श्रीमान् अगरचन्द जी नाहटा, बीकानेर:. . ... 'तीर्थकर भगवान महावीर' नामक प्रापका काव्य मिला । प्रापकी काव्य-प्रतिभा उत्तरोतर वृद्धि प्राप्त करे यही शुभ कामना है । काय बहुत अच्छा बन पाया है। जेनेतर व्यक्ति जन संस्कृति को ठीक समझ नहीं पाते इसलिए पापका गहू,प्रयास वास्तव में सफल और महत्वका है।"(ता०२५-५-४९) प्रख्यात उपन्यासकार मो अनेन्द्रकुमार जी, दिल्ली:.:. चिरंजाव वारेन्द्र की काव्य-कृति मिल गई । जहां तहाँले Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तीर्थकर भगवान महावीर कुछ पढ़ भी गया । कविता में प्रवाह है भावाकुलता है ही । मेरों उन्हें बधाई दीजिये।" (पत्र ता० २१-५-५९) प्रो०डा०स्व. गुलाबराय एम०ए०,डी.लिट०,मागराः___ "श्री वीरेन्द्र प्रसाद जैन द्वारा लिखित 'तीर्थकर भगवान महावीर' शीर्षक काव्य पढ़ा । इसमें भगवान महावीर के पावन चरित्र की सरल और पाडम्बर रहित भाषा में बड़ी रम्य झांकी मिलती है । इसमें भगवान महावीर के जीवन चरित्रकी सरलता; ऋजुता और दृढ़ प्रतिज्ञता पर्याप्त मात्रामें उतर पाई है । उनको बाल ब्रह्मचारी के रूप में दिखाया है। माता पिता से विवाह के प्रस्ताव पर वार्तालाप अत्यन्त मार्मिक है। संक्षेप में सिद्धान्त निरूपण भी अच्छा हुअा है । पुस्तक एक बड़ी प्रावश्यकता की पूर्ति करती है।" प्रो०डा रामकुमार वर्मा,एम. ए°, डोलिट०, प्रयागः "तीर्थकर भगवान महावोर' हिंदी की एक सफल और श्रेष्ठ कृति है । इसके लिए मेरी हार्दिक वधाई है । कृपया हिंदीको अन्य ग्रंथ रत्न दीजिये।" (पत्र १०-६-18) भारतीय प्रत्नविद्या के विश्रत विद्वान डा. वासुदेव शरण जी अग्रवाल, एम० ए०, डी. लिट्, हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी:"तीर्थकर भगवान महावीर' रचना में तुम्हारी काव्य साधना की सफलता देखकर चित्त प्रसन्न हुा । भगवान से यह प्रार्थना है तुम्हारा यह मार्ग उत्तरोत्तर पालोकित हो।" (पत्र ता०६-६-५६) प्रो. डा० कृष्णवत्त वाजपेयी, एम० ए०, डो० लिट्०, अध्यक्ष प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, सागर विश्व विद्यालय, सागरः"चिरंजीव वीरेन्द्रप्रसाद द्वारा लिखित 'तीर्थकर भगवान Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सन्देश और सम्मतियां महावीर' शीर्षक काव्य-ग्रन्थ प्राप्त हुप्रा । इस सुन्दर रचना को पढ़कर हादिक प्रसन्नता हुई । कवि ने अत्यन्त रोचक ढंग से भगवान महावीर का जीवन चरित्र दर्णन किया है। विविध छंदों में वर्धमान के समग्र चरित्र का सरस वर्णन पहली बार पढ़ने को मिला । भगवान का लोक रंजक रूप सरल शैली में गुम्फित किया गया है । नव युवक कवि को इस नूतन कृति के लिए बधाई।" (पत्र २७-६-५६) श्रीमान् डा० माताप्रसाद जी गुप्त, एम० ए०, डी० लिट०, प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रयागः........."तीर्थकर भगवान महावीर' की प्रति मिली। अनेक धन्यवाद । मैं उसे आदिसे अन्त तक पढ़ गया। विषय का निर्वाह आपने बड़े हो सरल और काव्योचित ढंग से किया है । जीवनी से सम्बन्धित काव्यों में सूचनात्मक विवरणों के कारण प्रायः नीसरता मा जाती जाती है मापने उनको प्रमुखता नहीं दी है यह आपने अच्छा किया है। आपको इस रचना के लिए बधाई देता हूँ।" (पत्र ता० २६-५-५६) श्रीमान् डा० हरदेव बाहरी, एम० ए०, डो० फिल०, डी० लिट्०, प्रयाग विश्व विद्यालय, इलाहाबादः .. तीर्थकर भगवान महावीर' की एक प्रति भी प्राप्त हुई बड़ी सरस और सुन्दर साहित्यिक भाषा है इसकी,यह मैं नहीं जानता था कि आप इतने अच्छे कवि हैं। आपके भाव-चित्रण का सौष्ठव देकर चित्त प्रसन्न हो गया।" (पत्र ता० १७-५-४६) श्रीमान् म० पासिंह शर्मा, कमलेश', एम० ए०, पी. एच० डी०, हिन्दी विभाग, मागरा कालेज, आगरा__ "तीर्थकर भगवान महावीर' देख गया हूं। मुझे प्रापका यह काव्य प्रत्यंन्त सुन्दर लगा । भगवान महावीर का जीवन अपने जिस रूप में रखा है, वही स्वाभाविक है। और उसी को दृष्टि में रख कर श्रद्धालु श्रेय के पथ पर बढ़ सकते हैं। आपने इतनी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर छोटी वय में एक महापुरुष के जीवन पर ऐसी उत्कृष्ट और सर्वाग पूर्ण रचना रचकर अपनी प्रतिमा का परिचय दिया है उसके लिए मेरी बधाई स्वीकार कीजिए।" (पत्र ता. ६-६-५९) प्रो० राजनाथ जी पाण्डेय, सागर विश्व विद्यालय, सागरः___ "एक प्रति महाकाव्य तीर्थकर भगवान महावीर' की मिलो पढ़कर गद्गद् हो उठा । क्यों न हो! "बाढ़ पून पिता के धर्मा" के अनुसार प्रापकी प्रतिभा ऐसी होनो ही चाहिये। धर्म चेतना बिहीन इस घोर कलिकाल में आपके पूज्य पिता जो निबिड़ तिमिराच्छन्न प्ररण्य के बीच सत्पथ और सद्धर्म रूपी दीपक का प्रकाश देते रहे हैं । ऐसे प्रास्तीक विद्वानों और प्रादर्श महापुरुष के पुत्र में प्रारम्भ से हो विद्वता एवं भावुकता के इन शुभ अंकुरों का मै हृदय से स्वागत और अभिनन्दन करता है। प्रापका महाकाव्य सादगी और साधुता से प्रत्यन्त मोतप्रोत है । बधाई स्वीकार करें।" (पत्र ता. २३-८-५०) श्री शिवसिंह जी चौहान 'गुञ्जन'* एम० ए०, साहित्यरत्न, साहित्यालंकार, साधना कुटोर, बरिहा, , रामनगर:- . . "तुम्हारी काव्य कृति 'तीयंकर भगवान महावीर' पढ़कर प्रत्यन्त प्रसन्नता हुई । महापुरुषों के लोक कल्याणकारी विशद जीवन-वृत्त की काव्य रूप में सफल पावतरणा कलाकार के उत्कृष्ट काव्य-कौशल की परिचायिका होती है। मैं समझता है 'तीर्थकर भगवान महावीर' तुम्हारे प्रथम प्रयास को प्रतिफल है। वय एवं व्यवस्था की दृष्टि से कृति की यह उत्कृष्टता पाच मापने मुझे (पारेना को) मासे १२ तक एस० एन०एम० इण्टर काज कायमच में पड़ाया है। मेरे हृदय में काम बिबांगन ने में बापका विशेष हाप पारे । 'गुरु' के प्रति बागार प्रकट करने के Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुम, सन्देश और सम्मतियां यु का विषय है । इस रूप में तुम्हें देखकर मेरी माया साकार हो उठी है। मुझे पूर्ण विश्वास है तुम्हारी यह सफलता शीघ्र ही कोई अन्य श्रेष्ठतम काव्य हिंदी जगत को भेंट कर सकेगी। परमेश तुम्हारी प्रतिभा को निरन्तर निखार दें। तुम पर मुझे गर्व है और मेरे इस गर्व के गौरव की रक्षा ही मेरे लिए सबसे बड़ी गुरु दक्षिणा है। रचना पढ़कर बहुत कुछ लिखने की इच्छा हुईमो परन्तु स्वास्थ्य साथ नहीं देता।" (पत्र ता० १६-१-६०) श्री भोलानाथ जी गुप्त, एम. ए., एल.एल.बी. एडवोकेट, दुद्धी:"प्रापकी भेंट तो मुझे काफी पहले मिल गई थी लेकिन उसका रसास्वादन देर में कर सका। मैंने पापका हिंदी काव्य 'तीर्थकर भगवान महावीर' पायोपान्त पढ़ा। इसे महाकाव्य कहा जाय अथवा खंडकाव्य-जहां तक मेरा अपना विचार है, इसमें महाकाव्य के शास्त्रीय सभी गुरा विद्यमान है। जहां तक इसके प्राकार का सवाल है उनके लिए मैं यह सोचता है कि यदि किसी व्यक्तिमें मानवोचित स्वाभाविक सभी मुरण वर्तमान हों तो फिर क्या उसका प्राकार का छोटा होना हो उसे मानव की संज्ञा देने में प्रडंगा लगा सकता है? यदि नहीं तो फिर मापकी इस रचना को भी महाकाव्य कहा बाय तो फिर कोई भत्युक्ति नहीं। मुझे खुशी है कि मापने इतनी कम पायु में इतनी सफल रचना की है। जिस लक्ष्य को सामने रख कर मापने इसकी रचना की है उस लक्ष्य की मोर भापकी लेखनी स्वाभाविक रूप बढ़ती चली गई है। पंचम सर्ग तो इस पूरे काव्य की जान ही है। प्रापको इसे रचना में प्रवाह है तथा बाल-मीमा बाप प्रवाब देना बापावा पटना । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीपंकर भगवान महावीर वात्सल्य प्रेम गया दार्शनिक विचार इतने सरल और प्रभावोत्पाबक शैली में लिखे गए हैं कि पाठक उससे प्रभावित हुए बगेर नहीं रह सकता। अन्त में मैं इतना और कहूँगा कि प्रापकी रचना पाठकके अन्दर रसोद्गार करने में सफल हुई है और यही सफल काव्य का सबसे बड़ा गुण है।" (पत्र ता० २८-३-६०) माननीय सौभाग्यमल जी जैन,भूतपूर्व मंत्री मध्यप्रदेश, शुजालपुर"मैंने पापके द्वारा रचित 'तीर्थकर भगवान महावीर' काव्यात्मक पुस्तक का प्रायोपान्त अवलोकन किया । वास्तव में इस रचना में प्रापकी काव्य-साधना सफल हुई है । मेरे चित्तको बड़ी प्रसन्नता हई। पाठकों को जहां भगवान महावीर के जीवन सम्बन्धो घटनामों को जानकारी प्राप्त होगो, वहां साथ २ काव्य का रसास्वादन का प्रानन्दका प्राप्त होगा। मेरी हार्दिक कामना है कि पापकी काव्य प्रतिभा का खूब विकास हो ताकि प्राप माता सरस्वती की सेवा के द्वारा जैन साहित्य को और अधिक श्री वृद्धि कर सकें।" (पत्र ता०३०-६-५९) भी यशपाल जी जन सम्पादक'जीवन-साहित्य'बिल्ली___ "चि. वीरेन्द्र के 'तीर्थकर भगवान महावीर' काव्य की प्रति यका समय मिल गई थी। मुझे खेद है कि मैं उसकी पहुँच न दे सका। कुछ भाग-दौड़ में रहा । पर पुस्तक पर मैं निगाह डाल गया है वह मुझे बहुत रुचिकर हुई है। बड़ी ही प्रांजल भाषा में उसमें भगवान महावीर के चरित पर प्रकाश डाला गया है। काव्य की शैली माकर्षक है और उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें कवि की वाणी-विलास नहीं है, एक उदात्त भावना है। मुझे विश्वास है कि इस लोकोपयोंगी कृति का सर्वत्र मावर होगा और उसके पठन-पाठन से बैन ही नहीं, नेतर समाज भी साभान्वित होगा। भाई वीरेन्द्र को मेरी भोर से बचाई दीजिये।" (पत्र सा० १६-१०-११) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सन्देश और सम्मतियां । ग. महेन सागर प्रचंडिया, एम०ए०,पो०एच००, भागरा- ..... ... "तीर्थकर भगवान महावीर' विचारों का विश्व विद्यालय है। कवि को अपने उद्देश्य में अभूतपूर्ण सफलता मिली है। शंलोगत सौन्दर्य ध्वन्यात्मकता, स्पष्टवादिता पोर प्रवाह-पटुताकृति का अनोखा माकर्षण है । कला और भाव पक्ष की दृष्टि से प्रस्तुत रचना एक सफल लघु महाकाम की कोटि में परिगणित की जानी चाहिए । कवि की लेखनी में हिन्दी वाङ्गमय को इसी प्रकार सर्वोदयी एवं पूर्ण सामग्री से सम्बदित करने को पूर्ण क्षमता है।" . (बिना तारीख का पत्र) विद्यावाचस्पति श्री शिवनारायण जी सक्सेना,एम.ए., सिदान्तप्रभाकर, मेघनगर"पाठ सों में भगवान महावीर का जीवन चरित् जिस कुशलताके साथ भाई श्री वोरेन्द्र प्रसाद जैन सम्पादक 'पहिंसावाणी' ने 'तीर्थकर भगवान महावीर' नामक प्रबन्ध काव्य अन्य में गूप दिया है, उसे पढ़ते ही बनता है। काव्यमें भाव वित्रए, विषय का निर्वाह, साहित्यिक भाषा तथा सरसता जैसे अनेक गुरण स्वाभाविक रूप से मा गये है। भगवान को इसमें बाल. ब्रह्मवारी के रूप में दिखाया गया है। क्योंकि अन्धकार को भगवान का यहीं स्वरूप सदेव से प्रिय रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह कृति कवि की काम्य प्रौढ़ता एवं विद्वता की भी मन्तिम छाप पाठक पर छोड़ देती है । यद्यपि भगवान महावीर के जीवन को ही इस काव्य का विषय बनाया गया है फिर भी जन्म उत्सव, शिशु वय, किशोर वय, तरुणाई, विराग केवल ज्ञान तथा निर्वाण से उपयोगी स्थलों पर लेखनी चलाकर इस बात का निरन्तर प्रयास किया है कि अंसना में कोई बापान पड़े। हिंदी साहित्य में जो यह मनोहर काम्य मिला नया उसके लिए मैं कवि को बधाई देता साप ही यह भी विश्वास Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थहर भगवान महावीर प्रकट करता है कि मां भारती के हिन्दी कोर्ष में एक अमूल्य कृति में वृद्धि हो गई है।" काव्य मर्मज्ञ श्री पं० पन्नालाल जी, साहित्याचार्य सागरः"तीर्थकर भगवान महावीर' पुस्तक मिली। सुन्दर रचना है, भाव और भाषा दोनों ही हृदय में घर करते हैं । मापके इस कार्य से साहित्य को श्री वृद्धि हुई है।" (पत्र १५ अगस्तं १५६०) श्री पं० वंशीधर जी सा०, चौमू (जयपुर): 'तीर्थकर भगवान महावीर' पुस्तक की काव्य रचना बहुत सुन्दर बन गई है। इस पुस्तक का केवल 'महावीर' नाम ही रखते तो अच्छा था। बन परीक्षालयो के पाठयक्रम में इसको रखवाएं सम्मेलन की हिंदी परीक्षामों में अगर पुस्तक अथवा उसका मश भी रखा जाय तो ठीक रहेगा । पापको भावो रचनाएं अधिक प्रौढ, भावपूर्ण हों एवं पाप समाज के सुकवियों मे प्रमुख स्थान प्राप्त करें यही मंगल कामना है। (पत्र ता० २९-१०-५६) भीमान् बबरीप्रसाद साकरिया, सम्पादक राजस्थान: भारती' (बीकानेर) मानन्दः प्रथम प्रयास होने पर भी प्रापका यह काव्य बग सुन्दर निर्माण हया है। हमें तो यह पता नहीं था कि प्राप इतने जबरदस्त कवि भी है। पुस्तकं वोई के योग्य है।" (पत्र ता० १८-२-२६) Shiti Digambar Das Jain, Author of 'Shanti Ke Agraduta Bhagawan Máhavira,' Shiaħåránpur , . -*** Not to face, but from the varique article of VOA, & A. V. şhri, Virendra got 4 sacred place my heart and as such I know him perfectly well: Hie hande Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सन्देश और सम्मतिया *st enterprize "Tirthankara Bhagawan Mahavira' is self speculating, conclusive proof of his ability. The book is well arranged, richly illustrated poem and to the point. The whole book is a very interesting poem divided into eight different chapters. The language though very simple and easily understandable but very effective, impressive and attractive. I heartly appreciate Mr. Virendra's hard labour, he took to compose this very valuale book. Its paper is white and get up excellent. I wish it great success und hope that our Jains will distribute this unforgetable sweets to non-Jains at Virajayanti and Vira Nirvana festivals.” (His letter to Shri K: P. Jain, dated 15 5-59) Shri Pukhraj Jain, Secry: The Jain Mission Society, Madras.:"Recently I saw an original work composed in ver. se by your son Shree Virendra Jain, B. A., Sahityalankar. I should say it is an excellent work. There are many poets who have born Jains but have not wield their pens on Jain characters. It was the unique work of your son who broke down this unhealthy tradition and wrote an epic poem on Lord.Mahavir. Please con vey our.congratulations for his maiden effort." . (His letter to Shari K. P. Jain, dated 22-8-59) Igtorrarem , gogo, Túosto, & "जकल जैन साहित्य में कविता के क्षेत्र में जिस प्रकार का प्रतिसादही पा रही है उनकी खकर मन भारी हो पायी महावीर प्रसाद विदाक बाद माड़ो मी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर में जिस प्रकार रहस्यवाद, छायावाद और उसके बाद प्रगति. वाद पंख लगाये दौड़ा पाया, उसी प्रकार महा कवि बनारसी दास, वृन्दावन, भूधरदास और दौलतराम आदि की शान्तिवादी सात्विक साहित्यिक परम्परा के बाद जैन साहित्य में भी प्रगति वाद का काफी प्रभाव पड़ा और उसमें भीरवड़ छन्द, केंचुपा छन्द, प्रादि स्वच्छन्द वादी परम्परा चल निकली। कुछ तुक्कड़. वाज अपनी प्रशास्त्रीय विचार हीन तुकबन्दी वाली दस-बीस पंक्तियों को कविता मानकर तथा उन्हें प्रकाशित कराकर अपने को कवि मान बैठते हैं । इस प्रकार की प्रवृत्तियोंसे जैन साहित्य को विगत पचास वर्षों में जिस प्रकार की स्वस्थ सामग्री प्राप्त होनी चाहिए थी वह नहीं हो सकी। अभी हाल में कुछ रचनायें ऐसी प्रकाशित हुई हैं जो पचात्मक एवं शास्त्रीय पद्धति के प्राधार पर लिखी गई है लेकिन उनमें किसी में तो सैद्धान्तिक उलझनें हैं और किसी में एकाङ्गीय दृष्टिकोण । इस कारण उन्हें जन सामान्य के लिए लिखी गई कृतियां नहीं कहा जा सकता। श्री वीरेन्द्रप्रसाद जी जैन की लिखी हुई "तीर्थकर भगवान महावीर" नामक काव्य भो देखने का सुअवसर प्राप्त हुमा। उसे प्राधान्त पढ़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि तरुण कवि ने जन साधारण की भावनामों के प्रतिनिधित्व करने का प्रयत्न किया है । इस काव्य को उसने पाठ सगों में विभक्त किया है । जो भगवान महावीर के पंच कल्याणकों से सम्बर हैं । कवि ने दिगम्बर एवं श्वेताम्बर मान्यतामों को ध्यान में रखते हुए उनके जीवन का वर्णन उस रूप में किया है जिसे उसने तर्क सम्मत समझ इस काव्य की यही विशेषता है। कवि ने साम्प्रदायिक संकीर्णता से ऊपर उठकर अपने हृदय की विशालता का परिचय दिया है। कवि ने अपने काव्य में गेयता का ध्यान रखा है। इसमें साकेत, प्रिय प्रबास मादि की परम्परा स्पष्ट दिखाई देती है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सन्देश और सम्मतियाँ इस कवि की रचना का अध्ययन करने से यह भी विदित होता है कि कवि को अपने भावों को व्यक्त करने के लिए भाषा एवं शब्दों का यथेष्ट वरदान मिला है। लेकिन शाब्दिक अध्य. यन करते समय उक्त काव्य में कुछ विचित्र शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। जैसे 'झोंके' के लिए 'भूके', 'पूछ' के लिए 'पूछ' प्रादि । वैसे भाषा की दृष्टि से कवि ने संस्कृत निष्ठ हिन्दी का प्रयोग अधिक किया है जिसके कारण भाषा कुछ दुरूह जैसी हो गई है किन्तु इससे प्रवाह एवं सरसता में किसी प्रकार की वाधा उपस्थित नहीं होती। स्थानीय वातावरण में प्राप्त शब्दों का प्रयोग भी कवि ने बड़े ठाट से किया है जैसे- 'कोदों' 'मांढ़' ( लगाना) कवि ने अपनी रचना को सचित्र बनाने का पूरा प्रयास किया है उससे ग्रन्थ की मोहकता काफी बढ़ गई है। छपाई और सफाई की दृष्टि से भी उक्त अन्य आकर्षक बन पड़ा है लेकिन पद्यों पर संख्या अंकित न होने के कारण उसके सन्दर्भो के उपयोग करने में कठिनाई होती है।" कविवर श्री कल्याणकुमार जैन 'शशि' रामपुर:____.. तीर्थकर भगवान महावीर' पुस्तक के लिए धन्यवाद पुस्तक बहुत सुन्दर और उपयोगी है । अापके प्रयत्नको सराहना करता हूं।" (पत्र ता० २६-५-५६) सुकवि धन्यकुमार जैन 'सुधेश, नागौद"" पुस्तक का प्रकाशन सुन्दर हुमा है । मापने उसे जो सर्वाङ्गोरप सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है वह प्रशंसनीय है। प्रापकी पुस्तक को मैंने प्रायोपान्त पढ़ा है। पुस्तक आपने श्रम पूर्वक लिखो है-इसमें सन्देह नहीं। पापका यह प्रयास प्रशंसनीय है। अभी इस दिशा में लिखने के लिए पर्याप्त क्षेत्र है। माशा है भावी कवि जो इस विषय पर अपनी लेखनी चलाना चाहेंगे, पापको कृति से पर्याप्त प्रेरणा प्राप्त करेंगे । मुझे मापकी इस सफलता से हार्दिक प्रसन्नता है। प्राशा है पाप Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर इसी प्रकार काव्य सृजन कर जन साहित्य के भण्डार को श्रीसम्पन्न करते रहेंगे।" (पत्र दि० ११ व २।५।५३) श्रीमान् मा० उग्रसेन जी जैन, मंत्री-म० भा० वि० जैन परिषद् परीक्षा बोई, काशीपुर".."पापको पुस्तक तीर्थङ्कर भगवान महावीर प्राप्त हुई। धन्यवाद । कविता सुन्दर मोर भावपूर्ण है और अच्छी लिखी है।" श्रीमान् प्रादीश्वर प्रसाद जैन, एम. ए. सेक्सन आफीसर यू० पी० एस० सी०, मंत्री- जैन मित्र मण्डल, देहली___"आपके द्वारा रचित 'तीर्थकर भगवान महावीर' काव्य मिला । भगवान पर इतना सुन्दर काव्य लिखने का पापका प्रयत्न श्लाघनीय है पापको जैन धर्म को प्रचार की भावना तथा जैन धर्म के अन्तिम तीर्थकर भ• महावीर के प्रति प्रगाढ़ श्रदा के कारण ही इस सुन्दर पुस्तक का निर्माण हो सका है। भगवान महावीर के जीवन सम्बन्धी इस प्रकार के काव्य की कमी बड़ी प्रखरतो थी। और उस कमी को पूर्णकर मापने जैन साहित्य की जो प्रगति की है उसके लिए प्रापको अनेकानेक धन्यवाद । प्राशा है कि प्राप भविष्य में भी इस प्रकार के जैनसाहित्य की सेवा में दत्तचित्त रहेंगे।" (पत्र ता० २५-५-१६) म० शान्तिलाल बालेंदु, संचालक हिन्दी शान-पीठ, ".."यह प्रसन्नता को बात है कि श्री वीरेन्द्र प्रसाद जैन ने हिन्दी में भ. महावीर के जीवन दर्शन पर अपने श्रुत शान द्वारा 'तीर्थकर भगवान महावोर' शीर्षक एकार्य काव्य की निवर्तना की है । इस ग्रन्थ को मैंने स्वयं देखा है, यह अपने ढङ्ग को एक अच्छा ग्रन्थ है। कवि अपने विषय की महत्व पूर्ण विवेचना में पूर्णतः सफल ह । हम श्री बोरेन्द्र प्रसाद के इस सप्रयास का अविनन्दन करते हैं । पाशा ह भविष्य में भी हमें इनकी पीयूष Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सन्देश और सम्मतियां वर्षिरसी वाणी का लाभ सजित साहित्य के रूप में प्राप्त होता रहेगा।" (सम्मति ता० १६-५-५६) श्री ज्ञानचन्द्र जैन 'स्वतन्त्र', सह-सम्पादक 'जैन-मित्र', सूरत".."सत्साहित्य वह नहीं जो बहुत बड़ी पुस्तक या ग्रन्थ रूप में हो । वह तो मात्र एक कलेवर है । "सत्साहित्य वह है जिसमें पाठक की रुचि बनी रहे, पुनः पढ़ने की इच्छा हो। मौलिकता एवं नवीनता मिले । तीर्थकर भ० महावोर इसी प्रकार की सुन्दर काव्यात्मक रचना है, जो पाठकों को अपनी ओर वरवस खोंच लेती है ।" (विस्तृत समालोचना का एक अंश) श्रीमतो रूपवती देवी जैन 'किरण' जबलपुर "भाई वीरेन्द्रप्रसाद जी का काव्य महावीर' हस्तगत हुना। पढ़ा, धाराप्रवाही होने के साथ ही अत्यन्त रोचक बन पड़ा है। भ० महावीर की वारणी जन-जन तक पहुंचाने का प्रयत्न स्तुत्य है । द्वेष, स्वार्थ, असीम अभिलाषाओं से पीड़ित विश्व को इस युग म शांति को साधना असम्भव सी प्रतीत होती है। मृगमरीचिका की विभीषिका में सच्ची शान्ति के प्राप्तार्थ भगवान के सन्देशों का पुण्यस्मरण ही मङ्गलमय है ।"(पत्र ता०७।६।५९) श्री लक्ष्मीचंन्द्र 'सरोज' एम० ए०, जावरा" प्रस्तुत काव्य ग्रन्थ लिखते समय वीरेन्द्र प्रसाद का लगभग वही दृष्टिकोण रहा. जो दृष्टिकोण श्री तुलसीदास जी का 'रामचरित मानस' लिखते समय रहा और जैसे तुलसी अपने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहना नहीं भूले वैसे ही वारेन्द्र अपने महावीर के तीर्थकरत्व को नहीं भुला सके । अपने आराध्य का Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ तीर्थकर भगवान महावीर गुणानुवाद करना उनका उद्देश्य रहा और इसमें वे प्राशा से भी अधिक सफल हुए।" (विस्तृत समीक्षा से) श्रीमान् लालचन्द जी काशलीवाल, संयोजक : अखिल विश्व जैन मिशन केन्द्र, कलकत्ता, दांता"तीर्थकर भगवान महावीर' काव्य ग्रन्थ मिला भाई वीरेन्द्र प्रसाद जी के इस प्रयास के लिये में हार्दिक प्रशंसा करूंगा। मापने बहुत ही सुन्दर ढङ्ग व सरस कविता में भगवान महावीर का जीवन चित्रण किया है । छपाई एवं कागज भी बढ़िया है।" (पत्र ता. २५-५-५९) श्री प्रकाशचन्द टोंग्या संयोजक अ० वि० जन मिशन केन्द्र इन्दौर"श्री वीरेन्द्र जी को 'तीथंकर भगवान महावीर' रचना सुन्दर है।" (पत्र ता० २ ।४९) श्री लाडूलाल जी जैन, सीनियर हिन्दी टीचर, गवर्नमेण्ट हायर सेकण्डरी स्कूल, हरसौली (अलवर) "माप द्वारा रचित 'तीर्थकर भगवान महावीर' काव्य के पठन का सौभाग्य प्राप्त हुना। प्रापने इस काव्य की रचना कर साहित्यक क्षेत्र में बीर के शासन की बड़ी सेवा की है। भापकी इस रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। वास्तव में जैन महापुरुषों की जीवन गाथा में अभी तक काव्य में राष्ट्र भाषा हिन्दो में लिखी जानी शेष है। माशा है माप अपनी प्रतिभा द्वारा और भागे भी कदम बढ़ायेंगे।" 'नव-मारत टाइम्स' (दैनिक) ता०७जून १६६५,दिल्ली "विद्वान लेखक ने 'तीर्थपुर भगवान महावीर' के प्रबतरण का विशद् रूप से वर्णन पद्यों में प्रस्तुत पुस्तक में किया है। साथ ही साथ भ• महावीरके वह चित्र भी चित्रित हैं जिन्हें देखकर मनुष्य मात्म-ज्ञान प्राप्त कर सकता है।"नेखक महो Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सन्देश और सम्मतियां दय ने पद्य रचना करने में अथक परिश्रम किया है। माशा है कि जन-साधारण भी इससे लाभान्वित होंगे।" साप्ताहिक 'ज्वाला' ७ मई १६५६, जयपुर ""इन पाठ सर्गों में (भ० महावीर के) प्रवतरणसे निर्वाण तक का समस्त वृत्त कवि ने शुद्ध हिन्दी में छन्दोबद्ध किया है। सिद्धपुरुष महावीर जैसे महान व्यक्ति को जीवन-कथा वर्णनाके कारण प्रस्तुत काव्य महाकाव्य है।" -श्री अंगरिस (विस्तृत समीक्षा का एक अंश) सप्ताहिक 'जैन मित्र' ता० ३०-४-५६, सूरत....... इस प्रकार के एक सुन्दर सचित्र काव्य में भ• महावीर का जीवन परिचय यह प्रथम ही प्रकट हुप्रा है । रचना सानी, सरल व भाव वाही व स्वाध्याय करने योग्य है।" -श्रो मूलचन्द किशनदास कापडिया ('प्राप्ति स्वीकार' स्तम्भ में प्रकाशित समालोचना का एक अंश) साप्ताहिक 'जन-सन्देश' (१८ जून १६५६) मथुरा___ "कवि ने श्वेताम्बर प्रागमों में वर्णित महावोर के जीवन की कतिपय घटनामों को भी जो विशेष रूप से उनके तपस्याकाल से सम्बद्ध हैं, अपनाया है । फलतः महावीर भ० की तपस्या का रोमाञ्चकारी वर्णन प्रभावक बन पड़ा है। कविता साधारणतया अच्छो है । रोचक है, पढ़ने से आनन्द प्राता है। प्रारम्भिक भाग तो बहुत सुन्दर है ‘मंगल प्रभात को मधुर मांगजिक बेला। पल्लवदल से सुरभित मलयानिल खेला ॥ छाई प्राची में अलसाई प्रणाई । हो गई निशा की अब तो पूर्ण विदाई ।' पुस्तक सचित्र है। प्रारम्भ में भगवान महावोर का रंगोन चित्र है। उसके पश्चात भी प्रकरणोपयोगी अनेक चित्र हैं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ तीर्थकर भगवान महावीर कागज और छपाई भी साधारणतया अच्छी है। पुस्तक को प्राकर्षक बनाने का पूरा प्रयत्न किया गया है । कवि का प्रयत्न सगहनोय है । आशा है कविता प्रेमी उसके इस प्रयत्न का समादर करेंगे।" -श्री कैलाशचंद्र, शास्त्री साप्ताहिक 'शारदा' (वर्ष ६, अङ्क ६ : १६ सितम्बर ५६ ई०) फर्रुखाबादतीर्थङ्कर भगवान महावीर _ "शास्त्रीय दृष्टिकोण से पुस्तक एक सफल महाकाव्य है। उसमें महाकाव्य के सभी गुण विद्यमान हैं । धार्मिक दृष्टिकोण से लेखक ने भगवान महावीर के गुणगान कर अपनी लेखनी को पवित्र किया है और जैन साहित्य के कोष की वृद्धि की है । जैन समाज में इस पुस्तक को वह स्थान प्राप्त हो सकता है जो हिन्दू समाज में गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरित मानस का है। छपाई सफाई सुन्दर एवं आकर्षक है । कई रंगीन चित्र भी हैं। अथक परिश्रम के लिये लेखक को बधाई।" -संपादक -श्री चंद्रप्रकाश अग्रवाल, एम० ए०, एल०एल० बो० 'जैन-दर्शन' (वर्ष ६, अङ्क २८ : ता. १-७-५९) शोलापूर"उदीयमान कवि भाई बोरेन्द्र प्रसाद जी ने भ० महावीर के जीवन परिचय को इस ग्रन्थ में कविताबद्ध किया है । "हृदय ग्राही है।" 'रसवंती' (वर्ष २; प्रङ्क १६ : जून १६५६) लखनऊ .......""काव्य के कुछ स्थल मार्मिक हैं और उनसे कवि के उज्ज्वल भविष्य को सूचना मिलती है । ......." [सम्पादक : डा. प्रेमनारायण टंडन] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Supportan GRAMMAR PRO TENAR 11th, . हे वर्द्धमान ! कवि को वागी के अलङ्कार, कवि के कवित्व के स्वप्न सूघर । कवि के गानों के चिर गान, फिर भी कवि-प्रज्ञा के बाहर ।। Page #32 --------------------------------------------------------------------------  Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ খুঁফুজ্জ স্ক पूर्वामास Page #34 --------------------------------------------------------------------------  Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल प्रभात की मधुर मांगलिक वेला। पल्लव-दल से सुरभित मलयानिल खेला। छाई प्राची में अलसाई प्रणाई। हो गई निशा की अब तो पूर्ण विदाई॥ हर दिशा हो रही अनुरजित इस क्षण में । है बिखर रहा अरुणिम प्रबीर अम्बर में । खिच रहे उषा की मृदुल तूलिका से प्रब। रमणीय दृश्य निर्भर, नगादि के नीरव ॥ बन गये गगन में इस विधि चित्र सलौने । हों मूर्तिमान ज्यों नव यौवन के सपने ॥ ये मन मोहन-से विविध रूप रंग लाते। क्रम-क्रम से स्वर्णिम हुये सभी हैं जाते। लो, नव प्राशा-सा सूर्य उदित हो पाया। उत्साह पुंज-सा किरण-निकर जो लाया । हो गया विश्व में स्वणिमांशु का प्रसरण । अणु-अणु ज्योतित-सा हुमा,प्रकृति-प्रमुदित-मन । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ तीर्थङ्कर भगवान महावीर पा स्वर्ण ज्योति, पल्लव हीरे-से लगते । पौधों पर सुन्दर सुमन, नगों-से जड़ते ॥ इस भाँति रंगीली, कुसुमावलि मुस्काई। मृदु कलिकाओं में प्राई नव तरुणाई॥ श्यामल भृङ्गों ने भी तो ली अंगड़ाई। पुष्पों के जग में मधुरिम तान सुनाई। हंसते इन्दीवर सर के उमिल जल में। करते गुञ्जन जिन पर मधुकर मस्ती में । उड़ता पराग सुरभित समीर है करता। जो स्वांस-स्वांस में नव-जीवन रस भरता॥ खग-वृन्द फुदकते और चहकते उड़ते। कुछ कहीं कतारों में जाते, रव करते ॥ है कुण्ड-ग्राम में छटा छबीली छाई। राजोद्यान में रूप-राशि मुस्काई॥ घूमने प्रा गई सम्राज्ञी उपवन में। कुछ सखियों को भी लाई हैं वे संग में। दूर्वा के कोमल-दल पर ये सुन्दरियाँ। चल रही चरण शत-दलधर ज्यों अप्सरियाँ ॥ इनके माने से छटा और छवि पाती। सुन्दरता भी ज्यों इनसे है शरमाती॥ करने उपवन ने निज प्रामा प्रो दुगुणित । क्या हिला पात-कर इनको किया निमंत्रित ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सर्गः पूर्वाभास इनके स्वागत में क्या खग भौंरे गाते ? क्या तुहिन-बिन्दु-कण इनको झलक रिझाते ? शीतल मलजय भी क्या इनका मन हरने ? चलता भावोंसा थिरक-थिरक सुख करने ॥ ये घूम रहीं सब ही हषित हो मन में। __कर रहीं हास परिहास मुदित जीवन में। मा गए इसी क्षण श्री सिद्धार्थ नृपति भी। हो गया मुदित-सा और मोद तत्क्षण ही। उन्नत ललाट नृप का प्रभाव प्रांखों में। भव्याकृति शोभित राजकीय वस्त्रों में ॥ सम्राट सम्मिलित हुये मनोरञ्जन में । सन गया हास-परिहास वचन-अमृत में॥ बोले नप, 'छाई आज अनोखी आमा । कोई विशेष क्या बात तमी अमिताभा ॥ जी चाह रहा मैं रहूं, निरखता यह छवि । दरबार-समय हो रहा और चढ़ता रवि ।। सम्राज्ञी ने भी कहा, 'प्रकृति मुखुरित-सी। मुकुलित सुन्दरता साथ लिए प्राई-सी ।। है समा रहा अति हर्ष हमारे मन में। लगता शुभकर कुछ बात हुई संसृति में। कुछ बातों को है मुझे प्रापसे कहना। दरबार समय हो गया, पापको जाना ।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर मैं प्रतः बताऊंगी दरवार-भवन में। कुछ सपने जो देखे मैंने रजनी में ॥ क्या प्राप जिनालय से पाए हैं होकर।' 'हाँ' मैं पाया जिनमन्दिर से दर्शन कर ॥ हैं सपने देखे तुमने कौन कौन से ? होती अभिलाषा जानं मैं जल्दी से ॥' 'मुझको बतलाने की उत्कण्ठा भी है। पर नियत समय दरबार पहुचना भी है। श्रीमान् चलें दरबार पोर अब सत्वर । मैं भी प्राती सखियों संग जिन दर्शन कर ॥ ___'पर'कहने को कुछ, रहे मौन नृप मन में। चल दिए स्वयम् दरबार दिशा के मग में। उत्कण्ठा-सी छाई सम्राट वदन पर । था रखा नियन्त्रण ने जिसको बन्दी कर ॥' सम्राट गमन के बाद स्वयम् राज्ञी भी। चल दी जिन मन्दिर साथ लिए सखियां भी ॥ है प्रकृति किन्तु अब भी हंसती सी अविरत । चढ़ पाया दिनकर चटख धूप है प्रसरित ॥ झिलमिल झिलमिल प्रब तरु-परछाई होती। वह मस्त झकोरे पाकर हिलती-दुलती । है किन्तु और छबि छाई राज-भवन में। नर-कृत सुन्दरता मूर्त हुई है जिसमें। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ प्रथम सर्गः पूर्वाभास बन्दन-बारों चित्रों से हुमा प्रलंकृत । ताजी सुरभित पुष्पों से भी यह सज्जित ॥ स्वच्छता स्वयम् ज्यों वास यहाँ है करती। प्रति वस्तु नियत उपयुक्त स्थान पर रहती ॥ इस राज-भवन के बहिद्वार पर प्रहरी। हैं खड़े कि जिन पर छाई निष्ठा गहरी।। हैं सावधान कर्तव्य कार्य में ये रत । क्या कर सकता कोईभी इनको बिचलित ॥ लो, लगा अभी दरबार पा गए कुछ जन । सुप्रतिष्ठित नागर जो सचमुच ही सज्जन ॥ मन्त्री, सेनापति अन्य कर्मचारी गण । मा गए सभी सम्राट सहित धीरज मन || जा पहुंचे जब अपने-अपने प्रासन पर । निज रत्न-जटित सिंहासन परभी नृपवर ।। वन्दीजन गाने लगे सुभग विरुदावलि । प्यों गुनन गुनन गुन गाती हो भ्रमरावलि ॥ इनके गाने के बीच वाद्य भी बजते । वादित्रों के स्वर रम्य रसीले लगते ॥ इनकी सरगम है परम मनोरम अनुपम । सङ्गीत स्वयम् साकार थिरकता क्रम-क्रम ॥ इस-गुण-गरिमा गायन के मधुरस क्रम में। आ गई स्वयम् साम्राज्ञी राज-भवन में ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर सखियां भी अपने साथ साथ वे लाई। मानों अप्सरियां स्वयम शची संग आई। वे आई या आए लक्षण सब श्री के। सब खड़े हो गए मान हेतु रानी के ॥ राजा ने भी कर दिया रिक्त अर्धासन । सब बैठे अब हो रही समा अति शोभन ॥ सिंहासन पर राजा-रानी यों लगते । साकार न्याय-सुषमा हो कर ज्यों सजते ॥ चल रहा किंतु विरुदावलि का अविरल क्रम । सुन रहे सभी हो मन्त्र मुग्ध जिसमें रम । पर शांति हुई जब हुआ अन्त गायन का। चल दिया कार्यक्रम जो निश्चित प्रतिदिन । नव नियत कार्यक्रम अन्त हुआ नप बोले। सम्राज्ञी से उत्सुक अमृत रस घोले ॥ 'हे शुभे ! स्वप्न देखे क्या क्या हैं तुमने । वतलाओ जो हैं सुने नहीं हम सबने । सम्रागी बोली “पिछले प्रहर रात्रि में।' देखे मैंने सपने कुछ सुख निद्रा में ॥ इनके आशय के ज्ञान हेतु उत्सुक मैं ।' जागी उत्कण्ठा स्वप्न-ज्ञान की सब में॥ मन्त्री बोले श्रीमान् हमारे नपवर । बतलाएंगे स्वप्नार्थ कहें राज्ञीवर ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Comments ..... ......... . ......... ..... . mination een w Palimoviemamalentinet RA SHER :.-34rite -...- Gadar m ire MITA m .:-AL SAMPA तीर्थकर माँ त्रिशला देवी के सोलह स्वप्न "दख मैन कुछ गपने मुग्व-निया में !" - মিয়লা Page #42 --------------------------------------------------------------------------  Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सर्ग पूर्वाभास कारण सुभाग्य से नृप निमित्त ज्ञानी हैं। है तीव्र बुद्धि उनको वे विज्ञानी हैं। सम्राट और सम्राज्ञी कुछ मुस्काए । फिर सम्राज्ञी ने अपने स्वप्न सुनाए । वे बोलीं 'देखा सर्व प्रथम गज मैने ।' नृप लगे सोच कर उत्तर को यों कहने ।। 'इसका आशय तुम भाग्यवान सुत की मां। होओगी जग में फैलेगी तब गरिमा ॥' सम्राज्ञी त्रिशला ने आगे बतलाया । 'देखा वृष जिसको हृष्ट-पुष्ट सित काया ।' 'होगा तव सुत वह धर्मसुरथ का चालक।' यों सोच समझ बोले वे जनता-पालक । रानी बोली, "फिर आया स्वप्न सिंह का।' होगा अनन्त बल पौरुष तव उस सुत का ॥ 'इससे अगला है स्वप्न सुभग लक्ष्मी का।' 'स्वामी होगा वह सुथिर मोक्ष लक्ष्मी का॥' यों बतलाया नप ने रानी स्वप्नोत्तर । सब दिखते थे मन मुदित हुए तदनन्तर ।। 'मैने देखी सुरभित फूलों की माला ।' इस भांति कहा रानी ने स्वप्न निराला॥ नप उत्तर में बोले 'उस सुभग पुत्र का। जग में फेलेगा अविरल सौरभ यश का॥' Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ तीर्थकर भगवान महावीर 'देखा है मैंने पूर्ण चन्द्र राका में ।' 'वह नष्ट करेगा मोह तिमिर जीवन में॥' ___फिर इसके बाद सुहाया सपना रवि का।' 'वह ज्ञानालोक करेगा आशय जिसका ॥' 'तदनन्तर आया युगल मीन का सपना ।' 'लाएगा सुन्दर सौम्य भाग्य वह अपना ।' ___'फिर देखी जोड़ी भरे हुए कलशों की।' वह प्यास बुझाएगा अशान्त तृषितों को ॥' 'पश्चात स्वप्न में आया स्वच्छ सरोवर।' 'पाएगा सर से सहस्राष्ट लक्षण वर ॥' सब उत्कण्ठित से स्वप्न अर्थ यों सुनते। सम्राट स्वयम् मन अमित मोद से भरते ॥ फिर स्वप्न कथन में हुई अग्रसर रानी। 'देखा लहराता निर्मल सागर पानी ॥' उत्तर में बोले नप सुज्ञान के धारक । 'तव सुत पयोध-सा होगा शान्त विचारक ।। "फिर स्वप्न-पटल पर दिखा सुभग सिंहासन ।' 'वह तीन लोक का पाएगा राज्यासन ।' "फिर देव यान स्वप्नों में मुझे दिखाया।' 'चय स्वर्ग लोकसे तव सु-गर्म में आया।' 'तब दिखा नाग प्रासाद स्वप्न में क्रम से।' 'वह पूर्ण विज्ञानी होगा जन्म समय से ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सर्ग पूर्वाभाष 'इस स्वप्न शृङ्खला में सुरत्न अवलोके । 'इनका आशय शुभ गुण होंगे उस सुत के॥' 'स्वप्नों की चित्रपटी पर अन्तिम सपना।' 'मैंने देखा था प्रचण्डाग्नि का जलना ॥' इसका मतलब नप ने आखिर बतलाया। वह पुत्र करेगा अपनी प्रबल तपस्या ॥ कर देगा जिससे भस्म कर्म का ईधन । यों प्राप्त करेगा केवल पद अक्षय धन ॥' सब के श्रीमुख से धन्य-धन्य ही निकला। यह धन्य बात है होगा पुत्र निराला ॥ यों क्रम-क्रम स्वप्नों का आशय सुन मानो। साकार हर्ष नाचने लगा है जानो ॥ कुछ सोच नपति ने कहा 'प्रकृति उपवन में। थी अमित मुदित क्या इस शुभ वृत्त कथन में ॥' साम्राज्ञी त्रिशला ने भी कुछ मुस्का कर । 'हाँ' हो जैसे कह दिया मौन भी रह कर ॥ तदनन्तर कोई दरबारी थिरता से । बोला 'उत्पीडित आज धरा हिंसा से ॥ श्रीमन स्वराज्य की सीमा में तो किंचित । कुछ शांति धर्म सा दिख पड़ता है निश्चित ॥ परलोक हो रहा है हिंसा में आगे। भौतिकता दिशि में लोग जा रहे भागे ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर पद-दलित शांति सुख के प्यासे दिखते हैं । पर कौन बुझाये प्यास दोन मरते हैं। यह धन्य भाग्य जो धरती पर आयेगे। भावी कुमार निज जो दुख दूर करेंगे। ऐसा ही तो स्वप्नाथों से भासा है । यह हो तो अपनी चिर-सञ्चित आशा है।' दरबार विसर्जित हुआ किंतु, आरम्भ हुई नव अभिलाषा। नूतन कुमार मुख-दर्शन को, जागी सब ही में जिज्ञासा ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ চ্ছি সুগ जन्म महोत्सव Page #48 --------------------------------------------------------------------------  Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुण्ड ग्राम का नगर सौम्य-सा, चहल-पहल से भरा हुआ। दूर छुद्र झगड़ों से है यह, सुभग शान्ति में सना हुआ ॥ न्याया-मर्ग में निरत नपति भी, कियत अनीति न करते हैं । समता के सुन्दर प्राङ्गण में, सब स्वच्छन्द विरचते हैं ॥ नागर बृन्द, प्राय सज्जन सब, जीवन सरल बिताते हैं । चोर, दस्यु, गुण्डे, दुर्व्यसनी, सुनने में कम आते हैं ॥ और उधर भो राज-भवन में, सुन्दर जीवन की लय है। सुलभ सभी सामग्री जिसमें, स्वयम् मोद का आलय है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर अन्तःपुर में त्रिशला देवी, सुख-जीवन यापन करतीं । उनको परिचर्या में तत्पर, दासी हैं अनेक रहतीं ॥ धीरे-धीरे बम-क्रम करके, समय सरकता जाता है । जो भी क्षण जाता है लेकिन, सौख्य-सृष्टि कर जाता है। यों सम्राज्ञी त्रिशला माता, के दिन सुख से बीत रहे। प्रसव काल प्राता जाता है, किन्तु न कोई कष्ट सहे ॥ ये लक्षण तो बतलाते हैं, __वत्स असाधारण कोई । मां त्रिशला के होने बाला, क्या इसमें शङ्का कोई ॥ त्रिशला मां की टहल बजाती, हैं छप्पन कुमारियां सब । भांति-भांति की चर्चा करके, वे प्रसन्न करती हैं सब ॥ इस चर्चा के सुन्दर क्रम में, प्रखर बुद्धि सम्राज्ञी की। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय सर्ग जन्म महोत्सव दिव्य झलकती ही रहती है, यह विशेषता है उनको ॥ इन चर्चा वार्तामों में भी, गहित बात न है होती । ज्ञान धर्म के विषयों पर ही, __चर्चा परम सरल होतो ॥ इन वार्ताओं में कुमारियाँ, पहले जिज्ञासा करती। रानी वित्युत्पन्न बुद्धि से, उनका समाधान करती ॥ कोई पूछा करती-'बोलो, प्राणी क्यों नीचा होता ?' झट से रानी कह देती हैं, 'भङ्ग प्रतिज्ञा जो करता' ॥ कोई जटिल प्रश्न करती हैं, है जग में ऐसा दिखताकोई जन तो मुंह रख कर भी, वोल नहीं किञ्चित सकता' । इसका कारण रानी कहती, पूर्व जन्म में जो करतेपर-निन्दा अपनी सु-प्रसंसा, वे प्राणी गूगे होते ॥' Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर एक प्रश्न के बाद शीघ्र ही, प्रश्न दूसरा है होता । 'बोलो जी किस पाप कर्म से, प्राणी है बहरा होता ॥' रानी त्वरितोत्तर देती हैं, 'प्राणी वे बहरे होते । जिनको आवश्यकता होती, उनकी बात न जो सुनते ॥' प्रश्न इसीविधि होते रहते, जैसे क्यों डूड़े होते ?' रानी कहती - 'पूर्व-जन्म में, दान न जो किश्चित देते॥' इसी भांति ही अन्य कुमारी, पूछ बैठतीं हैं ऐसे । 'बोलो मां श्री कौन पाप से, होते कुछ जन लँगड़े-से ?' सम्राज्ञी कहती मृदुता से, 'सुनों सहेली मम सुन्दर । यह तो बात तनिक-सी ही है, भाव नहीं कोई दुस्तर ॥ जो पशुओं को अधिक लादते, और कष्ट उनको देते । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय सर्गः जन्म-महोत्सव वे दुर्जीव समय पाकर ही, हैं लूले लँगड़े होते ॥ उत्तर सुन-सुन सब कुमारियाँ, हैं आश्चर्य-चकित होती। लेकिन मन की जिज्ञासा कों, पूर्ण शान्त वे हैं करतीं। रानी उत्तर देती या ज्यों, स्वयम् बुद्धि साकार हुई। उत्तर दे जाती चुपके से, क्या विचित्र यह बात हुई ! या मेधावी वत्स गर्भ में, अतः बुद्धि अति प्रखर हुई । चाहे कुछ भी हो कारण, पर माँ श्री की मति दिव्य हुई। ऐसे ज्यों-ज्यों दिवस बीतते, सुख-आह्लाद - बृद्धि होती । जीवन की इस सुन्दर गति में, अति प्रसन्नता है होती॥ वत्स-जन्म का समय आ गया, पर कष्टों का नाम न है। सब में हर्ष समाया जाता, दुख - विषाद का काम न है ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोर्थङ्कर भगवान महावीर केवल अति सुख राज-भवन में, हो,-ऐसी ही बात नहीं। निखिल नगर सम्पन्न हो रहा, दिखता है यह सभी कहीं ॥ शुभ प्रभात मध्याह्न समय में, __ ऐसा लगता है जानो । रत्न-राशि बरसाया करता, __ है कुबेर ही सच मानो ॥ अब पुर में समृद्धि थिरकती, कोई दीन न दिखता है । सब ही हैं सम्पन्न हुए ज्यों, कोई क्ष धित न मरता है। यों समृद्धि-प्रसार सहित ही, समय मन्द - सा थिरक रहा। 'चैत्र शुक्ल तेरस' के दिन का, शुभकर हो आगमन रहा ॥ विमल रुपहली चन्द्रकला भी, क्या हँस कर 'शशि' से कहती। 'प्रियतम ! तुमसे सुभग चन्द्र यह, पाने वाली है धरती ॥ 'हाँ प्रिय ! ठीक-ठीक कहती तुम, यह अपना सुभाग्य होगा।' Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ द्वितीय सर्गः जन्म-महोत्सव बोला वह, 'भू-शशि दर्शन का, शुभ सुयोग अपना होगा।' उधर नगर की निकटवर्तिनी, प्रकृति सलौनी है हंसती । लगता कोई बात निराली, __ होने को क्या यह कहती ! धीरे-धीरे - प्राची-तट पर, अरुणिम ऊषा मुस्काई। अनुपम अरुणोदय हो निकला, तरुण दिव्य प्राभा आई ॥ चिर प्राह्लाद आज ऊषा में, __चरम-बिन्दु सुन्दरता का। लो, क्या हो निकला मृदु कम्पन, उसके लाल कपोलों का ॥ उसके अरुण अधर हिल निकले, बोल उठी वह क्या मानों। 'मेरे दिनकर ! अाज तुम्हारे, साथ उदय होगा जानों। पृथ्वी पर 'जाज्वल्यमान रवि', ज्ञानालोक दिव्य जिसका। ध्वस्त करेगा निखिल विश्व में, घन प्रसार मिथ्या-तम का ॥' Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ तीर्थङ्कर भगवान महावीर लो, इस शुभ दिन, शुभ वेला में, त्रिशला-सुत' का जन्म हुआ। तीन लोक में मङ्गल छाया, पुण्य-पुञ्ज अवतरित हुप्रा ॥ कहते नर्क-लोक में भी तो, प्रगट हुई क्षण-भर साता। भूतल की क्या, देवलोक में, जन्म महोत्सव था होता ॥ उधर बज उठी भुवन-वासियों, देवों की सुन्दर भेरी । व्यन्तर देव - मृदङ्गों को भी, हई न बजने में देरी ॥ घनन घनन घन, घनन घनन घन, टनन टनन टन, टन टन टन । कल्पवासियों के घण्टे भी, बाज उठे थे यों क्षण क्षण ॥ छन छन छन छन, छनन छनन छन, नाच उठीं कुछ अप्सरियाँ । उनकी रुन-झुन नूपुर ध्वनि सुन, गान गा उठी किन्नरियां ॥ सारा नभ प्रतिध्वनित हो उठा, जय - जय मङ्गल नादों से । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय सर्गः जन्म-महोत्सव ३६ मृदु सङ्गोत सुरीले स्वर भी, निकल रहे सुर वाद्यों से॥ और उधर सौधर्म इन्द्र का, हुआ प्रकम्पित सिंहासन । लगा सोचने अवधिज्ञान से, कम्पित होने का कारण ॥ भासा सहसा ऐसा उसको, वसुधा के शुभ वक्षस पर । अपने पुण्यों को सञ्चित कर, हुए अवतरित तीर्थङ्कर ॥ सीमा लांघा अमित मोद भी, हर्षातिरेक-सा उसे हुआ । क्षणभर की भी देर न करके, चलने को तैयार हुआ ॥ प्रा पहुंचा वह कुण्डग्राम को, __ सीमा में ले निज परिकर । त्रिसला-सुत के जन्म-स्थान पर, शची साथ पहुंचा सत्वर । देखा जब नवजात पुत्र तो, तृप्त न इन्द्र हुआ स्वर्गिम। शिशु कमनीय रूप लखने को, किए सहन नेत्र कृत्रिम ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर तृप्त न फिर भी निनिमेष वह, रहा निरखता छवि अनुपम । शेष रही फिर भी नेत्रेक्षा, शिशु सजीवता यह अनुपम ॥ किन्तु अन्त में मायामय-सी, निद्रा में कर त्रिशला को । की नियुक्त कुछ सुर-बालाएं, माँ श्री की परिचर्या को ॥ फिर निर्मित कर शिशुस्वरूप-सा एक वत्स मायावी जो । उठा लिया नव वत्स शची ने, लिटा दिया शिशु कृत्रिम को । क्योंकि इन्द्र को न्हवन हेतु था, _ 'शिशु' सुमेरु तक ले जाना। इस अन्तर में अतः किसोको, पड़े न सुत वियोग सहना ॥ ऐरावत गज पर शिशु संग ले, सुभग इन्द्र ने गमन किया। अगणित देवों ने भी उसका, मोद सहित अनुसरण किया ॥ गाजे बाजे साथ साथ ही, नृत्य-गान होते जाते। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय सर्गः जन्म महोत्सव ४१ पुष्प-बृष्टि अम्बर-पथ में भी, __ 'जय-जय' स्वर करते जाते ॥ जब पहुंचे सुमेरु पर, सुत को, स्फटिक शिला पर बिठलाया। क्षीरोदधि से कञ्चन-कलशों में सुनोर फिर मंगवाया ॥ हाथों हो हाथों देवों ने, जल लाकर अभिषेक किया। शिशु के सस्मित मुख-मण्डल पर, दिव्य कान्ति ने जन्म लिया ॥ धन्य भाग्य जो तीर्थङ्कर सुत, के दर्शन का योग मिला । संस्तुति-गान-स्नान करने का, देवों को शुभ समय मिला ॥ और धन्य ये त्रिशला-सुत जो, इनको सेवा सुर करते । पूर्व उपाजित सत्कृत्यों के, फल ऐसे हो हैं मिलते । यों अभिषेक आदि करके सुर, कुण्डग्राम की ओर चले । तीर्थङ्कर शिशु साथ लिए वे, मोद मनाते हुए चले ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर नृत्य गान वादित्रों की लय, लहर रही जल लहरों-सी। उत्सव का प्राह्लाद समाया, देवों की सुस्थिति ऐसी ॥ ले आया सौधर्म इन्द्र फिर, वत्स निकट मां त्रिशला के । पूर्ण देव-कृत, जान न पाए, माता-पिता कुछ जन घर के ॥ मायावी पुतले को तब फिर, इन्द्र-शची ने नष्ट किया । उसकी जगह शीघ्र त्रिशला-सुत, को स्वाभाविक लिटा दिया। सम्राज्ञी मां त्रिशला की अब, निद्रा का भी अन्त हुप्रा । और तभी ही कुछ सुयोग से, नृपवर का आगमन हुआ ॥ देवों ने तब मात पिता का, मङ्गलमय यश गान किया ॥ तीर्थकर सुत के होने का, यों शुभकर सन्देश दिया। दे कर के फिर हर्ष बधाई, कर के शत वन्दन शिशु के । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय सर्गः जन्म-महोत्सव गए स्वर्ग को देव सभी फिर, ___ मोद भरा मन में उनके ॥ और इधर भी निखिल नगर में, जन्मोत्सव की धूम हुई। केवल राज-भवन में ही क्या, घर घर में सुख-सृष्टि हुई ॥ जन्म बधाई गीत गा रहीं, ___घर-घर महिलाएं मिलकर । ढोलक बजती जाती होते, साथ मजीरों के मृदु स्वर ॥ राज-भवन में आज हर्ष का, छोर नहीं है कुछ दिखता । राजकीय बाजे बजते हैं. मधुरिम नृत्य गान होता ।। केशरिया ध्वज फहर-फहर कर, लहर रहे छत के ऊपर । तोरण बंदनवार बॅध रहे, राज-महल के द्वारों पर ।। उधर नाटय शालाओं में भी, नाटक हैं खेले जाते। चार चांद उत्सव शोभा में, सुभग लगाये हैं माते । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर जन्मोत्सव • समयोपलक्ष में, खुली दान की शालाए । निशि-दिन दान जहाँ बटता है, रिक्त न लौट व्यक्ति जाएं। दश दिन तक यों हुआ महोत्सव, हर्ष-ज्योति अविरल जागी । गया निराशा अन्धकार भी, निविड क्लेश-रजनी भागी ॥ राज-ज्योतिषो ने ज्योतिष से, योग लगा कर बतलाया । उत्तर फाल्गुणी नक्षत्र में, जन्म पुत्र ने है पाया ॥ इसके जन्म समय से ही है, सब चीजों की वृद्धि हुई । प्रतः राज-सुत 'वर्द्धमान' ही होगा इसका नाम सही ॥ पुर का चर्चा-विषय बन रहा, जन्म-वृत्त त्रिशला-सुत का। कोई कहता 'देवों ने भी, शुभाभिषेक किया इनका ॥' कोई कहता, 'जा भा हा, पर शुभ लक्षण हैं बालक के । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय सर्गः जन्म-महोत्सव जब से जन्म हुमा तब से ही, बढ़ती है होती सबके ॥ काश ! इसी से 'वर्द्धमान' है, नाम रखा इनका सुन्दर । यथा नाम चरितार्थ हो गया, यह शिशु को महिमा गुरुतर ॥ जबसे जन्मा शिशु तबसे ही, कोई दुखद न बात हुई। शुमकर शकुन दिखाई पड़ते, होती बातें नई नई ॥ उधर बनों में प्रकृति सजीली, देखो तो हंसती-सी है । क्था शिशु जन्म-प्रभाव-प्रबल से, उसकी छवि बासन्ती हैं । पोत-हरित कुछ विविध रङ्ग के, हैं दुकल उसने धारे । पुष्षों के मुख से मुस्काती, हर्ष-प्रदर्शन ढंग न्यारे ॥ कुजों के अवगुण्ठन से क्या, इठलाती-सी पेख रहो । जन्मोत्सव की शोभा को, स्पृहा-भाव से देख रहो ? Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर वह भी तो मधुकर-गुञ्जन मिस जन्म बधाए गाती है। ढोलित पात सरर-सर निर्भर, नद-स्वर तान सुनाती है । और उधर अब राज-भवन में, जहाँ कि माँ त्रिशला रहती । अगणित सखियाँ परिचर्या में, उनकी सदा लगी रहती ॥ मन-हर सुत को मैं ले पाऊ', तनिक खिला पाऊँ उसको। सब प्रयत्न ऐसा करती हैं, हर्षित करती मां श्री को ॥ मां त्रिशला भी गोद लिए शिशु, अमित मोद मन में भरतों। तन-मन भोले सस्मित शिश पर, निशिदिन न्योछावर करती। वत्स की मां ले रही हैं। मृदु बलयां बार-बार। पन्य उनका मातृ-पद है। सौम्य-सा शिशु होनहार ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ফুলাচ্ছি ' ঠিয়ু নয় Page #66 --------------------------------------------------------------------------  Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितिया राका-पति से अब, शिशु 'वर्द्धमान' बढ़ते हैं । छवि किन्तु कलाधर से भी, अपनो अनन्त रखते हैं। वे अभी किन्तु नन्हें-से, मुन्ना भोले से लगते। हैं बोल नहीं पाते पर, 'आ-पा, आ-आ' स्वर करते ॥ उनके 'आ-आ' स्वर में भी मधुरिम सङ्गीत निखरता । सुनने के लिये सभी का, क्षण में जमघट-सा लगता ॥ वे बीच-बीच मुस्काते, जैसे कि फूल झड़ पड़ते । रद-रहित वदन पर उनके, स्मित लख सब जन हंसते ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर झालर-मय मणियों वाले, लेटते पालने में थे। घोरे-धीरे से झके, पा कर झट सो जाते वे ॥ जब सोते हैं तब उनकी, मुख-मुद्रा को सब लखते । उनके प्रजों की उपमा, ललितोपमान से करते। कोई कहता. 'देखो तो, अब रूप शयन करता है।' उसके ऊपर भी तो अब, मृदु हास हास हंसता है । मुख-मण्डल तो बिल्कुल ही, शशि की समता है रखता। भी पलक श्याम दर्शाती, मुख-चन्द्र बीच श्यामलता। 'पर अरुण अधर से मुख तो' झट बोली एक सहेली। 'लगता है बाल भानु-सा, दू समझ न इसे पहेली। हैं जिसकी धवल ज्योति से, तम केश भामते पीछे । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्ग : शिशु वय फिर भला नहीं रवि तो क्या, कोई हमसे तो पूछ ।' जी नहीं, एक उपमा तो, मन उमड़ रही मेरे है। मुन्ना शरीर- सरवर में, मृदु-मुख अरबिन्द खिला है ।। यह प्रफुलित पूर्ण कमल-सा, जो अरुण सुरभि मय जैसे। युग श्रवण पात-से लगते, तम केश भङ्ग-माला - से। इस पर कोई सखि इठला, इठलाकर कुछ यों बोली । "है नवल कमल से कोमल, तो इनके कर-पम-तल हो। मुख तो अरुणोदय लगता, कुछ छटा अरुण सी रखता। जिसको लख अपने उर का, मोलित-इन्दीवर खिलतर । इतने में बोली मो श्री, कुछ मन ही मन मुस्कातीं। 'जब है उपमेय हृदयहर, उपमाएँ अपणित माती । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर मैं तो इतना कह सकतीं, नन्हा-सा मुन्ना अपना । उसके मिस ज्यों हम सबको, साकार हुआ सुख-सपना ॥ ऐसे सुख-चर्चा-क्रम में, सम्राट स्वयं आ जाते । वे भी शामिल हो प्रमुदित, हैं स्वाद अनोखा पाते ॥ सोते ही वर्द्धमान शिश, हैं तनिक मुस्करा देते । तो व्यंग्य-सहित रानी से, कुछ कहते नृप मुस्काते॥ 'है सहज विमाता देखो, यह खिला रही तब सुत अब । तुम खिला नहीं पाते हो, क्या पुत्र नहीं है यह तव ? अथवा रूठा है तुमसे, वह मुदित खेलता उससे । क्या बात हुई है ऐसी, जो नहीं खेलता तुमसे ॥' 'जैसे कि आप पाए हैं, वैसे ये लक्षण होते। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतोय सर्गः शिशु वय मैं क्या जानं कि कौन-सा, जादू श्रीमन् हैं करते ? क्या आप मातृपद मेरा, हैं सहज चाहते लेना ? पर व्यर्थ आपका यह सब, मेरा मुन्ना है अपना ॥ वह जब कि जागता है तब, खेला करता है मुझसे । तब स्वयम् आप आ जाते, 'पा-आ' सुनने को जैसे ॥ सन्निकट प्रापके रहता, व्यंग्यों का भरा पिटारा। पर मुझे न झेपा सकता, वह स्वयम् निपट वेचारा ॥' रानी उत्तर सुन नृप का, फिर भला प्रश्न यह होता। 'तब कौन व्यक्ति सोते में, मुन्ने को कहो हंसाता ?' 'क्यों प्राप बन रहे मोले, ज्ञानी हो कर भी कहते। सोते में कौन खिलाता, मुन्ने को हंसते-हंसते ? Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महाबोर प्रतिफलित हो रहा शिशु के, सश्चित कमों का लेखा । जो हमने सौम्य वदन पर, देखी सु-हास को रेखा ॥' सम्राट स्वयम् मुस्काए, उत्तर सुन सम्राज्ञो का । स्वीकार कर लिया जैसे, यह कथन नृपति ने उसका ।। इतने में मुन्ने ने झट, सोते में करवट बदली। माँ बोली-'जाग रहा शिशु, सुन कर के अपनी बोली। उसकी निद्रा में बाधा, पड़ रही अतः मत करिए। कोई भी वार्ताएं अब, कुछ शान्त हुए-से रहिए ॥' सब हुए मौन ही सहसा, रुक गया बात का कहना। पर खला सभी को उस क्षण, मुन्ना-समीप चुप रहना ॥ क्षग एक न लेकिन बीता, मुन्ना ने खोली प्रखें । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्ग : शिशु वय लग रही मनोहर कैसी, उनकी कुछ श्यामल प्रखें। रत्नारे नयनों से छवि, झीनी जीवन्त झलकती । जिसको लखने को निशदिन, ये अांखें सदा तरसती ॥ हैं धन्य भाग्य रानी नप, सखियों मृत्यों पुरजन के। हाँ, किए. जिन्हों ने होंगे, दर्शन त्रिशला-नन्दन के ॥ जगने पर सुत के सब जन, बातें हैं उनसे करते । बे बोल न कुछ भी पाते, पर बीच-बीच मुस्काते ॥ उनके मुस्काने पर हो, सब उन पर बलि-बलि जाते। करते प्रसन्न सबको यों, शिशु बर्द्धमान हैं बढ़ते ॥ जब रात पड़े पर भी है, शिशु को न नोंद कुछ पाती। सो जा मुन्ना तू सो जा, मां लोरी ललित सुनाती ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर लोरी को सुनते-सुनते, वे सो जाया हैं करते । तो मात-पिता कुछ चर्चा, उन पर ही करते सोते ॥ रजनी में सोते-सोते जब वे हैं जाग बैठते । तो घण्टों जगमग-जगमग, हैं दीप जोहते रहते ॥ शुभ जगर-मगर दीपक संग, उनकी यह क्रीड़ा मनहर । देखा करते हैं नप भी, अपनी निद्रा को खोकर ॥ उनका प्रसन्न चित रहता. रोते न कभी हैं दिखते । क्या इसी लिए उन पर हैं, निशिदिन दुलार सब करते ॥ शुभ प्रातकाल नर-नारी उनका मुख लखने आते । कहते वे इससे उनके, सब कार्य सिद्ध हो जाते॥ मङ्गलमय मङ्गलकारक, शिशु का मञ्जुल मधुरानन । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्ग : शिशु वय यह स्वयम् शकुन ही जैसे, सर्जक संसृति-सुख-कानन ॥ धीरे-धीरे वे बढ़ते, मानों कुछ ऐसा लगता । जैसे विहान-वेला में, क्रम-क्रम प्रकाश हो बढ़ता ।। दो-तीन मास ही बीते, लेकिन वे घुटनों के भर । चलने की कोशिश करते, शिशुवय में अमित शक्तिवर ।। वे अब कलबल कलवल कर, बातें भी करने लगते । अपने नन्हें हाथों से, कुछ संकेतों को करते ।। जब सुभग महल आँगन में, वे कुछ कुछ सरका करते । तब मात-पिता कुछ गृह-जन, टुक टुक उनका श्रम लखते ॥ . उनके सस्मित मुख-विधु के, भामण्डल पर छवि बसती। निर्द्वन्द-भाव में कैसी, सुन्दर निरोहता हंसती ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ तीर्थङ्कर भगवान महावीर सब उनको गोदी लेते, पर वे तो भूमि प्रोर ही। जाने की कोशिश करते, दिसती उनकी यह रुचि ही ॥ पृथ्वी पर लोट-लोट कर, घुटनों वे चलने लगते । मंजुल प्रसन्न आनन से, दो दाँत हृदय-हर दिखते॥ मानों कि अधर अम्बुधि से, युग रद के रत्न निकलते। लख जिन्हें मात-पितु गृह-जन, हैं फूले नहीं समाते ॥ बढ़ते शिशु बर्द्धमान कुछ, अब स्वयम् बैठ जाते हैं। घुटनों के बल तो वे अब, अति छिप्र चाल चलते हैं। मां त्रिशला उनकी गति को, लख कर प्रसन्न होने को। कुछ दूर-दूर जा करके, वे प्रायः बुलाती उनको ॥ 'आ-पा, मां-माँ' कुछ करते, मां निकट शीघ्र वे जाते । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० तृतीय सर्ग : शिशु वय इतने में हट जाती, ज्यों ही मां निकट पहुंचते ॥ वे शीघ्र वहां से मुड़ कर, मां मोर दौड़ हैं भरते । घण्टों ही यों वे माँ-संग, हैं खेल खेलते रहते ॥ जब बहुत देर हो जाती, वे तनिक खीझने लगते । लेकिन न नेक भी रुकते, मां को वे छूते फिरते ॥ मां त्रिशला थका जान कर, हैं उन्हें गोद में लेती। वे प्रति दुलार से उनको, पुचकार सहज ही लेती ॥ सारा वैभव हो उनका, इस पर न्योछावर होता। क्या तीन लोक का कोई, सुख इससे समता रखता ॥ शिशु वर्तमान छोटे हो, घुटनों ही अभी सरकते। पर अपनी सीमा में ही, बे समी यत्न हैं करते। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ तीर्थङ्कर भगवान महावीर उनके मग में जब भी हैं, ऊँची दहरी पा जाती। तब उसे पार करने की, उनकी कोशिश है होती ॥ माँ त्रिशला नपति अन्य जन, आकर सुत चेष्टा लखते । देखते-देखते शिशु को, दूसरी ओर हैं पाते ॥ शिशु वर्द्धमान जब इसविधि, निज कार्य सिद्ध कर लेते । ताली निज लघु हाथों से, तब बजा-बजा कर हंसते। इस पर सहसा ही कुछ जन, लोकोक्ति सुभग दुहराते । होने वाले 'विरवा' के, 'चीकने पात' हैं होते ॥ नप-सम्राज्ञी के मुख पर, कुछ स्वाभिमान की रेखा । ऐसे समयों पर ही तो, सब जन करते हैं देखा ॥ त्रिशला-सुत कभी शून्य में, देखा करते इकटक हो । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N तृतोय सर्ग : शिशु वय जैसे गम्भीर भाव से, करते कोई चिन्तन हों। शिशु वय में महा दार्शनिक, जैसे योगी ही लगते । उन्नत ललाट पर उनके, कुछ रेखा-चिह्न झलकते ॥ इस दिव्य भाल पर उनके है लगा दिया चुपके से। मां श्री ने काजल तिरछा, लग जाए 'नजर' न जिससे ॥ यह कज्जल-बिन्दु सोहता, उनके मुख पर है ऐसे । शुभ उमिल जल में हंसता, मृदु नील कमल हैं जैसे ॥ वे धीरे-धीरे बढ़ कर, अब उठने स्वयम् लगे हैं । पर डगमग-डगमग हिलते, वे स्वयम् खड़े होते हैं। उठ कर नन्हें हाथों से, वे ताली खूब बजाते । खिलखिला हास वे करके, सबको निहाल कर देते ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० तीर्थङ्कर भगवान महावीर मां या नृप-हाथ पकड़ वे, हर्षित स्व अजिर में चलते । या कभी स्वतः भी चलने, का साहस करने लगते ॥ दो पग ज्यों ही वे चलते, वैसे ही हैं गिर पड़ते । पर नहीं हार ले कर के, कुछ बैठे ही वे रहते ॥ वे पुनः खड़े हो कर हैं, चलने का यत्न सँजोंते । क्रम-क्रम चलने में यों ही, में पारंगत हैं होते ॥ यों लखकर शिशु की दृढ़ता, आश्चर्य चकित सब होते । सब के भी चकित वदन लख, शिशु वर्द्धमान मुस्काते ॥ उनके ही मुस्काते सब, खिलखिला हास हैं करते । जैसे दिनकर को लख कर, अनगिन सरसिज हों खिलते ॥ सम्राट वत्स को प्रायः, हैं राज-भवन में लाते। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्ग : शिशु वय __ दरवारी शिशु-दर्शन कर, चिर माशा सफल बनाते ॥ शिशु वर्द्धमान छोटे हैं, पर शिष्टाचार उन्हें है । मां त्रिशला की शिक्षा से, सम्भाषण-ज्ञान उन्हें है ॥ समुचित सम्भाषण करते, सुत को जब नृप पाते हैं । तो मन हो मन वे सचमुच, अति तोष-हर्ष करते हैं ॥ शिशु बर्द्धमान भोले-से, इकटक प्रति वस्तु देखते। उनमें जिज्ञासा रहती, ऐसा सब अनुभव करते॥ है उन्हें कभी कोई भी, ले जाता पुर-मार्गों से । तो उनका मनमोहक मुख, सब लखते उत्कण्ठा से ॥ महिलाएं शीघ्र झरोखों, छज्जों द्वारों पर प्रातीं। लख सस्मित शिशु को वे सब, निज जीवन सफल बनाती ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर यों राज कुमार स्वयम् भी, घूमते हर्ष हैं करते । वे नगर हाट उद्यानों, को देख मोद मन भरते ॥ पर जब तक मां त्रिशला से, वे विलग रहा करते हैं। तब तक विह्वलता में क्षण, हैं उन्हें विताने पड़ते ॥ वे बाट जोहती रहती, अन्यत्र न मन रमता है। मां की कितनी कोमलतम, होती अभिन्न ममता है । वे यों एकाकीपन में, सुत-स्मृतियां सुभग संजोती। जिनमें निमग्न हो कर वे, अपना हैं समय विताती॥ दासी को कभी बुला कर, उससे हैं बातें करतीं । इन बातों में भी तो वे, सुत चर्चा हो हैं रखतीं। वे कमी द्वार पर प्राहट, सुन वासी तुरत भेजती । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्ग : शिशु वय शिशु आया हुआ न पा कर, कुछ खीझ-खीझ यों कहती॥ जाने कब तक पाएगा, प्यारा-सा मुन्ना अपना । मैं कहीं न जाने दूगी, उसको निश्चय यह अपना ॥ हो जाय कहीं यदि कुछ भी, अपने मुन्ने को बोलो । मैं क्या फिर समझ रहूंगी, मम हृदय-दशा तो तोलो । दासों कहती कि प्राप हैं, यह व्यर्थ सोचती सब कुछ। मुन्ना का भाग्य बड़ा है, उसका होगा न तनिक कुछ। फिर आहट पाकर माँ श्री, हैं स्वयम् द्वार तक जाती । अपना मन लिए हुए सी, पा शिशु न लौट वे आती ॥ फिर स्वयम् उसे पाने को, चलने को उद्यत होती। इतने में मुन्ना प्राता, बे अमित मोद मन करती ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोर्थङ्कर भगवान महावीर जब मुन्ना आ जाता है, तो मानों मां त्रिशला के। साक्षात रूप प्रा जाते, उनके मानस-प्राणों के ॥ वे टुक निहाल हो जातो, मुन्ने को गोद गोद उठा कर । मुन्ना मी मातृ-अङ्क में, हंसता है हषित हो कर ॥ जब कभी कभी मां त्रिशला, दर्पण ले चोटी करतीं । तो वे अपने सुत को तब, कुछ उलझा उसमें पातीं ॥ वे निज प्रतिबिम्ब देखकर, मन में अति प्रमुदित होते। उसको छूने को सहसा, हैं वे निज हाथ बढ़ाते ॥ इस पर माँ और उपस्थित, जन अट्टाहास-सा करते । शिशु भी अपनी मस्ती में, खिलखिला खूब हैं हंसते ॥ बचपन की कंसी मस्ती, कोई छल-छन्द नहीं है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्ग : शिशु वय जीवन का परम सरलतम, सात्विक आनन्द यही है ।। धीरे धीरे यों करके, हैं दिवस बीतते जाते। त्यों-त्यों त्रिशला-नन्दन भी, क्रम-क्रम हैं बढ़ते जाते ॥ अब बात चीत भी प्रायः, वे करने खूब लगे हैं। उनको बातों के रस में, सब जन भी खूब पगे हैं। वे अन्य मनस्क कभी जब, रहते कोई चुपके से । ले उनके शिरस्त्राण को, दुबका देता धीरे से ॥ वे शोघ्र समझ जाते तब. कहते 'मम शिरस्त्राण' क्यों ! है उठा लिया जी तुमने, कुछ समझ न पाया मैं ज्यों !! रह व्यक्ति कि जिसने उनका, था शिरस्त्राण दुबकाया। बोला-'क्यों लेता उसको, होगा कौवा ले धाया । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर इस पर शिशु वर्द्धमान कुछ, उठकर निज शिरस्त्राण ले। फिर कहते हैं वे उससे, 'क्यों व्यर्थ झूठ थे बोले ? उनकी यह सजग सुचेष्ठा, लख नृपवर कुछ यों कहते । 'निज वत्स कुशलतम शासक, होगा यह लक्षण दिखते॥' शिशु वर्द्धमान के कारण, हर्षतिरेक-सा रहता ॥ त्रिशला-गृह के प्रांगन में, ज्यों चांद खेलता फिरता ॥ उनको कुछ बाल सुलभ-सी, चेष्टाए मनहर होती। जिनमें कुशाग्र मति उनकी, है नया रङ्ग भर देती ॥ न्यों कजरारे सावन के, प्रति सघन मेघ-प्रसरण में। धुति चमक-दमक कर जैसे, भर देती आभा उसमें ॥ मथवा पावस सन्ध्या में, कुछ हल्के बादल-तट पर । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्ग : शिशु वय ६७ सतरङ्गी इन्द्रधनुष-छवि, करती शोभा सुन्दरतर ॥ इन राजकुमार सन्निकट, हैं बहुत खिलौने रहते । पर वे तो उन्हें स्वयम् हो, निर्मित कर खेल खेलते ।। ज्यों कभी वस्त्र की दशियों, झण्डियां बनाया करते । फिर उन्हें पंक्ति में फहरा, हैं गान सुरीला गाते ॥ शिशु कभी पुष्प-पत्तों को, पा कर हैं हर्ष मनाते । फिर बड़े चाव से उनके, गुलदस्ते हार बनाते ॥ इस अल्प आयु में भी तो, उनको शुभ हस्तकला है । जिसमें भी राशि-राशि ज्यों। अनुपम सौन्दर्य भरा है। राजा-रानी यह लख सब, हैं फूले नहीं समाते । निज सुत-सा बालक पाकर, निज भाग्य सराहा करते ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर वे शिशु के 'जुग-जुग' जीने, की प्राश सँजोते रहते । इसविधि अपना वे जीवन, शुभ सरस सरलतम करते ॥ जब रात हुए सुत मां-संग, लेटा करते शैया पर। तो माँ जी उन्हें सुनातों, कुछ लघु कहानियाँ सुन्दर ॥ जब वे कहती-'था राजा, थी रानी एक नगर में।' तो झट कुमार कह देते, कुछ अरुचि साथ उत्तर में ॥ मैं सुनना नहीं चाहता. राजा-रानी की गाथा । इनके सुनने में तो है, कुछ व्यर्थ पचाना माथा ॥ मुझको तो भली लगी थी, उस दिन को क्षमा कहानी । जिससे कि पार्श्व स्वामी के, जीवन की झांकी जानी ॥ अब उसी भांति कोई भो, मां कह दो सत्य कहानी। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृगय संग : शिशुक्र ६ मत कभी सुनाओ मुझको, राजा था या थी रानी। रानी फिर बोली- बेटा ! जो तुमको अच्छी लगती। वैसी ही कोई गाथा, मैं तुमको अभी सुनाती ॥ श्री ऋषभदेव-जोवन को. सुस्मृति रेखायें जो थीं। अब उनको निज शब्दों में, कर रहीं सुभग चित्रित थीं ।। जिनमें आकर्षित हो कर, शिशु मग्न हुए-से सुनते । यह देख कहानी कम भी. नृप शामिल हो रस लेते ॥ निज शिशु को कुछ ऐसी ही, गाथाओं में रुचि लखकर । सम्राट सोचते होगा, यह ऋषभ-पावसा नर दर ।। यों सुत-चिन्तन में नृपवर, सो जाते शान्त भाव से। मां-पुत्र नींद में भी प्रा, सो जाते हैं धीरे से ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और भलवान महावीर शुभतर प्रभात बेला यो कहते ही जा हैं खग। माङ्गलिक प्रभाती से, विनाला कहती 'मुन्ना जग। Hो का मुश्त लह लगता, सो निन्य नियमवत करता। पर मेरिट सिद्ध को बन्दम, मात्र लिन हर सा . प्रतिनील रीझ कर देते। शिरमान मुख पर भी स मलनकम, pprnनननन । कृत्यों से : रन-काल.... हैं, मटा दिया दाते , बरसाते मोद भरा घर ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोर संग : शिशुभार ना कप-तर रोसें, आंगन में बाग लगाते ॥ अथवा लेकर में लकड़ी, हैं छोड़ा से बनाते । फिर चारों प्रोर छिप्रतम, हैं दौड़ दौड़ दौड़ाते । बद्ध मान की बाल सुभ में, शुक्र चेष्टाए, हृदय मोहतों ।। उनकी तुच्छ क्रियाओं से भी. मौलिक बातें अमित सोहतों ।। Page #92 --------------------------------------------------------------------------  Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ জুই জ্ঞা किशोर वय Page #94 --------------------------------------------------------------------------  Page #95 --------------------------------------------------------------------------  Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थर भगवान महावीर इन बच्चों की मेली के हैं, अधिनायक बालक बढमान । उनको सर्वोपरि बुद्धि शक्ति, रहती उनकी आज्ञा प्रमाण वह बालक टोली खेल अहाँ, अब करती वहाँ युगल यतिबर । प्रा निकले जिनका नाम विजय, सञ्जय जो चारण ऋद्धि-निकरें। इनको शङ्का यह थीजाता है जीव मरण के बाद कहाँ। है स्वर्ग-नर्क भी या कि नहीं, या केवल गोचर लोक यहाँ बह शाशूल हृदय में था, उद्विग्न किए युग मुनिवर को। जैसे कि फांस साला करती, जिसके चुभ जाती उस जन को। पर बर्दमान बालक नायक का, मुख-मण्डल प्रभावशाली । लख दूर हो गई स्वयम् श्राप, शङ्का मस्थिर करने वाली है। मुंग मुनिवर ने इनको पाया, सुविचक्षण बालक मेधावी । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वतुर्थ सर्ग:किशोर का झट सोचा 'सम्मति' नाम सुम्म, मति भेद सकी गति मायावी. अन दिग्वेषी सु-साधु जन को, श्री बर्द्धमान ने देखा जब । बोले से सभी साथियों से, बल करें साधु-स्वागत हम सभी बालक धिर पाए मुनि-समोष, निज नायक के कथनानुसार। युन थति का अभिनन्दन करने, थे खड़े हुए सब विनय धार मुनि द्वय ने भी बालक-गण को, अशोर्वाद हो मुदित दिया । फिर बर्द्धमान का नाम सुभम, सम्मति' बच्चों को बता दिया । तदनन्तर युग मुनिपर सस्कर, थे विदा हुए अपने पद पर । पर सम्मति बालक ने 'सम्मति', उपयुक्त नाम पाया सुन्दर । इति बात खेल में अब कहते, इनसे सन्मति' कालक-गण सत्र पर समरस'सन्मति'को किलिचत, था गर्व न पा यह गुरु गोरख । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोर्थङ्कर भगवान महावीर जब लौटे घर को वर्तमान, . । मां-पिता, सभी को बच्चों ने। बतलाया 'सन्मति' नाम रखा, जब खेल रहे वे युग मुनि ने ॥ सुन यह घटना सब मुदित हुए. । माँ त्रिशलाका मृदु मुख दमका । कुछ स्वाभिमान की रेखा से, यो नृप-मुख-मण्डल भी चमका ॥ जब वद्ध मान के शिक्षक ने, .. : इस शुभ घटना को था जाना। हर्षातिरेक स्वाभाविक ही, मन-मोद उन्होंने था माना ॥ बोले सहसा-'इस "बालक का, . ''मैं नाम यही तो सोच रहा। जो अभिनव मैंने बतलाया, " वह उन्हें सदा ही ज्ञात रहा ॥ जब कभी कहीं मैं भूला कुछ, - · इनको लख शीघ्र या झाया। इनको सु-प्रज्ञ मुद्रा ऐसी, मैंने भी यह अनुभव पायां ॥ यह स्वयम् प्रन-से लगते, हैं, . इनको कोई क्या शिक्षा दे ! Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ..७७ चतुर्थ सर्ग : किशोर वय सचमुच मुझको ऐसा लगता, इनसे शिक्षक भी शिक्षा लें ॥' वे अध्ययन करते और खूब, नित नूतन खेल रचाते हैं। निज जोवन को बहुमुखी सौम्य, वे इस विधि सरस बनाते हैं । इस जीवन की वे नव बय में, हैं सत्य वचन बोलते सदा । अस्तेय पालते पूर्णतया; करते हिंसा किञ्चित न कदा ॥ वे ब्रह्मचर्य से रहते हैं, विषयों में जाती नहीं दृष्टि । परिमाण परिग्रह में उनके, सज्जीवन को आदर्श सृष्टि । इस सदाचरण परिणाम रूप. उनमें अनन्त दृढ़ता सु-धर्य । बढ़ रहा निरन्तर दिन प्रति दिन, उनमें साहस बल अमित शौर्य । उनके साधारण कृत्यों में, है वीर-वृत्ति दिखती सदैव ।। पुरुणर्थ हेतु उद्यमी सदा, उनका आवर्श न रहा देव ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VC तीर्थङ्कर भगवान महावीर इसलिए 'वीर' अब नाम पड़ा, विकसित सन्मतिका बल विक्रम । साहसिक कार्य प्रायः करते, दुर्गम भी उनके हाथ सुगम ॥ मानों कि वीर्य साहस अनुपम, आकर उनमें ही चरम हुआ । अथवा कि सफलता से उनका, कोई अभिन्न सम्बन्ध हुआ ॥ बाल वीर - बल-यश-चर्चा, अब चारों ओर विकोणं हुई । उस स्वर्ग लोक में भी तो हाँ, यह सन्मति साहस पर बात हुई । बोला- 'त्रिलोक में कोई सुर, साहस न किसी का सन्मति-सम । इस पर लेकिन विश्वास नहीं, कर पाया कश्वित् सुर सङ्गम ॥ अतएव परीक्षा सन्मति की, करने को उसने मन ठानी । प्रति जटिल परीक्षा कोई-सी, वह सोच रहा था विज्ञानी ॥ खेलते बाग में बट-तरु-तर, जब सम्मति निज साथियों सङ्ग । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ सर्ग : किशोर वय तब सङ्गम सुर झट बन पाया, अति भयकारी काला भुजङ्ग। वह वृक्ष-तने पर लिपट गया, कुछ भाग रहा उसका भू पर। विष की विषाक्त-सी फुफकारें, अब मार रहा था वह विषधर ॥ जैसे ही बच्चों ने देखा, वे नौ-दो-ग्यारह शीघ्र हुए । मुह उठा उसी दिशि में भागे, वे महा भीत निर्वाक हुए ॥. पर बर्द्धमान वे बाल वीर, किञ्चित न डरे उससे दृढ़तर । पहुंचे तत्काल फणीश निकट, जा खड़े हुए उसके फण पर । उसके फण पर खेलते रहे, थे बहुत देर वे प्रति निर्भय । था रचता क्रीड़ा रहा वहीं, फणधर मी मग्न हुआ अतिशय ॥ बच्चों ने राज-भवन में जा; विषधर वृतान्त सब बतलाया । उद्विग्न हुए अति नप-त्रिशला, जब साथ न सन्मति को पाया ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर मां त्रिशला बोलों नृपवर से, क्या बात नहीं सन्मति प्राया। वह जाने कहां किस तरह है ?" जो त्रिशलाका अति भर आया। नप बोले 'तुम चिन्ता न करो, ___ मैं अभी ज्ञात सब करता हूं। मैं भृत्य मेजता और स्वयम्, उस बाग ओर हो जाता हूं। त्रिशला बोलीं-'शीघ्रता करें, • कोई न घटित दुर्घटना हो । यदि राज-वैध भी साथ लिए, जावें तो प्रति ही अच्छा हो। जी चाह रहा यों मेरा भी, मैं भी श्रीमन के साथ चलूं । निज वर्द्धमान को देख सकें, . कैसे मन मारे यहाँ रहूँ ? नप बोले-'तुमको साथ लिए, चलने में तनिक देर होगी । कारण रथ की तैय्यारी सब, तव गमन-हेतु करनी होगी ॥ मैं जाता, नहीं बिलम्ब कह', । कह नृपति गए झट ही बाहर । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ सर्ग : किशोर वय वे चले वैद्य कुछ जन ले कर, वन को, चर भेजे इधर-उधर ॥ लेकिन अन्तःपुर में त्रिशला, माता को धैर्य न कियत हुआ। वे क्षण-क्षण पर हैं सोच रही, जाने क्या होगा वहाँ हुआ। दासियां निरत परिचर्या में, सखियां मृदु उनसे बोल रहीं। सब विधि से ढाढस दे उनको, हैं ध्यान बटा हर समय रहीं ॥ मां त्रिशला कहती हैं उनसे, जब भी-'अब जाने क्या होगा ?" __तो कहतीं उनसे हैं सखियाँ, 'उनका न बाल बाँका होगा ॥ कारण सन्मति है भाग्यवान, उनको होगी अति दीर्घ आयु ।' यह सुन मां जी को भी ऐसा, लगता पाती ज्यों धैर्य-वायु॥ लेकिन संकल्प-विकल्पों के, झूलों पर हैं वे झूल रहीं । वे धैर्यवान हो कर भी हैं, चिन्तित-सी सब कुछ भूल रहीं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोर्थङ्कर भगवान महावीर मां के अन्तर की कोमलता, मां के अन्तस की मृदु ममता। मां का मानस हो जान सका, क्या इसकी कहीं प्राप्य समता? जा पहुंचे उधर बाग में जब, सब सन्मति को ढूंढ़ते हुए। नप वैद्य आदि ने देखा तब, उनको फण पर खेलते हुए ॥ पाश्चर्य चकित कुछ स्तम्भित, रह गए सभी जन जो प्राए । कौतूहल पर सबके मुख पर भय-चिह्न सहज ही दिखलाए । परों की भूमि सरकती-सी, उन सबको थी भासने लगी । रोंगटे खड़े सबके प्रागे बढ़ने की पर हिम्मत न जगी॥ लेकिन वे बर्द्धमान निर्भय, उस सर्प-साथ खेलते रहे । पर एक दूसरे का मुंह बे, आगन्तुक गण देखते रहे ॥ लेकिन सन्मति को कुशल देख, नृप को साहस कुछ तोष हुमा। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ सर्ग : किशोर वय इनने में ही सङ्गम सुर को, प्रागत जन-संकुल-बोध हुआ। वह स्वाभाविक स्वरूप में झट, प्राया सन्मति को उठा लिया। बैठाया निज कन्धों ऊपर, प्रानन्द-सहित, मन हर्ष किया । पहुचा वह स्वयम् वीर को ले, प्रागन्तुक सु-जनों के समीप । 'तुमने यह क्या था खेल रचा ?' संगम सुर से बोले महीप ॥ उत्तर न देव कुछ कर पाया, सन्मति उतरे झट कन्धों से । सम्राट निकट जा खड़े हुए, वे स्वस्तिवाद कर सब जन मे ॥ नृपवर सन्मति के शिर पर अब, थे हाथ फेरते खड़े हुए। संगम-सुर-उत्तर सुनने को. ___ मानों वे केवल रुके हुए ॥ बोला सुर-खेल कुतूहल जो, समझे, पर शौर्य-परीक्षा-हित। मैंने यह था सब डॉग रचा, पर हुए वीर पर इसमें जित ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तार्थङ्कर भगवान महावीर नप ने फिर पूछा - देवराज ! क्यों शौर्य परीक्षा की ठानी ।' तब उत्तर में वह बोला यों, जाज्वल्यमान स्वगिम प्राणी॥ 'जब स्वर्गलोक में बात चली, सन्मति सम जग में शौर्य नहीं । तब मैं विश्वास न कर पाया, ली अतः परीक्षा जटिल यहीं ॥ यह सन्मति केवल वीर नहीं, ये तो सच अतिशय धीर वीर। मैं तो कुछ सोच समझ इनका, हूं नाम रख रहा 'महावीर'। यह यथा नाम है तथा गुणः, इसमें कोई अत्युक्ति नहीं।' सबके अन्तस में यही बात, है सत्य बनी प्रब गूंज रहीं ॥ नप ने शावासी दी सुत को, अति हर्ष समाया सबके मन । ___ बोले नप-शीघ्र चलें घर माँ, इनकी इन विन होंगी उन्मन ॥ सुर ने सन्मति को पुनः उठा, अपने कन्धों पर बिठलाया ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ चतुर्थ सर्ग : किशोर वय सबके फिर साय चला पुर को, हर्षातिरेक-सा हो आया ॥ जा पहुंचे सब प्रासाद निकट, मां त्रिशला खड़ी द्वार पर थीं। सखियों संग बाट जोहती बे, सुत-मिलन हेतु अति आतुर थीं। जब देखा सुर के कन्धों पर, बालक सन्मति को चढ़े हुए। तो वे प्रमुदित लेकिन विस्मित, दुर्भाव तिरोहित शीघ्र हुए ॥ वे भूली-सी देखने लगी, सन्मति को निनिमेष हग से। पर वर्द्धमान झट देख उन्हें, उतरे सङ्गम के कन्धों से ॥ आ पहंचे वे मां के समीप, शुचि प्रेम-पगा सम्बाद किया। मां ने दुलार से आशिष दे, सुत स्नेह-अङ्क में उठा लिया। नप, राज्ञी,सखियां, सुर, सन्मति, फिर अन्दर गए महल प्रशान्त । इतने में नप ने बतलाया, सब देव-परीक्षा का वृतान्त ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर सम्राज्ञी बोली-'देवराज ! यह खेल तुम्हारे लिए रहा। ___ यदि हो जाता कुछ सन्मति को, तो जाता कंसे दुःख सहा ॥ सचमुच जीवन तब मुश्किल था, हम तो सुत भर ही जीते हैं। . इनके बिन तो सब काम धाम, लगते हमको प्रति रोते हैं।' सुर बोला-'मा जी! पद्धमान, होते इतने यदि बीर नहीं। तो सुनो परीक्षा की नौबत, ___ आ सकती थी किञ्चित न कहीं॥ फिर भी मैं क्षमा मांगता हूं, श्रीमती मापसे भूपति से। पर वर्तमान होंगे प्रसिद्ध, सच 'महावीर' मग में अब से ॥ इतना कह कर सुर सङ्गम ने, ली विदा उपस्थित सब जन से। कर नमस्कार वह चला गया, निज स्वर्गलोकको भू-तल से । यह घटना कई दिवस तक बी, बन गई विषयं जनचर्चा का Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ सर्ग : किशोर वय नप राज्ञी से पूछता अगर, कोई वृतान्त इस घटना का ॥ तो वे बतलाते मग्न हुए, प्रमुदित जो कुछ था हुमा घटित । श्रोता तन्मय हो कर सुनते, करते सन्मति-श्लाघा हषित ।। सम्मानित होते व मान, अब 'महावीर शुभ संज्ञा से । लेकिन उनमें अभिमान नहीं, बाहर-भीतर वे समरस-से ॥ सागर-से वे गम्भीर-धीर, प्राकाश सहश विस्तीर्ण दृष्टि । योखामों से बढ़ अतुल शौर्य, पर हद्-ऋजुता को मृदुल सृष्टि । मानन्द सहित दिन बीत रहे, सन्मति हो पाये प्रब किशोर । साहसिक कार्य करते रहते, चिन्तन में भी रहते बिमोर ॥ सामाजिक कार्यो में उनको. रहता किश्चित सोच नहीं । जन-हित निज़ प्राण-समर्पण में, होता कुछ उनको सोच नहीं। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर है एक दिवस की बात कि जब, गज हुआ एक प्रति मदोन्मत्त । झञ्झा -सा भगता इधर-उधर, स्वच्छन्द हुआ मद में प्रमत्त ॥ वह लौह-सांकलें तोड़-ताड़, भागा था हाथीखाने से । ज्यों काल मूर्त ही दौड रहा, .. गज मिस उन्मुक्त हुन्मा जैसे ॥ हस्ती-पग-तल मरते अगणित, जन जो भी पथ पर आ जाते। पर असह्य वेदना से वे सब, तज रहे प्राण थे चिल्लाते ॥ थे सभो महावत चकाए, वश कर न सके गज मतवाला। हिम्मत परास्त थी हो जातो, देखते जमी हाथी काला। गण्डस्थल से मद चूता था, चिधाड़ रहा घन-गर्जन सा । अतिशय विशाल तर तोड़ रहा, वह महा भयानक राक्षस-सा ॥ पर महाबीर ने जाना नब, इस उन्मरहाबो का वृतान्त । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....."पर महावीर ने जाना जब, इम उन्मद हाथी का वृतान्त । उत्यात जहां यह गज करता, पहेचे उस थल निर्भय नितान्त ।। xxx xxxxxx वे मिह सदृश केहरि सम्मुख, जा खड़े हुए भय-भाव-रहित । मदमाता हाथी सूड उठा, झपटा इन पर प्रति वेग-सहित ।। पर वोर मूह से चड़े शीघ्र, उसके मद विगलित मस्तक पर । गज सहम गया मद भूल गया, पा शासन सन्मति का सिर पर ।। Page #112 --------------------------------------------------------------------------  Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ सर्ग : किशोर वय उत्पात जहाँ यह गज करता, पहुचे उस थल निर्भय नितान्त ।। रोका सबने श्री सन्मति को, पर वे न रुके साहसी अतुल । वे अभयदान नागर जन को, देने को मन में थे प्राकुल ॥ वे सिंह सदृश केहरि-सम्मुख, जा खड़े हुए भय भाव-रहित । मदमाता हाथी सूड उठा, झपटा इन पर प्रति वेग-सहित ॥ पर वीर सूड से चढ़े शीघ्र, उसके मव-विगलित मस्तक पर । गज सहम गया मद भूल गया, पा शासन सन्मति का शिर पर ।। दर्शक थे सब आश्चर्य चकित, इस पौष साहस से विस्मित । कर उठे प्रशंसा भूरि-भूरि, गज पर बैठ सन्मति सस्मित ॥ पहुंचाया गज को यथास्थान, सन्मति फिर लोटे महलों में। मां निकट खड़े वे विनयवान, मा हई मुदित निज अन्तस में । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर वे बोली-बेटे कहाँ गए, मैं तो तुमको थी देख रही। गज मदोत्पात कर रहा यहाँ, सुन कर तब से कुछ सोच रहो। आशा में मन सूबा था, पर शकुन हो रहे पल प्रतिः पल । इसलिए हदय कुछ सन्तोषित, पर बाट जोहता तब अविरल ॥ 'पर मां तब शकुन ठीक निकले, मुझको कुछ ऐसा लगता है। मैंने गज वश कर बन्द किया, अब तो उत्पात न करता है।' 'ऐं क्या कहते ? 'तुमने अच्छा, तुम मला शान्त कब रह सकते? ऐसे कामों को तो तुम हो, . बिन सोचे समझे ही करते ॥' 'लेकिन मां जो तुम सोचो तो, करि कर भीषण संहार रहा। यदि किया न बाता वह वश तो, कैसे टलती यह विपति महा ।' इतने में आए श्री नृपवर, मत सन्मति ने सहज किया। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ सर्ग : किशोर वय पाशीर्वाद तब भूपति ने, अति हर्षित होकर उन्हें दिया । बोले वे त्रिशला से, जानासन्मति ने वह गज मतवाला । वश कर न सके जिसको योद्धा, दृढ़ फीलवान, वश कर डाला। हम मंत्रि. प्रवर थे सोच रहे, कसे वश में गज किया जाय। पर साधन हो सब विफल रहे, कोई न सूझता था उपाय ॥' 'श्रीमन् कैसे हैं नृपति कि जो, गज एक मत वश कर न सके। जिस पर सन्मति से बच्चे भी, अपना शासन है जमा सके । अब त्याग-पत्र में नप-पद से, त्रिशला सव्यंग्य बोलीं ऐसे। तब कहा नृपति ने उत्तर में 'तुम ठीक कह रही हो मुझसे ॥ मैं मी ऐसा हो सोच रहा, सम्मति को राज-तिलक कर दूं। लूं मैं विराम अब शारित सहित, . ..तब सञ्चित अभिलाषा भर दूं। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर इस पर सन्मति कुछ कहने को, पर कहा नृपति ने कुछ पहले। तब शान्त रहे शम वद्ध मान, वे शब्द न कोई थे बोले ॥ नप थे उनसे बोले-'तुमने, जीवन को कुछ परवाह न की। पर भला हुआ उत्पात-शमन, बचगई जान अगणित जन की।' ऐसे समयों पर बर्द्धमान, प्रायः कुछ करते बात नहीं। वे तो शम दिखते हैं निरुपम, उनमें उच्छहल-दृष्टि नहीं॥ पर मात-पिता का मृदुल हदय, मन फूला नहीं समाता है । कारण इसका शायद लगता, सुत होने का शुभ नाता है। तदनन्तर थे दरबार गए, सिद्धार्थ नृपति नब सन्मति संग। तो सबने स्वागत पूर्ण किया, मानों ले कर नूतन उमंग ॥ नियमित कार्यों के बाद बनी, पर्चा उस केहरि घटना पर । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ सर्ग : किशोर वय 'हैं धन्य कुमार किया वश गज', वार्ता में बोले मंत्रि प्रवर ॥ पर मूक रहे वे विनयवान, मृदु वर्द्धमान सुन निज बखान । अब अन्यमनस्क विलोक रहे, वे द्वार पार कुछ आसमान ॥ पर बोला कोई नागर जन, 'उत्पात-शान्त शत धन्य इन्हें । अव अभय-मार्ग पर चलते सब कह रहा लोक 'अतिवीर' इन्हें ॥ जनता के प्रिय बन गए 'वीर' 'महावीर और 'अतिवीर' हुए। सन्मति किशोर यश-शोर हुमा, चहुं ओर वीर गम्भीर हुए ॥ Page #118 --------------------------------------------------------------------------  Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ক্ষু সুষ্ঠ तरुणाई एवं विराग Page #120 --------------------------------------------------------------------------  Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरुण विकसित मंजु तन में, वेणु बजती भावना की । कौन हृदय खसोटता क्या? सुप्त रेखा वासना की ॥ कामना के गीत गाने को, हृदय आकुल हुआ-सा । मधुर जग में सञ्चरण हित, मन-विहग व्याकुल हुआ-सा ॥ कल्पना के सौम्य नभ में, पंख मन-खग खोलता-सा । मुक्त उड़ने को इधर कुछ, कुछ उधर वह डोलता-सा ॥ मदिर सरगम के सुरीले, तार झन-झन कर उठे-से । और 'रुन-झुन' शब्द सुनने को, मचलते भाव जैसे ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर चाह की मृदु चांदनी है, फैलती-सी उर-गगन में। नाचता-सा मोर मन का, हो मगन संसार-वन में ॥ मोह - आकर्षण रंगीले, जाल' कुछ फैला रहे-से । बांधने अभिलाष - पंक्षी, कर रहे थे यत्न जैसे ॥ किन्तु सन्मति सूक्ष्म दृष्टा, देखते सब हो सजग-से । चेतना में लोन सक्रिय, विज्ञ यौवन आगमन से॥ जानते वे काम उग-सा, है रहा मानव-पटल पर ॥ सूक्ष्म और अदृश्य जिसको, गीत रहा चुपचाप पग धर ॥ प्रथम ऊषा की किरण-सा, यह हृदय रंजित बनाता ।. . किन्तु भावी के लिये यह, विश्व बलदल में फंसाता ॥ 'अहे यौवन ! इन्द्रधनु-सो, छिटकती तब छवि निराली। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग " नाच उठती कामना के, नीर-तट पर मन-मराली ॥' सोचते एकान्त में .. यों, वर्तमान प्रशान्त मुद्रा ... 'यह जवानी है नशीली, रच रही जो मदिर तंद्रा॥' शुद्ध 'मैं' का रूप कब है ? यह नशा है धमनियों का । रक्त का उद्वेग कह लो, यह स्वरूप न 'आतमा' का॥ मोह, ममता, लोम, रति, धन, हुए हावी तरुण वय पर । आवरण नित डालते ये, ज्ञान के शाश्वत निलय पर । और प्राणी सोचता कब, यह जवानी भी लुभानी । पिर न रह सकती कभी भी, मथिर इसको चिर कहानी ॥ हे जवानी ! किन्तु मुझको, तू नहीं भरमा सकेगी । तू न मेरे मर्त्य तन में, काम-तर पनपा सकेगी ॥, Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर क्योंकि मैंने है न खोया, शुद्ध ज्ञान विवेक-साथी । प्रतः पास न पा सकेगा, काम का उन्मत्त हाथी ॥ शुद्ध चेतन - भाव - नम में चेतना मेरी चढ़ेगो । कल्पना क्रियमाण बन कर, त्याग पंखों पर उड़ेगी ।, बंधा मेरा 'आतमा जो, देह की जड़ जेल में है। उसे निश्चय एक दिन तो, मुक्त करना ही मुझे है ॥ मुझे लगता, हैं कि जब तक, लोक - इच्छायें मधुरतम । कर्म कोल्हू में जुता हूं, बैल-सा बनकर अधमतम ॥ प्रतः जग की एषणाएं न्यूनतम करनी मुझे है । हे विषम पथ ! भाव मेरे, दे रहे न्योता तुझे हैं ॥ मुझे अस्थिर रूप जगका, दिख रहा चारों तरफ है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग परत परिवर्तन सभी के, शोश पर चुप नाचता है। कहाँ हैं वे राम लक्ष्मण, सती सीता-सी शिरोमणि । वीर योद्धा, चक्रवर्ती, हैं कहीं उनकी मुकुट-मणि ॥ काल के ही गाल में है, भाल जीवन का हमारा । तुहिन-कण-सा यह अथिर है, रत्न जोवन का दुलारा ॥ प्रतः निश्चित मृत्यु मुझको, सब तरफ दिखला रही है। हैं न इससे शरण जग में, विश्व-गति यह गा रही है। पुण्य का सम्बल मिला तो, शत्रु भी बन मित्र जाते । पाप का आया उदय तो, मित्रजन बन शत्रु जाते ॥ इस तरह प्रशरण जगत सब, शरण बस प्ररहन्त स्वामी । क्योंकि मरना जीतने का, मार्ग बतलाते प्रकामी ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • तोर्थकर भगवान महावीर मुक्त हैं अरिहन्त पर मैं, कर्म-कारा · में बंधा हूं । हुए जग से मुक्त इस विधि, उन्हें नेता मानता हूं ॥ और जब संसार में मैं, देखता हूं शान्त होकर। तो मुझे लगता भ्रमण जगजीव करते , क्लान्त होकर ॥ शान्ति जग में है कहाँ, रे ! है कहां चिर सौख्य-साधन । . ' जन्म में भी दुख दिखाता, मृत्यु में उत्पात पीड़न ॥ तरुण वय का भी कुचलता, शिर बुढ़ापा नित्य क्षण-क्षण । .. फिर कहाँ संसार में सुख, चेत रे ! मम चेत रे मन !! . तू . अकेला शुद्ध चेतन, है न कोई साथ जम में । है. सगे साथी बने जो. मोह में वे स्वार्थ-मग में॥ जन्म में पाया प्रकेला, और . बायेगा अकेला । .... Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग देख लो मन ! सत्य जग में, कौन हो । पाया दुकेला ॥ मात-पितु ये, इष्ट जन सब, लोक-कथनी में सगे हैं । किन्तु मुझको भासता ये, मोह-संसृति में पगे हैं ॥ ___ जब किसी को कष्ट होता, रे, असह इस मर्त्य तन में । कौन तब लेता बटा है, भोगता वह आप मन में ॥ बात क्या है इष्ट जन को, यह न देहो मो हुई निज । कर रहे जिसकी सुश्रा , अन्त में वह जायगी तज॥ देह जड़ है मैं सु-चेतन, वर्तमान विभाव परिणति । इसी कारण विश्व में हं, सह रहा मैं दुःख अगणित ॥ ___ मोह वश संसार तन को, नित्य अपना मानता है । मात्म रूप विसार कर, वह दुःख रौरव मोगता है ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ तीर्थङ्कर भगवान महावीर आहे ! चेतन का महा यों, हो रहा अपमान निशि-दिन । पोषित हो रहा है, और यह रत घिनगेह जड़ तन 11 वीर्य - रज से देह छो: अशुचि अवतार है चर्म वेष्टित हाड़ मज्जा, का श्रागार है यह || रक्त उपजी, यह । कौन इससे घृणित प्रतिशय, वस्तु जग में हो नौ मुखों से मंल रात दिन क्या लाभ सकेगी । इस लिए इस भ्रमण की गति हो बहता, देगी ? विष भरा जैसे कलश रोग शोकों का पिटारा किन्तु फिर भी लोन इसमें, जीव सहता दुख विचारा ॥ हो, मोह का पर्वा पड़ा ज्ञान- ज्योति न मिल रही है । जीव को तो, रही है ॥ भ्रमित बेही देह के हित, इच्छ। ऐ संजोता । नवल Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग : नरुणाई एवं विराग कर्म पुद्गल का निमंत्रण, आस्रव यों नित्य होता ॥ सिवा कर्मों के न जग में, और जो मम प्रहित कर ले। कर्म का ही प्रागमन, जो पुण्य पीड़ा में बदल दे ॥ ___ भावनाएं औ' क्रियायें, खींचती हैं कर्म रहती । इसलिए सद्भावनायें, सक्रियाएं शुभ्र रहतीं ॥ मोक्ष के हित किन्तु हमको, चाहिए सब कर्म का क्षय । प्रतः पाना रुक सके, रिपुकर्म का, हो दूर जग-भय ॥ पञ्च व्रत शोलापरिग्रह, सत्य औ, अस्तेय, करुणा । अनुसरण हो, पञ्च इन्द्रिय की, विजय को बहे वरुणा ॥ इस तरह हों बन्द कर्मों के, लिये निज क्रिया द्वारे । तमी संवर, हो सकेंगे, बन्द आस्रव के किबारे ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर बन्द जब प्रास्त्रव हुआ तो, कर्म सञ्चित जो पुराने । साधना की अग्नि में वे, तब तभी होंगे जलाने ॥ क्योंकि हो जाते किसी विधि, यान में जब छिद्र किञ्चित । तो कुशलतम पोत चालक, बन्द करता छिद्र निश्चित ॥ बाद में फिर पोत-बाहक, फेकता प्राया हुआ जल । इस तरह जल-यान करता, ठीक, वह होता न बोझिल ॥ यों स्वचेतन-यान के सब, बन्द आत्रव-द्वार करने । और सञ्चित कर्म-जल-कण, निर्जरा से क्षार करने ॥ पार होगा इस तरह यह, विश्व-जल से यान अपना । और पायेगा सहज हो, मोक्ष-तट-चिर लक्ष्य अपना ॥ सोचता क्या लोक-रचना, द्रव्ब छः का खेल लगता । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग १०५ काल धर्माधर्म चेतन, शून्य जड़ का योग दिखता ॥. एक पुद्गल दिख रहा है, और द्रव्य अदृश्य सारे । . किन्तु संसृति चल रही है, एक दुसरे के सहारे ॥ . नर्क पशु सुर मनुज गति में, जीव मोही घूमते हैं । कर्म के अनुरूप अपना, भाग्य नित ही ढालते हैं ॥ . मोह के वश जीव-जड़ को, भेद दृष्टि न समझ आये । कर्म-छिलका हटे चेतन, धान से तो जन्म जाए ॥ ___ ज्ञान सत् दुर्लभ जगत में, भोग-सम्पति सब मिले हैं। पर यथार्थ सुबोध बिन तो, भ्रान्ति वश जग में रुले हैं। __धर्म का बस एक सम्बल, जो जगत से पार करता। वस्तु का निज रूप हो तो, धर्म सत् है मुझे दिखता ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर किन्तु जग में आज तो है, धर्म को विकृति हुई अति । स्वार्य-साधन बन रहा यह, बलबती है हिन जड़ मति ॥ .. दूर दुःस्थित यह कहंगा, अब यही मन ठानता हूं। सत्य करुणा प्रात्म-निधि को, धर्म सत् मैं मानता हूँ ॥ सही श्रद्धा ज्ञान चारित को, त्रिवेणी जीव तुझको ! स्नात करके, यह करेगी, दूर तेरे विश्व-मल को ॥' इसलिये सन्मति स्वयं अब, दूर भौतिक दृष्टि से हैं । तत्व की अनुपम तुला पर, प्रात्म-निधि वे तौलते हैं। प्राय एकाको हुए वे, भाव ऐसे हो संजोते । बाह्य प्राकर्षण रंगोले, अब न किञ्चित भी रिझाते ॥ देख सन्मति को दशा यह, मात-पितु कुछ सोचते बों। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग ये प्रमी से ही विरागी, लग रहा है, हो रहे ज्यों ॥ है तरुण वय हुई इनकी, ब्याह करना इष्ट हमको । बाद में दुस्तर बनेगा, सच मनाना हमें इनको ॥ ___ सौम्य-सा सम्बन्ध कोई, ढूंढ़ने के हेतु कुछ जन । मेज नृपवर ने दिए हैं, जो कुशल हैं मोदयुत मन ॥ वर्तमान स्वरूपबल को, कीति से थे सभी परिचित । निज सुता सम्बन्ध हित यों, बहुत से नृप हुए उद्यत ॥ जबकि राजकुमारियों ने, बात सन्मति को सुनी तब। सहज करने लगा उनका, सरस मानस मदिर कलरव ॥ कामना के स्वप्न तो अब, आ रहे बिन प्रकृत निन्द्रा। रक्त बोवन का मबिर यह, मृदु नशीली मत्त तन्द्रा ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.८ तीर्थङ्कर भगवान महावीर किन्तु नप सिद्धार्थ त्रिशलाने सुना विवरण सभी. का। रूप, रंग, लावण्य, गुण की, दृष्टि से विस्तार उनका ॥ तो कलिङ्गाधिप-सुता पर, शुभ यशोदा नाम जिसका । मुग्ध हो आया हृदय प्रति, सुत-बधू-हित-हेतु उनका ॥ माव त्रिशला और नप के, जब कलिङ्गाधीश ने भी । ज्ञात कर पाये तभी वे, शीघ्र आए ले शिविर भी॥ नाम था जितशत्रु इनका, निज सुता को साथ लाए । देख जिसका रूप गुण, सिद्धार्थ-त्रिसला मुस्कराए ॥ सुत-बधू के सम्वरण-हित, वे सभी विधि से लुमाए । प्रश्न पर यह बात कैसे, कौन सन्मति को सुनाए ? नपति बोले, 'तुम्ही त्रिसला ! बत्त सन्मति को बतायो । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग और उनको किसो विधि भी, व्याह करने को मनामो ॥ क्योंकि तुम ही साध सकती, बात यह मेरी समझ में । मातृपद के जोर से तुम, मना सकती हो तनिक में ॥ ___'मैं अभी तैयार लेकिन, आप भी आना वहां पर।' दिया उत्तर राशिवर ने'आपका क्या वह न सुत वर ?' नपति बोले विहंस, 'अच्छा, रात जब होगो अभी तब । व्याह का प्रस्ताव रखना, वीर के सम्मुख सु-नीरव ।। बाद में मैं बाऊगा तब, पुष्टि करने को तुम्हारी । पूर्ण होगी इस तरह से, समझता वाञ्छा हमारी ।' इस तरह अब रात का यह, कार्यक्रम हो गया निश्चित । उधर नव तरणी यशोदा, निय शिविर में मुक्ति प्रविवित। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर रूप का अभिमान किञ्चित, कर रहा अभिभूत उसको । बाह्य से वह कुछ लजाती, पर अमित आह्लाद उसको ॥ 'गए सन्मति घूमने को, हैं अभी ही इसी पथ से ।' शब्द उसके कर्ण-कुहरों, में पड़े कुछ मञ्जु स्वर-से ॥ झनझनाये तार कोमल, हृदय-वीणा के सिहर कर। पुनः प्रावर्तन उन्हीं का, हो रहा उर में उमड़ कर ॥ दीर प्रत्यागमन - दर्शन, हेतु इच्छा मुस्कराई । हदय स्पन्दित हुआ-सा, द्वार पर वह शीघ्र प्राई ॥ सान्ध्य-वेला में खड़ी निज शिविर के प्रब द्वार पर वह । कल्पना - हिन्दोल पर अब, चुप खड़ी भी गेलती वह ॥ अरुण ऊषा-से मधुर कुछ, विरकते मृदु भाव उर पर। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग वर्तमान स्वरूप के कुछ, चित्र बनते हृदय-पट पर ॥ कामना प्राकुल बनाती, नव - मिलन इच्छा जगाकर । देखते सहसा कि सन्मति, जा रहे गृह, पर्यटन कर ॥ दिव्य उन्नत भाल उनका, सौम्य सुगठित कान्तिमय तन । किन्तु नत हग किए जाते, सोचते कुछ मौन मृदुमन ॥ निनिमेष नयन-चषक से, पिया सन्मति-रूप-रस कुछ । सोचती 'मुझकों' यशोदा, 'देख पाये वे नहीं कुछ ॥ कौन कानन में विचरते, हो गए वे दृष्टि-प्रोझल । हार क्यों मन मानता-सा, टोस खाते भाव कोमल ॥ रूप क्या वह रूप था मम, रूप से भो रूपमय कुछ । होन मेरा रूप क्यों, परदूसरों से अष्टितर कुछ ।' Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ तोर्यकर भगवान महावीर इन विकल्पों में यशोदा, हो रही गुम-सुम हुई-सी । इधर सन्मति महल पहुंचे, शान्ति-मुद्रा प्रशमता-सी ॥ रात का तम सघन-सा प्रब, अरत होता जा रहा है। चांद तारे हंसे नम में, समय बढ़ता जा रहा है। बर्द्धमान स्व-कक्ष में थे, सोचते बैठे हुए थे। आ गई सम्राज्ञि त्रिसला, निरत विनयाचार में वे ॥ भक्ति से कर विनय स्वागत, उच्च आसन पर बिठाया । स्नेहयुत आशीष - वादन, मात से सुख-पूर्ण पाया ॥ प्रेम से बोली जननि मृदु"प्राय रहता सोचता-सा । तू अकेले में हुमा क्या, मनन करता साषु अंसा ॥' 'कुछ नहीं बब-सब कभी मैं, लोक क्या है? स्वयं क्या हूं? Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग: तरुणाई एवं विराग इन्हीं प्रश्नों में रमा-सा, सोचता रहता यहां हूं।' 'बन रहे तुम तो अभी से, दार्शनिक-से इस जगत में । 'नहीं इतने में कहीं से, हो गया मां दार्शनिक मैं ॥' किन्तु त्रिसला मृदुल बोली'वत्स, मेरे प्राश-दीपक ! एक चिर अभिलाष मेरी, क्या भरोगे कुल-प्रदीपक ॥' 'कब नहीं आदेश मा तव, कहो मैंने है निवाहा । मैं सदा निश्चित करूंगा, आपने यदि उचित चाहा ॥' ___ 'उचित' का बन्धन कहो क्या, वत्स, तुमने यह लगाया । मन-उचित क्या कहूंगी, मम, तुम्हीं में सब कुछ समाया ॥ सुत-वधू औं पौत्र-पर्शन, की हवय चिर साध साये। मान आया समय बह जब, तु सफल मम वाश कर रे॥' Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर वीर विस्मत मुस्कराए, 'मोह का यह जाल कैसा ? मात ममता प्रापको यह, कर रही जो प्रश्न ऐसा ॥' प्रागए सिद्धार्थ नप भी, इसी वार्ता के कथन में । किया सन्मति ने विनययुत, पितृ-स्वागत निज भवन में ॥ उन्हें भी दे उच्च आसन, पाप बैठे उचित थल पर । प्राप्त कर आशीष उनकी, था मुदित प्रतिवोर-अन्तर ॥ नपति बोले, 'मोह, ममता, की चली यह बात कसी। तरुणमय सन्मति तुम्हारो, फिर कहो केसी उदासी ?' कह रहे सन्मति, कि सहसा, मात त्रिसला ने कहा यों'ब्याह का प्रस्ताव रक्खा, वह अस्वीकृत किया है यों ॥ 'वत्स ! कहते ठीक तुम हो, मानता में मो यथा यह । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग प्रात्म, जग-कल्याण के हित, हुआ सच ही जन्म तव यह ॥ तुम धरोगे साधु-वीक्षा, समय पर पकने जरा दो । आदि तीर्थङ्कर ऋषभ वत, पंथ अपना भी बना लो ॥ ऋषभ स्वामी ने प्रथम तो, गृहस्थाश्रम ही बसाया । बाद में फिर त्यागकरआदर्श को भी था निभाया ॥ पिता उत्तर में कहा यों, पुत्र प्रिय ने अति विनय युत। 'ठीक, उनकी प्रायु पर थी, तीन पल्यों की सुविस्तृत ॥ किन्तु मेरी आयु उनसे, चौथियाई भी नहीं है । काल का प्रतिफलन ऐसा, अतः रुकना शुभ नहीं है। किन्तु बोली मात त्रिसला'वत्स ! क्या पूरी न होगी? माश तब माता-पिता की, क्या अधूरी ही रहेगी ? Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ तीर्थकर भगवान महावीर 'मात! अब भी मोह युत हैं, शब्द निकले प्रापके यह । मैं परिस्थितियां सभी कुछ, आपके सन्मुख चुका कह ॥ जन्म इसी प्रनादि जग में, रखे मैंने हैं अमित हो । हुये होंगे मात-पितु भी, इस तरह मेरे बहुत ही ॥ वे कहां अब, मिट गए सब, मोह किस-किस का निभाऊँ ? सार क्या संसार में अब, आपको क्या मैं बताऊँ ? देवता भी इस मनुज के, जन्म पाने को तरसते । क्योंकि नर तन प्राप्त करके, साषु व्रत हैं पाल सकते ॥' 'पुत्र प्रिय यह बात केसी, विश्व सुन्दरि नो यशोदा । गुणवती मृदुभाषिणी वह, जो बनेगी सर्व सुखदा ॥ तब सु-परिणय हित बुलाई, वह कलिंगाषिप सहित है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग: तरुणाई एवं विराम फिर तुम्हारी बात यह क्या, वस्तु-स्थित से रहित है ॥" 'व्यर्व में हो श्री पिता जी, कष्ट इतना है उठाया । बिना मेरी राय के क्यों, मापने उसको बुलाया ॥ सोचता में और कुछ हूं. कर रहे हैं माप कुछ यह । मैं घबंगा साधु दीक्षा, पूर्व निश्चय मम हुमा यह ॥ आज नारी इस जगत में, रह गई बस भोग का रस । वानप्रस्थो रख रहे हैं, मोग-हित युवतियां बश-वश ॥ हो रही हिंसा चतुर्दिक, धर्म के ही नाम पर है । मांस लोलुप व्यक्तियों का, सध रह यों स्वार्य नित है ॥ बीन पीड़ित . प्राणियों को, वेदनायें चिर कराहें । कर रही माह्वान मेरा, माज रोरव यातनायें। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर या के मिस हो रहा जो, दुष्ट जन का स्वार्थ साधन । मुझे जिसका पूर्ण करना, धर्म के ही पंथ विघटन ॥ मैं न हिंसा को मिटाना, चाहता हूँ हिल जल से। मैं बुझाऊंगा अनल यह, मृदु अहिंसा के सलिल से ॥ प्रतः मुझको इष्ट प्रब है, नहीं परिणय यह रचाना। ब्रह्मचर्यावर्श मुझको, विश्व के हित है दिखाना ॥ मूक थी त्रिशला सुदेवी, किन्तु नपवर ने कहा यों। . 'राज्य का आदर्श भो तो, तुम्हें रखना चाहिये यों ॥' किन्तु सन्मति ने कहा यों, 'राज्य तो संसार बन्धन । नित बढ़ाता और रचता, कर्म का यह जाल क्षण-क्षण ॥ राज्य लिप्सा, भोग लिप्सा, मिटी किसकी इस जगत में । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम सर्ग: तरुणाई एवं विराग ११९ मग्नि यह वह जो घषकती, हव्य हित हो हर समय में ॥ है बुझी कब प्यास तृष्णा, प्राणियों की किसी विधि मो। गहण करता सरित जल नित, तृप्त पर जल-निधि कमी भी। चक्रवर्ती मो नपति गण, कहां इस जग में रहे हैं। मृत्यु से ही हार खाकर, अन्त में जग से गये हैं ॥ भाग्य से पाया कहीं यह मनुज-तन का उचित साधन । क्यों न फिर मैं कर्म-क्षय हित, करूं मुनिव्रत का प्रसाधन ॥ इस तरह से जीव के है, छूट सकते हैं कर्म सारे । पहुंच सकता इस तरह वह, विश्व-जल-निषि के किनारे ॥' नपति त्रिशला देखते मुल. मौन आपस में हुये प्रब । कहा नप से किन्तु सहसा, राशिबर ने शान्त नीरव ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीपंकर भगवान महावीर 'प्रार्य! मब तो व्यर्थ लगता, व्याह हित इनको मनाना । ये विरागी, रोककर अब, व्यर्य इनका दिल दुखाना ॥" सुखी प्रब हो नहीं सकते, ये गृहस्पो जाल में हैं । और इनको देख उन्मन, हम न रह सकते सुखी हैं ॥" ___'शुभे कहती ठोक इनका, साम्य-ऋजुता के पगा मन । और भोगों के घृणित जग, से भगा इनका सु-चेतन ॥ नोड़ शाश्वत प्राप्ति-हित हक, है हुमा इनका सु-जागृत । दुखी जीवों को सु-करुणा दान देने को समुद्यत ॥ मपति का सुन यह सुउन्नर, राज्ञिपर बोलो स्व-सुत से । 'मैं नहीं अब रोक सकती, पुत्र प्रिय तुमको सु-पथ से ॥ किन्तु ममता एक मेरी, जग रहो है कष्ट कसे । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ पंचम सर्ग: तरुणाई एवं विराग तुम सहोगे शोत, वर्षा, प्रोम के दुख वन जैसे ॥' "किन्तु मात विवेक शीला, भूलतीं तुम इस जगत में । नर्क से दुख महा रौरव, सह चुका बहु बार हूँ मैं, __ ये न दुख उनके मयामय. मरण-जन्मों के जटिल से । फिर न मां तव पुत्र ऐसा, जो डरेगा संकटों से ॥' ___'जानती सन्मति तुझे मैं, जन्म से तू साहसो है । और तेरे धैर्य से हो, बंध रही हिम्मत मुझे है ॥ मोह का आवेग सच यह, जो कि निकले बचन ऐसे । तुम कहीं जाओ जगत में, कामना वस रहो सुख से ॥ कण्ठ भर आया सु-मां का, किन्तु साहस कर कहा यह । 'केवलो हो जब करोगे, विश्व-हित, होगा सु-दिन वह । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ तीर्थकर भगवान महावीर 'धन्य माँ भी ! धन्य' सहसा, विनत सन्मति सहज बोले । धन्य आर्यावर्श महिला, नपति मुख से शब्द निकले ॥ माव गदगद थे समी के, किन्तु नप भर श्वांस बोले । 'बस्स ! मम स्वीकृति, तुम्हारेहित सफलता द्वार खोले ॥ राज्ञि नृप किस हेतु पाए, और अब क्या हो गया है। है सु-बलिहारी समय की, यह विचक्षण क्षण नया है। ___ चिर ऋणो हूं प्रापका में, विनययुत थे वीर बोले । कहा तदनन्तर उन्होंने, परम श्रद्धा भक्ति-घोले ॥ 'धन्य पिता जी धन्य जननि मम धन्य, धन्य मावर्श ललाम । धन्य भाग्य मम मिले माप सम, मात-पिता अनुपम अभिराम ' ' Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो गया समरस सबेरा, फैलता आलोक । रागतम छिपता दिखाता, चिर विरति का लोक ॥ जागते प्रब नींद से सन्मति, कि उगता सूर्य । है लगा उनको बुलाते, साधना के तूर्य ॥ 'प्रोम् सिद्धान्त वन्दन,' शीश विनत सभक्ति । पूर्ववत् फिर जग उठी वह, भावपूर्ण विरक्ति ॥ चल पलं प्रब साधु दीक्षा, सोचते यों वीर । जिन्दगी हो पूर्ण काटू, कर्म की जजीर ॥ बन्य में जो मात-पित ने, की मुक्ति स्वीकार । मम तपस्या-प्रार्थना भी अब न सोच-विचार ॥ कर रहे जब चिन्तवन यों, वीर निज में लीन । प्रशम लोकांतिक सुरपगण, प्रागए रति-हीन ॥ मा किया बन्दन विनय युत, शांत वे मतिमान । और बोल', 'पन्य स्वामिन् पाप है धीवान ॥ आपने यह सत विचारा, है बधिर संसार। सार इसमें है नहीं कुछ, मोह का प्रागार ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ तीर्थकर भगवान महावीर मापने मुनिव्रत ग्रहण का, दृढ़ किया सु-विचार। जन्म सार्थकता मनुज को, मोक्ष का यह द्वार ॥ है न मिलता यह मनुज भव बार-बार सदैव । साधना सम्भव इसी में यहीं मिटता दव ॥ कर्म का यह प्रावरण जो, किये आत्म मलीन । साधना से यहां होते घातिका सब क्षीण ॥ आप स्वयं विवेक पालय, धन्य मानव-रत्न । जा रहे करने स्व-पर हित, प्राप्त दुर्गम यत्न ।। काम को इस तरुण वय में, कर रहे विभु नष्ट । हो रहे प्रक्रांत जग-जन, है इसी से भ्रष्ट । प्रापको सददृष्टि अन्तर दूर सब दुर्भाव । साधना के हेतु केवल, जग रहा चित-चाव ॥ मापके सद्भाव हमको, नाथ ! लाये खींच। प्राप सचमुच हैं सफल जन, छोड़ते जग-कीच ॥ देव दर्शन प्रापके कर दूर इच्छा-मार । धन्य हम सौभाग्य पाया, 'दर्श' का उपहार ॥ मापसे निर्मल हमारे, मो बने सुविचार। है सहज जिससे सदा ही प्रात्म का उद्धार । मागए सम्मति पिता-मां, वे वहाँ पर साथ। वीर सुरगण ने जिन्हें लख नत किये निज माय ॥ देव बोले-'पाप पितु-मां के उमय मावशं। धन्य, अनुमति मापने जो दी इन्हें सह-हर्ष ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १२५ ये धरेंगे साधु दीक्षा, आत्म में क्रियमाण । आत्म हितकर ये करेंगे, विश्व का कल्याण ॥' मौन थे सन्मति कि बोले, भूपवर सिद्धार्थ । 'यह समझ हमने न रोका, स्व-पर कल्याणार्थ ।' 'आप हैं मतिमान नपवर दूरदृष्टा विज्ञ । है तभी इनको न रोका, प्राप देव न अज्ञ ॥ देवगण ने नृपति-उत्तर में कही यह बात । फिर कहा-'अब जा रहे हम स्वर्ग को अवदात ॥' और तदनन्तर किया फिर, भक्ति सहित प्रणाम । नृपति, रानी, वीरवर को, सुर गये निष्काम ॥ बाद लोकांतिक-गगन के, सुदृढ़ वीर विराग । जग गया अब तो हृदय में, भाव समरस त्याग । वीर बोले--- 'पूज्य पितु-मां, करूंगा प्रस्थान । सोचता निज वस्तुओं को मैं करूं सब दान ॥ नृपति बोले ठीक है यह, दान को सदवृत्ति । सोचते हम और भी कुछ दान दो सम्पत्ति ॥ भूप त्रिशला, वीर के अब, इस सु-निश्चय रूप। दानशालाएं गई खुल, बहुत वृहत अनूप ॥ मुक्त हाथों बट रहा है, दान चारों ओर । दान-द्रव्यों का न फिर भी, आ रहा है छोर ॥ पुस्त अब दर पुस्त तक को, प्राप्त सबको द्रव्य । चल रही चर्चा चतुर्दिक, दान यह तो मव्य ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो ... १२६ तीर्थङ्कर भगवान महावीर वीर के वैराग्य का भी, प्रकट पुर में वृत्त । मोहवश व्याकुल हुए सब, नगर जन मृदु चित्त ॥ किन्तु सन्मति सौम्य मुद्रा, हृदय अति गम्भीर । निकट जिनके मोह युत जन, विगत मोह-समीर ॥ जब चले सन्मति विपिनि को, साथ उमड़ी भीड़। ज्यों कि पंछो जा रहे हों, छोड़कर निज नीड़ ॥ करुण सागर-सा उमड़ता जा रहा चहुं ओर । मन व्यथित-से दिख रहे जन दुख रहा झकझोर ॥ वोर आकर्षण-खिचे से साथ जाते व्यक्ति । रोकने पर भी न रुकते वीर प्रति अनुरक्ति । पगे उनमें जा रहे हैं, तरुण बालक बृद्ध । मोह तज पर वीर जाते, हृदय करने शुद्ध ॥ किंतु नायक का भला क्यों, व्यक्ति तज दे संग? चिर सहायक व्यक्ति को क्यों प्रीति कर दें भंग? जब कि पहुंचे नगर बाहर, लौटने के अर्थ । कहा सन्मति ने विनय युत, किंतु सब कुछ व्यर्थ ।। साथ आये विदा करने मात-त्रिशला भूप । वचन कहने को समुद्यत, कण्ठ गद्गद् रूप । अतः समरस शान्त सन्मति, ने कहा गम्भीर । 'दूर पुर से आगए अब, लोटिये धर धीर । योग और वियोग का तो, इस जगत में खेल। कब रहा संयोग सब कुछ, काल देता ठेल ।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १२७ प्राप ज्ञानी सोचिये यह, मोह का उद्वेग । जो विकल कर रहा सबको, त्याज्य वह आवेग ॥ नपति ने साहस सहित तब, कहा-'नागर बन्धु ! व्यर्थ अब तो है बढ़ाना, मोह का दुख-सिन्धु ।। जा रहे यह तो सु-पथ पर, है न दुख की बात । चिह्न इनके त्याग के कुछ, जन्म से ही ज्ञात ॥ प्राज माया समय वह जब, यह रहे सब त्याग । जा रहे क्रियमाण करने, सफल विश्व विराग ।। भूप को यह बात सुन कर, मौन थे सब लोग । दिख रहे अति तुच्छ सबको, अब जगत के भोग ।। मात त्रिशला ने कहा तब, धार उर में धीर । 'तुम सफल हो कामना बस, यही अन्तिम वीर ॥ 'धन्य श्री माता-पिता तव ज्ञान पूर्ण विवेक । धन्य मैं हूं आपको पा, सफल जन्म अनेक ॥ क्षमा त्रुटियाँ कीजिये सब, सब जान अपना बाल।' . कर रहे जब बात यह सुर पा गए तत्काल ॥ पुष्प वर्षा हुई नभ से, वीर का जयनाद । प्रति-ध्वनित तब किया सबने, गुञ्जरित सुनिनाद ॥ किंतु समरस आत्म-दृष्टा, वोर ने सविवेक । सौम्य अमृत-रस-घुले-से, कहे शब्द कुछेक ॥ 'सूर्य ढलता जा रहा अब, लौटिये जन-बन्द । • तोडिए अब तो सु-जन जन मोह के दृढ़ फंद ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर धार तदनन्तर उन्होंने, मां-पिता प्रति भक्ति । किया अतिम विदा वादन क्षीण ममता-शक्ति । दिया आशिष मां-पिता ने, 'हो सफल मम पुत्र ! लक्ष्य हो तव पूर्ण जीवन-का खिले शतपत्र ॥' शेष पुरजन से विदा भी, मांग कर श्री वीर । थे समुद्यत वन-गमन को, हृदय प्रति गम्भीर ॥ इन्द्र ने इतने समय में, पालकी अभिराम । की उपस्थित था कि जिसका, चन्द्रप्रभ शुभ नाम ॥ वोर किञ्चित मुस्कराये, ओर वोले 'इन्द्र ! कष्ट इतना कर रहे क्यों, आप सौम्य सुरेन्द्र !' इन्द्र बोला- प्रापका यह सुभग-सुकृत-प्रभाव । जो कि मेरे हुए पाने के यहाँ सद्भाव ॥ राज्य जिसके लिए करते व्यक्ति हैं उत्पात । भरत-बाहूबली कि जिसके हित लड़े हो भ्रात ॥ तथा कैकेयी जननि ने, स्व-सुत-हित कर प्राश । दिया रघुबर को चतुर्दश, वर्ष का बनवास ॥ महाभारत का समर भी, राज्य के ही अर्थ । हुआ जिसमें हुए अगणित, दर्दनाक अनर्थ ॥ उसे छिनकी रेंट-सा तज, जा रहे हैं पाप । देव ! इससे और गुरुतर बात क्या निष्पाप ॥ धन्य है निज भाग्य पाया, जो कि ऐसा योग । मापके दर्शन सुभ षा, का मिला संयोग । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १२६ इन्द्र आग्रह देखकर, श्री वीर बैठे शांत । चन्द्रप्रभ पालकी भीतर, सौम्य अद्भुत कांति ॥ हुए जय के नाद सहसा, गुञ्जरित भू-व्योम । उच्च यह उद्घोष, बोले ज्यों सभी के रोम ॥ श्याम दशमी माह मगसिर, की सु-सांध्य ललाम । चल दिए बन पालकी में, वीरवर निष्काम ॥ और लौटे स्व-पुर नागर, नपति राज्ञी साथ । किन्तु त्रिशला-नन्द सन्मति, अब न उनके साथ ॥ थी विचित्र दशा सभी की, जा रहे मतिमान । कभी आकुल कभी समरस, जान कभी अजान ॥ उधर समतापूर्ण सन्मति, जा रहे गतिमान । ज्ञातृखण्ड-सुविपिन पहुंचे, कामहत धृतिवान ॥ हुए त्यागी त्याग भूषण, वस्त्र वे दिग्वेष । और लुचित किए सारे, पंचमुष्ठी केश ॥ 'ॐ नमः सिद्ध भ्यः' कह वह शिला पर शांत । मुख किये उत्तर विराजे, वीरवर सम्भ्रान्त ॥ सांध्य का ढलता समय यह, स्वर्ण सा स्वयमेव । विनय वंदन कर गये वे, स्वर्ग को सब देव ॥ अब परिग्रह का न सन्मति-पर रहा कुछ लेश । मान, माया, लोम, रति, भय आदि सब निःशेष ॥ सूर्य अस्तंगत हुमा-सा, फैलता तम-जाल । वीर थे पर साधना-रत, भूल सब जग-हाल । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० तीर्थङ्कर भगवान महावीर वे वहाँ बैठे प्रचल-से, मूक नीरव गात । ध्यान ही साकार हो ज्यों ध्यान में निष्णात ॥ आत्मिक सत् दृष्टि उनको, बाह्य दृष्टि विहीन । आ रहे अब हैं न उर में, भाव कियत मलीन ।। सघन होती जा रही है, अब अधेरी रात । किन्तु सन्मति के लिये यह, है न भय की बात ॥ वे नहीं उद्विग्न किञ्चित, कर रहे कुछ याद । ले रहे वे तो अलौकिक आत्म का सुख-स्वाद ॥ समय जैसे बढ़ रहा है, जम रहा है ध्यान । वीर का अन्तर्जगत है शांत साम्य महान ॥ ध्यान में आरूढ़ इनको देख कुछ निष्पन्द । तारिकाएं क्या गगन में मुस्कराती मन्द ॥ किंतु सन्मति के नयन तो, रूप जग से बंद । वे न सुनते अब तनिक भी. लोक के छवि-छंद ।। म ख-प्यास न तनिक उर में. कर सकी कुछ खेद । भल कर सब ध्यान में रम, भाव हैं निर्वेद ॥ रात पाई ज्योंकि इन को, जो ढराने हेतु । जा रही निष्फल न पाया चिर विजय का केतु ।। छा रही प्राचो क्षितिज पर, लालिमा मुस्कान । रवि उदय की स्वर्ण किरणें, फैलती अम्लान ॥ कर रहों जो वीर का ज्यों, हैं सुभग अभिवाद । किंतु सन्मति लीन योगी दूर हर्षविषाद ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १३१ सूर्य-किरणालोक में मुख, कांति पूर्णापूर्व । साम्य-दिनकर ज्योतिमय-सा, छवि न ऐसी पूर्व ॥ फुदकते से गा रहे अब, खग प्रभाती गान । किन्तु सन्मति को न कुछ मो, लोक का है भान ॥ तीन दिन के ध्यान का था, शुभ किया संकल्प । एक आसन में वहीं दृढ़, कर रहे अविकल्प ॥ भ्र न हिलती दृष्टि भो थिर-नाशिका के अग्र । प्राधि व्याधि उपाधि उनको, कर न पाई व्यग्र ॥ समय भगता जा रहा है, ध्यान में वे लीन । कर्म का प्राना रुका हैं, ऐषणाएं क्षीण ॥ हो गई पूरी अवधि अब, तीन दिन की सर्व । दृग प्रशम वे पारणा-हित, चल दिए बिन गर्व ॥ समिति ईर्या पालते वे, जीव-रक्षा-भाव । दव न जा जतु लघु भो, हा न उनके घाव ॥ बिन निमंत्रण हो चले वे, पारणा के अर्थ । ध्यान उनको निज क्रिया से हो न घटित अनर्थ ॥ जा रहे उस प्रोर अब वे, है जिधर कुलग्राम । ज्ञात कुलनायक जहाँ के भूप का है नाम ॥ कुल नपति ने भक्तियुत हो कर सविधि सु-विचार। था दिया सम्मति सु-मुनि को, क्षीर रस आहार ॥ कर रहे जब पारणा विम, देव दुन्दुभिनाद । पुष्प-वर्षा, रत्न-वर्षा और जय जय नाद ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ तीर्थङ्कर भगवान महावीर हो उठा सहसा वहां पर, दिव्य यह सौन्दर्य । लो बहा सुरभित मरुत भी, पञ्च ये प्राश्चर्य ॥ धन्य कुल नृप ने दिया जो, शुद्ध शुभ प्राहार । वोर से सत्पात्र मुनि को, धन्य यह सत्कार ।। पारणा पश्चात लेकिन, बन गए मुनि वीर । साधना में रत हुए जा, वे कहीं धर धीर ॥ ध्यान करते एक स्थल पर, तीन दिन गम्भीर । फिर भ्रमण कर दूसरे थल, जा पहुचते वीर ॥ इस तरह दृढ़ मोह बन्धन, हो न पाते पुष्ट । इस तरह सम प्राय रहता, सौम्य जीवन-पृष्ठ ॥ किन्तु वर्षा काल में वे, एक ही हो स्थान। चार मासों तक निरन्तर, साधते हैं ध्यान ॥ हो विराधित नहीं जिससे, जोव-राशि अपार । कीट-कृमि, तरु-घास का जो, रूप लेती धार ॥ और जिससे कर्म प्राश्रव, हो न कुछ अनजान । इसलिये करते न मुनिवर, अन्य स्थान प्रयाण ॥ वीर करते साधना सब, भूल जग-जंजाल । यातनायें भी न उनको, कर सकी बेहाल । म ख को पोड़ान उनका, कर सकी कुछ ह्रास । मास छः छः मास के वे, माड़ते उपवास ॥ पर क्षधा भी थी न उन पर, पा सको कुछ जीत । क्षीण होता था कलेवर, पर न मन भयभीत ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : मभिनिष्क्रमण एवं तप १३३ आत्म-दृष्टा जानते वे, नाशवान शरीर । मात्म निज शाश्वत सदा ही, फिर बनूं न अधीर ॥ इसोविधि हो सोचकर वे, जीतते हैं प्यास । सूखता जब कण्ठ होते, तब न तनिक उदास ॥ वेदनीय दु-कर्म का यह, जानते विस्तार । है जिसे करना उन्हें यों, प्रात्म से ही क्षार ॥ जब कि जाड़े हैं कड़ाके की गिराते शोत । सिकुड़ते जन जब कि कहते, 'है विकट यह शीत ॥' जब कि जमती नदी, होती उपल को भी वृष्टि । जब नहीं कोहरे को भी, पार करती दृष्टि ॥ अग्नि की जब शरण लेते, वस्त्र पहने व्यक्ति । और सी-सी तदपि करते, स्व-तन में अनुरक्ति ॥ योगि सन्मति सरित-सर-तट, माढते तब योग । पूर्व के यों कर्म-मल का मेटते संयोग ॥ और जब है प्रीष्म पाती, भूमि बनतो तप्त । सूखते सर-नदी-नाले, सलिल होता लुप्त ॥ सूर्य किरणें ज्वलित शोलों-सी बरसती उग्र । विहग भगते छोड़ अण्ड, प्यास में अति व्यग्र ।। जब कि चलतो अनल-सी लू, झुलसता संसार । जब न करते मनुज, पशु, खग एक पग संचार ॥ वीर तब संतप्त गिरि-शिर, धारते हैं ध्यान । कर्मा के समिधि को, दग्ध करते जान ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ तीर्थकर भगवान महावीर डांस, मच्छर, कनखजूरे, सदा देते त्रास । पर न सन्मति कमी भरते, दुख भरा उच्छ्वास ॥ शेर चीते लकडमग्गे, हिंस्र जन्तु बिहार । कर न पाता कभी उनमें, भीति का सञ्चार ॥ सौम्य मुद्रा और उनका, परम ऋजु प्राचार । सर्वहित करुणा सभी में, वैर करती क्षार ।। कहीं मच्छर काट ले तो, व्यक्ति कहते 'क्लेश' । वीर होते पर न बेकल, लोक-बुद्धि न शेष ॥ बाह्य-भीतर से परिग्रह, ग्रन्थि-हत दिग्वेष । वासना के चिह्न उनमें, थे न किंचित शेष ॥ बाल से वे निर्विकारी, कामनाएं भूल । नग्न रहते परिग्रह तज, दुःख का जो मूल ॥ वासना रहती हृदय में, और बाहर लाज । धर न पाता अतः दीक्षा नग्न लोक-समाज ॥ किंतु सन्मति आत्म-शासक, विगत इच्छा काम । मानवी कमजोरियों पर, विजय वे अभिराम ॥ योग और वियोग में वे सदा समरस भाव । परतिमय उनका हृदय-मन, प्रशम सम्यक् भाव ॥ मोहनीय चरित्र कर्मावरण यों चकचूर । किया करते नित्य सन्मति, यत्न यों भरपूर ॥ रमणियों में वानप्रस्थी, भी बने अनुरक्त । बातक्या फिर अन्य की पर वीर पूर्ण विरक्त । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १३५ रूपसी-सौन्दर्य वैभव, पर न सन्मति मुग्ध । धवल उनका चरित पावन, श्वेत-सा ज्यों दुग्ध । वीर चर्या के विकट दुख. भोगते सम-भाव । घूमते जो पालकी में, आज नंगे पांव ।। मार्ग कंकड़ और पत्थर, शूल से आकीर्ण । अभय चलते पैर होते, कहीं पूर्ण विदीर्ण ॥ किन्तु सन्मति को न इसकी, ओर कुछ भी ध्यान । निरत होते साधना में, हृदय ऋजु अम्लान ॥ साधना में एक आसन में सदा आसीन । कभी बिचलित वे न होते, कष्ट के प्राधीन ॥ एक प्रासन माढ़ लेते, गिरि सदृश निष्कम्प । चलित उनको कर न पाता, प्रबलतर भूकम्प ॥ कमी हैं वे खड़े होते, अचल कायोत्सर्ग । निर्जरा करते प्रशम सह. प्रबल कटु उपसर्ग ॥ फूल-सी मृदु सेज पर जो, शयन करते नित्य । तथा जिनकी व्यवस्था में, लगे रहते भृत्य ॥ अब कभी वे रात भर भी, शिला पर आसीन । भूलकर विश्राम, रहते प्रात्म-चिन्तन-लीन ॥ कमी पिछले प्रहर निशि में, सजग सोते शान्त । एक करबट से सदा वे, पर न किचित क्लान्त ।। वेदनीय दु-कर्म का यों, मेटते वे लेख । और निर्मल प्रात्म-पद को, खींचते हैं रेख ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ तीर्थकर भगवान महावीर कोप का आवेग उनको, कर न पाता उग्र । शान्त हृदय पयोध-सा होता न कुछ भी व्यग्र ॥ कोप-कारण भी न उनमें, उगा पाता क्रोध । क्रोध-अवसर पर सदा बे, हृदय लेते शोध ॥ सबल होकर भी न उनमें, दृष्टिगत आक्रोष । साधु जीवन का सु-सहचर, हैं सुभग सन्तोष ॥ अन्य लेकिन कोप के वश, उन्हें देते त्रास । पर न बदला-क्षोभ से वे, छोड़ते निश्वास ॥ द्वेष या अजान के वश पीटते जब लोग । पूर्व अघ-हत-समय सन्मति समझ धरते योग । महा भीषण यातनाए', क्रूर वज्र प्रहार । डिगा न पाते पर न उनको, दुष्ट कष्ट अपार ॥ मांगते किश्चित नहीं व, किसी से कुछ द्रव्य । गुरु अभावों में प्रशम व साधना यह दिव्य ।। भूख का प्रावेग हो या हो जटिल तमः प्यास । याचना फिर भी न करते, शांत सहते त्रास ॥ याचना करना बहुत ही दूर की है बात । मांगने के भाव तक को, लग न पाती घात ॥ पारणा में यदि कभी भी, हुमा पूर्ण अलाम । तो न व उद्विग्न मुख पर पूर्ववत अमिताभ ॥ अन्तराय दुकर्म का यह जानते परिणाम यों न कहते कुछ किसी से, अन्तरंग अकाम ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १३७ खेद किश्चित भी न करते, भाव से गम्भीर । और लाभालाम में यों, सौम्य समरस वीर । यदि असाता के उदय में, होगई कुछ व्याधि । तो न वे तजते कभी भी, आत्म-योग समाधि ॥ रोग का प्राक्रोष उनमें ला न पाता शोक । मग्न निज में प्राप्तकर कुछ, आत्म-निधि का लोक ॥ वेदना के कर्म को वे किया करते ध्वस्त । प्रात्म से तन भिन्न लखकर, आत्म-चिन्तन व्यस्त ॥ गमन करते कहीं चुभता, फेर में यदि शूल । तो न उसको व्यथा में कुछ, सोचते प्रतिकूल । आंख में तिनका पड़ा तो, है न कुछ परवाह । चोट लगने पर तनिक भी, हैं न करते प्राह ॥ जान तन को मिन्न निज से, भूलते दुख-मार। ध्यान में ही लीन रहते, आत्म-कोष निहार । मैल जम जाता स्व-तन पर, पर न करते ग्लानि । लीन तप में वे न पाते, प्रात्म-निधि की हानि ॥ डाल दे यदि घल कोई, तो न गे उद्विग्न । स्वच्छ कोई तन करे तो, मो न सुख में मग्न ॥ भग्न उनका मान कर दो, तो न कुछ परवाह । मान पाने की न उनमें, उमगती चित चाह ॥ सोचते व यों न, है मम उच्च तप बल ज्ञान । विश्व जन अब तो करें मम अष्टतम सम्मान ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ तीर्थकर भगवान महावीर मान या अपमान को यों, है न कोई वृत्ति । सौम्य समतामय सादा ही पंथ है निवृत्ति ॥ प्रौढ़ प्रज्ञा भी न उनमें, ला सकी अभिमान । ऋद्धियों या सिद्धियों का, भी न उनको भान ॥ ज्ञान पाते जा रहे लेकिन, न करते गर्व । विश्व-जन लघु ज्ञान पा भी फूलते हैं सर्व ॥ कर रहे तप दृढ़ जटिलतम, पूर्ण करने ज्ञान । पर न केवल ज्ञान पाते, हैं न व भ्रममान ॥ सोचते प्रज्ञानकर्ता, कर्म हैं बलवान । तप न जिसको नष्ट करता, और दृढ़ हो ध्यान ॥ अतः ज्ञानावरण-कारक समिधि प्रबल अपार । सबल तप-ज्वाला जलाकर, उसे करते क्षार ॥ धर्म-पथ वे चल रहे जो, प्रात्म वस्तु स्वरूप । वन शङ्का कियत करते, सत्य श्रद्धा रूप ॥ धर्म करते चपल जग-जन, स्वार्थ से संलग्न । प्राप्त फल होता न, होते, तो न तोष-निमग्न ॥ होन साधन पर न करते स्वयं शांत विचार । धर्म को दोषो बतात', भ्रष्टतम प्राचार ॥ पान सन्मति सिद्ध, लात पर न तुच्छ विचार । मात्म अन्वेषण किया करत स्व-त्रुटि परिहार ॥ दृढ़ तपस्या और करते कर्म करने विद्ध । मात्म निर्मल कर उन्हें तो, आप होना सिद्ध ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १३६ एक दिन ध्यानस्थ संन्मति, पास ग्राम कुमार । बैल लें आं रहा कोई, ग्वाल मग्न विचार ॥ कार्य इसको याद कोई, आ गया तत्काल । देख सन्मति को वहां तब, शोघ्र वोला ग्वाल ॥ 'जा रहा मैं गांव को हूं-कार्य है अनिवार्य । देखना मम बैल, प्राता पूर्ण कर निज कार्य । मौन पर सन्मति न बोले-ध्यान में रत भाव । समझ सम्मति छोड़ युग वृष, वह गया निज गांव ॥ बैल लेकिन हुए प्रोझल, कहीं चरते घास । ग्वाल आया तब न देखे, बैल सन्मति पास ॥ ध्यान में रत वीर अब भी, ग्वाल पर अति ऋद्ध । सोचने वह कुछ लगा विन, बैल वह हतबुद्ध ॥ दूर तक वह देख पाया, खोज पर सब व्यर्थ । कह रहा उसका हृदय 'यह हाय महा अनर्थ ॥ बिना बैलों के न मेरा, चल सकेगा काम । खांयगे क्या बाल मेरे, मात्र प्रभु का नाम । मासता कुछ बैल मेरे, ले गये हैं चोर । क्या इसी का ढोंग, चोरों का यही शिरमौर ॥ छमवणे घात में रहता यहां दिन-रात । चोर चेले ले सटकते, माल ऐसी बात ॥ देख अब भी बल दे दे, है नहीं कुछ बात। अन्यथा सहनी तुझे होगा प्रबल प्राघात ॥' Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० तीर्थकर भगवान महावीर मौन व्रत में लीन उत्तर में अतः निःशब्द । ग्वाल उत्तेजित हुआ कहने लगा अपशब्द । कान में ठोका नुकोला, दण्ड जब सुविशाल । पर निरर्थक बज्र-तन में, वे अचल उस काल ॥ वेदनाकृत कर्म सश्चित, कर रहे यों नष्ट । ग्वाल भी आश्चर्ययुत-सा, देख तप में निष्ट ॥ बैल उसको कुछ दिखाए, झाड़ियों के पास । पर रहे गरदन झुकाये, जो हरित-सी घास । झट-गया बलों निकट वह, भूलकर सब कृत्य । कर रहा परिताप अब वह, 'क्यों किया दुष्कृत्य ?' बल ले आया जहाँ पर, वीरवर ध्यानस्थ । शीघ्र ही उसने निकाला, दण्ड जो श्रवणस्थ ॥ फिर क्षमा की याचना की, ग्वाल ने नत शीश । पर तपस्या लीन सन्मति, द्वेष विगत मुनीश ॥ एक दिन सन्मति चले श्वेताम्बि थल की ओर । भूमि पर थी दृष्टि उनकी शोधते हर और ।। जा रहे कारुण्य उर में, सौम्य नीरव गात । ग्वाल-बालों ने कहो तब, तब मार्ग में यह बात ॥ 'देव ! करिए इस न पथ पर, पाप तनिक विहार । मार्ग में है घण्डकौशिक, सर्प का सञ्चार ॥ दृष्टविष इस सर्व कारण, भस्म होते नीव । विष भरा वातावरण सब, विषमयी निर्जीव ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aur m सd. wata - . Pandit in . ..: : क ' . ::.' . '- '... " ': ' . . P . . . .. . 4MA 4. ... चण्ड कौशिक मर्प इनको, देख कद्ध अपार । भर उठा भीषण धृपा-सी, विषमयी फुकार ॥ लो. विपैला हो गया थल, वृक्ष का पतझार। कर मका पर प्रात्म-योगी का न वह अपकार ।। और इस पर क द विपधर, जान अपनी हार । बह चला करने जटिलनम, दन्त का दुर्वार॥ पर न इममे नच मकी वह प्रात्म-गक्ति प्रसौम । योग में सब शान्त होते पण चलिस निस्सीम ।। Page #168 --------------------------------------------------------------------------  Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप ११ जबकि भरता वह भयंकर, प्राण-हर फुफकार। 'तवं विहग, पशु और नर-तन, शीघ्र होते क्षार ॥ इसलिए उस पोर जाता है न कोई पात्र । जा सकी उस ओर बस वह, वायु गतिमय मात्र ।' बोर किञ्चित मुस्कराये, फिर हुए गतिमान । प्रान्त वह करने अभय वे. चल दिये तिवान ॥ सोचते-विषधर भयङ्कर, किन्तु है बलवान । क्रूरता उसको नशे तो, हो अमित कल्याण ॥ प्राणियों के ध्वंश में जो, शक्ति होती नष्ट । वह न बदली जा सके क्या, प्रात्म, जग के इष्ट । मैं डरूं क्यों आत्म चिर है, देह जड़ है और। 'जो कि निश्चय नष्ट होगी, काल का है कौर ।' 'सोचते यों हो गए उस, मार्ग पर प्रतिवीर । नाग-बिल सनिकट जा तप-रत हुए गम्भीर ।। 'चकौशिक सर्प इनको, देख कुद्ध अपार । भर उठा भीषण धुआं-सो, विषमयो फुकार ॥ लो विषला हो गया थल, वृक्ष का पतझार । कर सका पर आत्म योगो, का न वह अपकार ।। और इस परं कुद्ध विष घर, जान अपनी हार । वह चला करने जटिलतम, दन्त का दुर्वार॥ पर न इससे लच. सको वह प्रात्म-शक्ति प्रसीम । योग में सब शान्त होते, अणु ज्वलित निस्सीम ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ तीर्थङ्कर भगवान महावीर देख निष्फल सर्व निज बल, वह हुआ हत बुद्ध । देखता सन्मति सु-मुख को, जोकि ऋजु शम शुद्ध । वह विनत फण भक्ति जागी, वीर प्रति अभिराम । सुन रहा कुछ शब्द ज्यों अब, कर्ण में निज. नाम । "भव्य प्राणी पूर्व दुष्कृत, वश हुए तुम सर्प । छोड़ दो सब क्रूरता तुम, छोड़ दो अब दर्प ॥ यों करो कल्याण अपना, आत्म का उद्धार ।' देखता वह कर रहे अब, योगिराट विहार ॥ और इस दिन से कभी वह, है न होता ऋद्ध । सत्प्रकृति उसकी दिखाई दे रही अविरुद्ध । फिर गये उस प्रांत सन्मति, लाढ़ जिसका नाम । साधना में रत हुए, वे मौन हैं निष्काम || बस रहीं कुछ जातियां हैं, हिंस्र . दुष्टानार्य । वे समझती.शत्रु उनको, जातियां जो आर्य । देख सन्मति को वहां पर. ऋ र जन प्रति क्रुद्ध । कर उठे दुष्टाचरण वे शीघ्र वीर विरुद्ध । 'एक दिन तो वीर पर छोड़े शिकारी इवान । पर न किञ्चित वोर चंचल, वे निरत निज ध्यान ॥ और जितने त्रास सम्भव, दे रहे सब क्रूर । अन्त में देखा कि ऋषिवर, द्वेष से पर दूर ॥ भूल सहसा हो गए वे, करता का भाव । दिख रहामा तो अहिंसा प्रति हुमा कुछ चाव।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १४३ वीर की यह साधना, सम भाव होती मूक । पर सुनाई है यहाँ पढ़ती मनुजता-कूक ॥ जिन भ्रमण में वीर कौशाम्बी नगर के पास । शान्त पहुंचे घूमते वे, मेटते जग-त्रास । सौम्य कौशाम्बी नगर में, पारणा के अर्थ । थे चले सन्मति सकारण, घूमते न निरर्थ । देख महिला दुर्दशा, दासत्व का उपहास । नारियों का बेचना, हा! यह मनुज का ह्रास ॥ वीर ने ली यह प्रतिज्ञा, आज का आहार । मैं करू दासी तिरस्कृत, के यहां स्वीकार ॥ जो कि बन्धन में पड़ी हो, शिर मुड़ा बिन बाल । मूक रोती-सी कि जिसका, हो दुरा यों हाल ॥ पौर कोदों नाज का बस, दे मुझे प्राहार । आज उसका भक्तियुत, स्वीकार हो उपहार ॥ जा रहे प्रब वीर पुर में, बोलते जय लोग। सोचते आहार देने का मिलेगा योग ॥ किन्तु राजा और सेठों के ग्रहों के द्वार । बोरवर है छोड़ जात, प्राज तो हर वार॥ चन्दना दासी कि जिसके, थे मुड़े सब केश । सेठ वृषभसेन-पत्नी ने किया दुर्वेश ॥ बन्धनों में ग्रस्त दुखिया, सुन रही जयकार। पारगा-हित वोर समझी, पा रहे इस द्वार ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर भाव .. स्वयमाहार देने, के हुए उत्पन्न । किंतु उसके पास था वह, मात्र कोदों अन्न । पारणा लेकिन कराने का किया सु-विचार । भक्तिवश प्राहार देने, को खड़ी: तंबार ॥ पूर्ण हर्षोल्लास मुख पर, दिख रहा . सुखपूर्ण । वीर पाये इस तरफ भी, शान्ति शम-परिपूर्ण । भक्ति से पड़गा उठी वह, .सौम्य श्रद्धाभाव । विभु रुके क्षण बढ़े · फिर वह, कौन सा दुर्भाव ? रो उठो अब चन्दना, बह कोमती निज माग्य। दे न वह आहार पाई, कौन-सा दुर्भाग्य ? वीर ने जा. दूर देखा, : घूम पीछे-पोर । रो रही वह चन्दना है, दुख रहा झकझोर ॥ शीघ्र लौटे वीर स्वामी, · पूर्ण . रुदनामाव । निन प्रतिज्ञा रूप प्रब तो, विस रहे सब भाव ॥ वीर लेने को.. समुद्यत; इसलिए माहार । बेड़ियां सब आप टूटी, पुण्य का संचार ॥ कर रहे हैं पारणा अब, बीर समता माव । दिव्य' पाश्चर्य दर्शित, यह सु-कृत सद्भाव। माज दासी हाच प्रभु ने, नो लिमा प्राहार । हो गई यो क्रान्ति जग में, दोन महिनोदार,॥ बोरवर लेकिन मए बन, सापना के हेतु । बांधने वे इस जगत से, मुक्ति तक का सेतु ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. M AJARE HTFUL 4 1- TER नन्दना दामो कि जिसके थे मटे व के.ग । मट वृष मेन-पन्नी ने किया दुवंग ॥ बन्धनों में पड़ी दग्विया, मन मही जयकार । पारगा दिन-वीर. मममी पा रहे हम हार ॥ भाव स्वयमाहार देने के हा उत्पन्न । किन्तु उसके पास था वह मात्र कोदो अन्न ।। वीर लेने को समुद्यत भक्तियुत अाहार । बेडियां मब पाप दी पुण्य का संचार ।। x:: . .xx प्राज दामी-हाथ प्रभ ने जो लिया ग्राहार। हो गई यों क्रांति जग में दोन म.िलोदार ॥ Page #174 --------------------------------------------------------------------------  Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १४५ एक... दिन गंया . नदी के, रेत पर से वीर । एक तरु.के पास पहुंचे, , ध्यान धरने धोर ॥ खिच पए सिकता धरणि पर, आप युग पग-चिह्न । ज्योतिषीं निकला जहाँ से, देखता ये चिह्न ॥ नाम था पुष्पक कि जिसका, रेख पग को देख । सोचता यह . चक्रवर्ती, भूप जैसी रेख ॥ और फिर पुस्तक निकालो, जो बगल में साथ । देखता उससे मिलाकर, पुस्तिका निज हाथ ॥ चक्रवर्ती के. चरण ये, थेचे सब मानि । सोचता मला स्व-पथ है, वह मिले किस मॉति ॥ प्राप्त यदि मैं उसे कर लूं, लाभ लूं मैं साथ । पदि हुआ चक्रोश नृप वह, मिले द्रव्य प्रगाध ॥ यदि न वह चकोश प्रब तक, तो कह कुछ यत्न। और-उसको मैं बनाऊँ-विश्व प्रधिपति-रत्न ॥ इस तरह कुछ हाथ माए, ज्योतिषो यों सोच । चल दिया वह खोजता पग-चिह्न ले विन शोच ॥ देखता पग-चिन्ह जिसके, ध्यान में वह लोन । बाजुओं पर चक चिन्हित, वस्त्र से पर होन ॥ और माथे पर बना भी है मुकुट का रूप । "मिक्ष यह कहता हृदय में, 'हो न सकता भूप ॥' और वह निज पुस्तिका को, ध्वंश करने पर्थ । है समुद्यत, एक दर्शक देख बोला-'व्यर्थ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ तीर्थङ्कर भगवान महावीर फाडते क्यों बन्धु ! पुस्तक-क्या हुई है बात ?' 'क्या बताऊँ मित्र !' बोला, ज्योतिषी निष्णात ॥ 'ग्रन्थ है यह भ्रांत यों मैं कर रहा हूं भग्न । प्रन्थ के अनुसार तो यह व्यक्ति जो हैं नग्न ॥ चाहिए चक्रोश होना, पर नहीं यह बात । सत्य हो सकती कभी भी, यह यहाँ पर ज्ञात ॥' किंतु दर्शक ने कहा-'ठहरो तनिक मम मित्र । व्यर्थ ही मत नष्ट कर दो, ग्रन्थ के सब पत्र । नग्न भिक्षुक ये सुनों हैं, कुण्डपुर-युवराज । तुच्छ इनके सामने हैं, सब जगत का राज ॥ धर्मचको ये बनेंगे-तीर्थ के कर्तार । ये विचक्षण व्यक्ति जग में, शांति के प्रागार ॥' वृत्त सुन उसको अचंभा-सा हुमा विन माप । लौट निज पथ पर गया तब ज्योतिषी चुपचाप ॥ वोर पहुंचे एक दिन थे, घूमते उज्जैन । साधना में लीन, कहते हैं न कुछ भी बैन ॥ नाम प्रतिमुक्तक कि जिसका, शव-दहन संस्थान । योग प्रतिमा में वहां पर, थिर हुए धर ध्यान । स्वर्ग में इस ही समय पर थी चली यह बात । वीर-सा कोई न जग में, ध्यान में निष्णात ॥ सुन न पर भव रुद्र इस पर, कर सका विश्वास । वह परीक्षा हेतु आया, कर उठा बहु त्रास ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १७ हां प्रथम उसने बहुत ही, दैत्यगण विकराल । थे रचे निज शक्ति माया, से कुडौल विशाल । कष्ट जिनसे दे अमित हो, हो न पाया तुष्ट । चिघता हाथो दिखाया मारने को दुष्ट । पर न इससे वीर अस्थिर, शान्त दृढ़ गम्भीर । प्रात्म-दृढ़ता में जड़े-से, व्यर्थ दुःख समीर । किंतु इससे देख वह, भव रुद्र ही प्रति ही उन । कर उठा उत्पात दुस्तर वीर वर के अग्र ॥ शीत की ऋतु और उसने, प्रति किया हिम पात। पर रहा निष्कम्प ऋषिवर का प्रबलतम गात ॥ और तब उसने बहाया, तेज झंझाबात । मेघ गरजन, विद्यु तड़पन और वर्षा-घात ॥ सर्प विच्छू कनखजूरे, जन्तुओं के बार। क्रूर मायावी उपस्थित, ध्यान करने क्षार ॥ किन्तु इससे योगि सन्मति, हैं न अस्थिर चित्त । सह रहे उपसर्ग निश्चल शान्ति समता वृत्ति। रुद्रवे सब कृत्य निष्फल, देख सोची बात । चाहिये करना मुझे अब, नीति का प्राघात ॥ इसलिए ही मात त्रिशला, का रखा निज रूप। प्रौर माया पास उनके, छलमयो घर रूप ॥ प्रवेषी सुष्ठ बोला-'आह ! मम प्रिय नन्द । ददती तुझकी फिरी मैं, गिरि गुहा सुखकन्द ।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर तव पिता र्जी आज अन्तिमं, मर रहे हैं श्वास। देखने को मुख तुम्हारा, जग रही है प्रोश' तुम चलो भट पास कर दो, तुष्ट दर्शन-प्यास ।' वीर का तन भी हिलाते, यों कहा भर श्वास ॥ आत्म-रत पर वीर ने कब, ये सुने छल-छंद । वे न मोही कब जगत के, ध्यानरत निर्द्वन्द ॥ मोह-कारक कर्म-दुस्तर, कर रहे यो ध्वस्त । पा रहे अब तो अहर्निश, शुक्ल ध्यान प्रशस्त ॥ हार कर वह देव करने, अब लगा परिताप । व्यथं इनको ही सताया, साधु यह निष्पाप ॥ इन्द्र कहते ठीक थे, ये तो न शश योग्य । उच्च साधक, हाय मैं तो, देव अधम अयोग्य ।। विश्व विजयी शक्ति मेरी, ऋद्धियाँ उत्कृष्ट । आज इनके प्रात्म-बल के सामने नि:कृष्ट ॥ मोह! ऐसे सावु जन की, व्यर्थ देकर क्लेश। हद किया प्रध-कर्म-बन्धन, अब न यह निःशेष ॥ है शरण मंब कौन नग में, पाप-हर अब कौन ? मैं चलूं इनकी शरण ही, ये महात्मा 'मोने ॥ और उसने बोरं के पद में मवावा 'माय । फिर क्षमा वह मांगता है, प्रति विनय के साथ। ॥ • किन्तु सन्मति साम्य अन्तसं, रागडेष शेष । कर उर की प्रन्थियों से, "दूर दिग्वेषः ।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REET देवता भव रुद्र ने अति दैत्यगण विकराल । ये रचे निज शक्ति माया से कुडौल विशाल ।। कष्ट जिनसे दे अमित ही हो न पाया तुर। निघाइता हामी दिखायो मारने को वृष्ट ।। पर न इससे वीर अस्थिर शाम हुन गम्भीर । पारम-दृढ़ता में जड़े से व्यर्थ दु:ख समीर ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. HIST NE ला न पाई देवियां प्रभु ध्यान पर विश्वास । वे गई लेने परीक्षा, अन्त में सोल्लास ॥ नव किए श्रृगार पहुँचीं थे जहां पर वीर । छोड़ने अब तो लगीं वे काम के हग तीर ।। . x xxxxxx पास चारों मोर उनके कर रहीं वे नृत्य । गा. ..., साथ मधुमय वासना के कृत्य ।। यह मदिर मधुमय रसीला स्वर्ग का संगीत । पर न पाया वीर को यह साधना को जीत ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १४६ जब गया भव रुद्र सुरपुर, तो कही यह बात । वीरवर सम तप न जग में, है किसी का ज्ञात ॥ वे मरण से भी न हो सकते कभो भयवान । हैं डिगा सकते न उनको, देव या इन्सान ॥ देवियां वालों तमककर, बस करो भव रुद्र । हो चुकी अतिशय प्रशंसा, अब न धैर्य-समुद्र। देव नर हो कर न पाए, भ्रष्ट उनका ध्यान । क्या इसी से तुम समझते, श्रेष्ट साधु महान ॥ अप्सराओं के सजोले, रूप यौवन गात । क्या न उनपर मुग्ध जो है, नृत्य में निष्णात ॥ स्वर मधुरतम और मधुमय, भावना संगोत । क्या न उनको कर सकेगा, तप डिगा मन मोत ॥ तव नयन-शर रूप यौवन, योग सम्मुख छुद्र । कर न पाएंगे उन्हें चल,' देव बोला रुद्र ॥ ला न पाई देवियां इस बात पर विश्वास। वे गई लेने परीक्षा, अन्त में सोल्लास ॥ नव किए शृङ्गार पहुंची, थे जहाँ पर वीर। छोड़ने अब तो लगों वे, काम के दृग तोर ॥ पर न इससे विद्ध सन्मति, तप निरत निष्काम । वे पुनः करने लगों तब, नृत्य मृदु अभिराम ॥ पास चारों ओर उनके, कर रहीं वे नृत्य । पानगातों साथ मधुनय वासना के कृत्य ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० तीर्थङ्कर भगवान महावीर यह मदिर मधुरिम रसीला, स्वर्ग का संगीत । पर न पाया वीर की यह साधना को जीत ॥ किन्तु इससे अप्सराएं', हो न पाई तुष्ट । वासना की चेष्टाए', कर उठी अति पुष्ट ॥ सनिकट जा वीर के वे कर रहीं मृदु स्पर्श । कर रही अभिसार-चेष्टा, काम वृत्ति सहर्ष ॥ पर विरागी वीर वर हैं, मग्न रति-हत ध्यान । मूर्तिवत् ही देख निश्चल, देवियां हैरान ॥ वे ठगों सी देखतीं अब, है चकित-से भाव । शर्म-सी उनमें-समाई, गत हुए दुर्भाव ॥ फिर गई निज मुंह लिए-सी, देवियां ये स्वर्ग । किन्तु तप में लीन सन्मति, प्राप्त हो अपवर्ग ॥ स्वर्ग चाहिए नहीं वीर को, विपदामय संसार । उपसर्गों को झेल कर रहे, कर्मों का संहार ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलामा सन कंवलज्ञान एवं धर्मोपदेश Page #184 --------------------------------------------------------------------------  Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश वर्षों तक अति घोर, तपस्या तपकर । उपसर्गों को झल, ठेल बाधाए दुस्तर ॥ पहुचे जम्बक ग्राम वीर, ऋजुकला के तट । करते नष्ट कर्म करा हैं, वे तप में डट ॥ है वसन्त अपने यौवन की, श्री सुषमा में । चारों प्रोर वीर के विकसित, छवि आभा में ॥ उत्सव होने वाला क्या, दिखता है कोई । प्राज शुष्कता मुदित प्रकृति ने मुख से धोई॥ वातावरण महकता अपनी, रूप • सुरभि में। किन्तु रम रहे सन्मति तन्मय,निज परणति में ॥ बैठे हैं पाषाण शिला पर, शाल वृक्ष-तर । वेला माढे ध्यान हो रहा, शुभ्र शुक्लतर ॥ लो वैशाखी शित दशमी भी कम से पाई। घन प्रज्ञान अमा सम्मति ने, सहज मिटाई॥ मिटे घातिया कर्म-तमस-अणु जम्म-जन्म के। ज्योतिपुञ्ज सन्मति आत्मा में, उदित ज्ञान के। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ तीर्थङ्कर भगवान महावीर हुए वीर सर्वज्ञ ज्ञान, केवल यों पाया। काश, इसी से हर्ष चतुर्दिक, आज समाया । पाना केवल ज्ञान सरल क्या, इस जीवन में ? होते त्रिजग त्रिकाल चराचर ज्ञात कि जिसमें। स्वर्ग लोक में इन्द्रराज ने, अवधि ज्ञान से। ज्ञात किया समलंकृत सन्मति, पूर्ण ज्ञान से ॥ चला धरणि को ओर लिए निज सारा परिकर । रोम-रोम से हर्ष विहंसता, सुखकर अवसर ॥ लो, समुदाय मोद का ही, ज्यों सजकर आया । विजय, पर्व का नसे हो, त्योहार मनाया ॥ विजय,विजय यह सन्मतिकी सच विजय आत्म की इससे बढ़कर क्या हो सकती, विजय विश्व को। पाकर किया अर्चना वन्दन, अमित चाव से। दिखते पुलकित विनत सभी,अति विनय भावसे ॥ नगोपकार हित रचा इन्द्र ने उपदेशालय । समवशरण यह,मिलो सभी को शरण साम्यमय ॥ समवशरण यह देव कृत्य, अद्भत पर सुन्दर । कमल पुष्प-सा छवियुत,संस्कृत-धर्म-सुरभि-धर ॥ अग्र भूमि का वर्ण मनोहर, नग नीलम-सा । कांति निराली बृहत् क्षेत्र का,सच स्वर्गिम-सा॥ दूर जहाँ से जिन-दर्शन कर, सुर नर नमते । मानांगणा क्षेत्र अनुपम-सा, उसको कहते ।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROM NAIN CH ARH AKA जगोपकार हित रचा इन्द्र ने उपदेशालय । समवशरगा यह मिलो मभी को गरगा माम्य मय ।। xxx xxx xxx जिसके चारों ओर मभा-गृह बारह दिखते । जिसमें बैठ धर्म-ध्वनि मुन भवि भव-भय हरते ।। चार मभायें माघु प्रायिका पशु मानव को। शेष कल्प भुव म्यन्तर ज्योतिष देविदेव की । xxx xxx xxx नबन कली मी भनी बनी स्म गन्धकुटी पर । प्रत्यक्ष विभु वान विगांजे विमा विभव तर॥ शिर पर गाभिन तीन छत्र अदभूत हवि वाम । मगते है सर्वज्ञ सर्व-दशींश निराले ॥ Page #188 --------------------------------------------------------------------------  Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मोपदेश १५० चतुर्दिशाओं में कि जहाँ पर, चार वीथियो। जिनमें मानस्थम्भ देख हत मान-ग्रन्थियां । मानस्थम्भों पर शोभित हैं, जिन प्रतिमाएं । मोद-भाव से जिनको करते सुर पूजाएँ ॥ होती श्रद्धा घनीभूत है, सत्प्रभाव यह । प्रास्थानांगण कहलाता, प्रास्था-पढ़ाव यह ॥ मानस्थम्भों से मागे फिर, चार सरोवर । जल-पुष्पों से शोभित निर्मल, दिव्य हृदय-हर ॥ इससे आगे रजत कोट है, रजत वर्ण का। जिसके द्वारों पर पहरा है, व्यन्तरगण का ॥ द्वारों से भीतर अगणित ही, सजी ध्वजाएँ। लहर-फहर कर जो सन्मति को विजय जताएं। इससे बढ़कर कोष्ट दूसरा कञ्चन छवि का । प्रसरित इसके मिस प्रकाश ज्यां पहले रवि का ॥ द्वारों पर हैं खड़े भुवनवासी सुर प्रहरी। फब जाती जिनसे स्वभावतः कान्ति सुनहरी ॥ फिर उपवन है जिसमें दिखते, खड़े कल्प-तरु । बने समागह जहाँ विहरते देव साधु-गुरु ॥ कोटि तीसरा धवल फटिक-सा, इससे बढ़ कर । जिसके द्वारों पर प्रहरी-से, खड़े कल्प सुर ॥ मागे इनके बने लतागृह सुन्दर-सुन्दर । स्थान-स्थान पर दिखते हैं, स्तूप प्रादि वर ।। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर . इसके भीतर मध्य भाग में तीन पीठ पर । श्री मण्डप है बीच कि जिसके गंध कुटी वर ॥ जिसके चारों ओर सभागृह, बारह दिखते । जिनमें बैठ धर्म-ध्वनि सुन भवि भव-भय हरते ॥ चार समाएँ साधु प्रायिका, पशु मानव की । शेष कल्प,भुव, व्यन्तर ज्योतिष देवि-देव की ॥ निज थानों पर जमें जीव भवि, बाट जोहते। चातक-से, ध्वनि स्वांत बूद की प्रोर देखते ।। नवल कली सी भली बनी उस गंधकुटी पर । अन्तरीक्ष विम वीर विराजे, विमा-विभव वर ।। शिर पर शोभित तीन छत्र अद्भ त, छवि वाले। लगते हैं सर्वज्ञ सर्वदर्शीश निराले ॥ हैं आहार न नीहारों को कुछ बाधाएं। हैं सशरीरी ईश न जग की कुछ विपदाएँ । नख केशों की वृद्धि हुई इति, जीवन दमका। छाया प्रतिछाया न वहां पर प्रभ तन चमका ॥ किरणावलियां फूट रहीं, जिन-कंचन तन से। उदित हुमा न्यों सूर्य विमामय उदयाचल से ॥ मधु पराग-सी प्रभु शरीर से गंध निकलती। वातावरण सभी अनुरंजित सुरभि महकती॥ दुन्दुभि बाजे झनन-मनन से बजते रहते। मंद पवन इठलाता नम से पुष्प बरसते ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मोपदेश १५५ कल्पवृक्ष भो पास दार्शनिक-सा संस्थित है। चंवर दुर रहे अवसर अतिशत मङ्गलयुत है । किन्तु न अब तक हिलो तनिक भी गिरा वीरको। हुई न वर्षा भव्य-जनों पर वचनामृत की। सुबह गया मध्याह्न काल भी बीत गया अब । तृतीय समय अपराह्न सभा का भो लो नीरव ॥ उठा इन्द्र निज हाथ जोड़कर, खड़ा हुआ तब। फिर स्व-ज्ञान से बतलाया, जिन-मौन-हेतु सब ।। 'यद्यपि है बहु अङ्ग ज्ञान के धारी मुनिवर । किंतु प्राप्त उपयुक्त न अबतक कोई गणधर ॥ अतः आप सब रखें धैर्य, कुछ काल शांत हो। प्राप्त न जब तक विपुल बुद्धि.गणधर प्रशांत हो।' और गया देवेन्द्र खोजने, जन मेधावी । हो पाए जो मुख्य मुख्यतम गणधर भावी ॥ वह विदेह में गया जहाँ श्रीमन्धर स्वामी । समवशरण में विद्यमान, अहंत निष्कामो॥ ज्ञात किया सर्वज्ञ देव से, इन्द्रभूति द्विज । जो याज्ञिक पर निकट भव्य, दुर्मति देगा तज ॥ होगा गणधर प्रमुख वीर के, समवशरण में । पाएगा सम्यक् दर्शन जो, वीर-चरण में । आया गोर्वर ग्राम मगध में, इन्द्र सोचता । इन्द्रभूति गौतम को पाया, जीव होमता ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ve तीर्थङ्कर भगवान महावीर क्रियाकाण्ड में निरत जाति-मदमें विगलित-सा। 'विद्यामद-से रहा सदा जो संचालित-सा ॥ चकराया वह इन्द्र देख गौतम की गति यह । ‘सोच रहा किस मांति करे उसको, वश में वह ॥ 'मिकला जन-समुदाय तमो, विपुलाचल जाता। जहाँ वीर का समवशरण प्राया, जग-त्राता ॥ समझे गौतम यज्ञ हेतु, नारी-नर पाते। हुये मुदित पर देखा सब, अन्यस्थल जाते ॥ ज्ञात किया यह वीर दर्श-हित, भीड़ चली है। समझा होम-विरुद्ध कहीं यह पाखंडो है ।। सोचा जन समुदाय यज्ञ से हटता जाता । प्रतः शिष्य समुदाय-बृद्धि की आवश्यकता ॥ इसी समय आगया इन्द्र घर, देष शिष्य का । विनय सहित सम्मान किया, उसने गौतम का॥ फिर बोला श्रीमान ! सु-गुरु मम,श्लोक बताकर। समाधिस्थ हैं हुए, कर रहा याद संभल कर ॥ किन्तु न इसका अर्थ समझ में मेरे पाता। मिला न कोई नो इसका मतलब समझता ॥ प्राप अधिक विद्वान ज्ञान के ही जलनिधि हैं । आप अर्थ बतला सकते, विद्यावारिधि हैं।' श्रीगौतम जी अपने मन ही मन मुस्काए । विष्य वर्ग सम्बर्द्धन के, शुभ चिन्ह दिखाए । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम् सर्ग : केवल ज्ञान एवं धर्मोपदेश १५७ चिन्तन क्रम में कुछ प्रसन्नता लक्षण दशित । आत्म-प्रशंसा-मग्न, समुत्सुक, शिष्य-बृद्धि-हित ॥ बोले तब वे 'किन्तु रख रहे, शर्त एक हम । होना होगा शिष्य तुम्हें तब गुरु को भी मम ॥' सुनकर गौतम-शब्द. शिष्य अति साम्य-भाव से। बोला स्वीकृति-वचन सोच कुछ विनय चाव से ॥ 'मुझे शर्त स्वीकार अर्थ बतलायें, श्रीमन् ।' पढ़ा एक लघु श्लोक शिष्य ने जिसमें वर्णन ॥ तीन काल षट् द्रव्य तथा केवल, पदार्थ नव । सात तत्व. पंचास्ति काय-छः लेश्या नीरव ॥ तीन रत्न का सुनकर जिसको, गौतम के मन । नौ पदार्थ षट् द्रव्य आदि क्या, भारी उलझन । उलझन पर प्रावरण डालते, बोले गौतम । 'चलो अर्थ तब गुरु समीप ही. कर देंगे हम ।। कारण तुन अल्पज्ञ न कुछ भी समझ सकोगे। अर्थ बताने पर अनर्थ हो कर बैठोगे।' सोचा मन में अर्थ बता दंगा विवाद में । शिष्य बनेगा इसका गुरु भो, निज प्रभाव में ॥ कहा शिष्यने उचित यही हो, आप विज्ञ जन !' कार्य सिद्धि लख शिष्य रूप में इन्द्र मुदित मन ॥ अग्निभ ति, श्री वायुभ ति, युग बाधु साथ ले। शिष्य वेषभारी सुरेन्द्र मंग, गौतम निकले ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर... पहुंचे वे राजगृह के उस विपुलाचल पर। 'महाँ वीर का समवशरण प्राया, जग-हित-कर ।। किन्तु जमी वे पहुंचे, मानस्तम्भ सन्निकट । ढहा घरौंदा-सा उनका, मद-किला तुङ्ग झट । गर्व खर्व हो रहा अरे यह चमत्कार क्या ? समता वातावरण दिखाता निज प्रमाव क्या? विनय-भाव अब रंग-ढंग में, टपक रहा है। जाति-मान अब अन्तरङ्ग से, सटक रहा है.॥ बैठे जाकर वे सब जैसे, नर कोठे में। सुना उन्होंने महावीर को, दिव्य गिरा में ॥ 'गौतम शंका साल रही है, तेरे मन को । मान न पाता तेरा मन, जीवास्तित्व को ॥ छह द्रव्ये क्या नौ पदार्थ क्या, इसको उलझन । निश्चल किंतु अनादि निधन है, जीव सचेतन ॥ चेतन, पुद्गल धर्म अधर्माकाश, काल छह । द्रव्यों का ही नृत्य दिख रहा, जगतो में यह । चित जड धर्माधर्म गगन पंचास्तिकाय हैं ॥ काल प्ररूपी ही यह केवल, नास्तिकाय है ॥ जोवाजीवाश्रव बंध सु-संवर, और निर्जरा । तथा मोक्ष इन सात तत्व का शासन प्रसरा ॥ सात तत्व में पाप पुण्य यह दोनों मिलकर । हो जाते हैं नौ पदार्थ, पद अर्थ प्रर्थकर ॥' Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मोपदेश श्रवण मनोगत भावों को करें, 'असमंजस में। गौतम का मन भर प्राया, पर श्रद्धारस में। भक्ति भाव में छके हुए से, शिष्य बन गए । साथ बन्धु युग वीर चरण में, प्राज रम गए। चले बनाने शिव्य, शिष्य ही स्वयम बने अब। दिव्य नियत का खेल कि अभिनव नाटक नीरव ।। प्रश्नोत्तर कर विभु से करलो, धर्म परीक्षा। गौतम ने यों उभय भ्रातृ संग, ली जिन-दीक्षा। हुए ध्यान में लीन और पूर्वाह्न समय में । ऋषि गौतम ने पाई अपने आत्म-निलय में। सप्त लब्धियाँ बुद्धि विक्रिया प्रक्षय तप रस । ऊज और औषधि को प्रगटित,ज्ञान प्रशम रस ॥ पुरुषोत्तम ऋषि गौतमको मति अब निर्मल तर। होती जाती धवल विमल उज्वल, उज्वल तर॥ धोरे-धीरे योग्य दुए वे, गणधर पद के । और हुए वे पहले गणधर, वीर-संघ के ॥ खिरी बीर-ध्वनि श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन । विपुलाचल पर प्रथम देशना का सम्वर्षण । द्वादशाङ्ग एवं उपांगयुत, श्रुत-पद रचना । की गौतम ने और बहाया, शारद झरना । अमिसिंचित जो भव्य-क्यारियां, करता बहता। जिसमें सम्यक् सदाचरण का, पुष्प विहंसता॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० तीर्थकर भगवान महावीर आता जिस पर मोक्ष-सुफल हैं.पक्व समय है में । चिर सुख, दर्शन, ज्ञान, वीर्य होता स्वोदय में । दिव्य सु-ध्वनि यह वर्द्धमान को, सर्व गम्य जो। पक्षपात दुर्भेदभाव-हत, समतामय जो॥ शुभ प्रभात मध्याह्न और अपराह्न समय में। होता है वीरोपदेश शुभ समवशरण में ॥ वस्तु स्वभाव धर्म-सद्दर्शन, प्रात्मोन्नति मग । करता आत्म-प्रतीति खोलते, अन्तर के हग ।। दर्शाते जग प्रादि अन्त विन, नव्य न सर्जन । नव रचना संज्ञा केवल, स्वरूप परिवर्तन ॥ है प्रति वस्तु अनेक धर्म की, निखिल विश्व में । यों न सत्य के दर्शन होते, एक दृष्टि में ॥ मिटते वादविवाद जगत के स्यावाद में । सप्तभङ्ग नय दर्शाती 'सत्' निविवाद में ॥ निश्चयनय सम्यक विधि चित-जड़ भेद दिखाती। है व्यवहार दृष्टि लेकिन पर्याय बताती ॥ मिथ्या दर्शन वश यह प्राणी दुख-संसृति थित। सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चरित-मग,मोक्ष सुनिश्चित ।। है निसर्गतः प्रात्म, ज्ञान, सुख, वीर्य, दर्शयुत । विकृत अवस्था में जगती में, पर-प्रकर्ष-रत ॥ इच्छा के कारण बन्दी यह, कर्म-जेल में । निज शाश्वत पद भूल रहा-वसु कर्म मेल में । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मोपदेश १६१ कर्मों के परमाणु नष्ट हों, निखरे चेतन । हो जिनेन्द्र, हो जाए इसका ज्ञानमयो तन ॥ श्री सर्वज्ञ वचन-किरणावलि से है होता । ध्वस्त तिमिर अज्ञान हृदय, मिथ्या-निशि खोता॥ ज्ञानालोक सहज छा जाता, अन्तस्तल में । छिपते पाप-उलूक नृत-चमगादर पल में ॥ चोर कषाय न कियत चुरा पाते,आत्मिक निधि । सजग चेतना के प्रहरी रहते हैं सब विधि ।। आत्मा-चकवे का सारा है शोक, विनशता । कारण वह निज परिणति चकवी को पा लेता ॥ मानस-मानसरोवर शीतल धवल सरसता । जहाँ विवेक-सुहंस सु-गुण-मुक्ता-दल चुंगता ।। शुद्ध भाव का सरसिज सुन्दर सहज विहंसता । प्रशम मन्द मकरन्द मधुप-सा, उड़ता फिरता॥ जग के कट भ्रमजालों से अति ऊपर उठकर । चलता साधु-काफिला चिर उन्नति के पथ पर । वीतराग अरिहन्त वीर का, वृष-विहार वर । स्वतः उधर होता रहते, भवि जीव जहां पर ॥ जिधर विहार हेतु चलते, सर्वज्ञ जिनेश्वर । उधर भूलते वैर विरोधी, पशु, खग, सुर नर ॥ बिन ऋतु होते वृक्ष मंजरित, कुसुमित फलयुत । मानों सजकर प्रकृति संजोती सन्मति-स्वागत ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ तीर्थकर भगवान महावीर । दल-बादल-सी भीड़ उमड़ती, दर्शन के हित । पाती है सब समवशरण में शरण भेद-हत ॥ देव नपति या अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति न केवल । पाते प्राश्रयं वीर-चरण में प्राणी निर्बल ॥ महावीर के सभा-सदन में, पशु-से प्राणी । हैं हकदार श्रवण करने को सम जिन वाणी ॥ महावीर उपदेश सर्वहित, जीव दयामय । प्राण-अपहरण किसी भांति भी नहीं धर्ममय । जियो और जीने दो जग में सबको निर्भय । परम अहिंसां धर्म प्रकट करते ममतालय ॥ संकल्पी उद्यम-आरम्भी और विरोधी । हिंसा कार्यों का त्यागी ऋषि साधु अक्रोधी ॥ पर श्रावक-गण भी संकल्पी हिसा-त्यागी। पूर्ण अहिंसक बनने को रहते अनुरागी ॥ दिखते हैं संघर्ष कलह-विद्वष जगत के । एक परिग्रह के कारण मानव-समाज के ॥ हैं उपभोग्य पदार्थ विश्व के, सारे सीमित । उपभोक्ताओं को इच्छाए', किन्तु अपरमित ॥ विना किए परिमाण परिग्रह का कैसे जन । बन सकता है निखिल विश्व में साम्य संतुलन ॥ साम्यवाद भी दर्शाते, सन्मति स्वामी हैं। समवशरण में साम्य मूर्ति, समता-गामी हैं । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मो देिश १,६३ कहते दान करो कि सफल हो सम्पति सारो। आवश्यकता पूर्ति दूसरे को हो भारी॥ अक्षय, शास्त्र, प्राहार और भेषज सुदान दो। समझो धन्य दान अवसर बो सुकृत बीज दो। हैं पाथेय यहो भाई ! परलोक गमन में । अतः दान करते न कभी भी हिचको मन में ॥ त्याग तपस्या में जोवन का सार सन्निहित । मानव जीवन सफल इसी में, आत्मा का हित । बतलाते-भ्रम मिटा विश्व को करो निशंकित । सबसे पालो प्रेम कामना-रहित निकांछित ।। घृणा त्यागकर निविचिकित्सा रखो सौम्य तर । लोक-मूढता मेट करो अनमूढ़, दृष्टि वर ॥ पर दोषों को ढांक स्व-गुण का उपगृहन हो । श्रद्धा-विचलित मनुजों का संस्थितीरकण हो। महत जनों में भक्ति अमित, वात्सल्य भाव हो। करो धर्म की चिर प्रभावना, धर्म-चाव हो। है जग पीड़ित जन्म-जरा-मरणों के दुख से । प्रात्म मुक्ति से छुट सकता, रौरव पीड़न से। धर्म क्षमा मार्दव प्रार्जव सत शुचि संयम तप । त्यागाकिञ्चन ब्रह्मचर्य मग, जग जाता ढप ॥ शाश्वत सुख प्राप्तोपदेश, होता सन्मति का। मार्ग सहज ही मिल जाता हैं, पंचम गति का। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ तोर्थङ्कर भगवान महावीर साढ़े उन्तिस वर्ष विचर प्रभु वीर मेघ-से । बरसाते बृष-सुधा रहे, निलिप्त वृत्ति से ॥ आर्य खण्ड के मगध विदेह, ग्राम वाणिज में। अङ्ग देश पोलाश तथा कौशल, कलिंग में ॥ वत्सदेश, हेमाङ्ग क्षेत्र, अस्मक प्रदेश में । मालव, सिन्धु, सुवीर क्षेत्र, पंचाल देश में ॥ सौर और गांधार तथा उस थल, दशार्ण में । दूर यवनाथ ति क्वाथ तोय सुरभीर तार्ण में ॥ कार्ण आदि देशों में भी, सर्वज्ञ वीर का । हुप्रा धर्म संचरण, हरण भव-भ्रमण-पोर का ॥ हुआ विशद् विस्तार, चतुर्विधि वीर संघ का। मुनि आर्यिका,श्राविका-श्रावक-ग्यारह गण का । सर्व प्रमुख गणधर गौतम जी, इन्द्रभ ति थे। अग्निभ ति थे द्वितीय, तीसरे वायुभ ति थे । और शेष शुचिदत्त, अचल, माण्डव्य, प्रकम्पन । मौर्य पुत्र, मेदार्य, सु-धर्म प्रभास साधु-गण ॥ सब मिल कर चौदह हजार जन, वीर संघ में। निशि दिन रहते रंगे हुए.-से, धर्म रंग में । कुछ यूनानी फणिक वणिक, भी हुए सुदीक्षित। वीर संघ में बने शिष्य, फारस कुमार वत ॥ जहाँ जहाँ भी गया वीर का, समवशरण शुभ । वहाँ सुलभ हो गया, धर्म सम्वर्षण दुर्लभ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मोपदेश १६॥ घणिक-से सम्राट प्रतिष्ठित, श्रेष्ठि भक्त-गण। वीर-चरण में करते थे सब सफल स्व-जीवन ॥ वीर-भ्रमण से हुई क्रान्ति छूटा, उत्पीड़न । जीव-यजन मिट गया, हुआ पूरा परिवर्तन ॥ सर्व ख्यात गौतम याज्ञिक-से यज्ञ-विरत जब । स्वतः हिंसा परम धर्म में, हुए निरत सब ॥ अभय हुए पशु, नर, भग्नाश आश से पूरित । मिटी-अकाल मृत्यु जैसे, अब जीवन जीवित ॥ निस्पन्दित से हृदय हुए उनमें नव धड़कन । मिटी मलिनतम कुण्ठा मुखसे गत दुख-सिहरन । जीवन का प्रहलाद झलकता जन-आनन पर। ऋजु धार्मिक सद्वृत्ति समायी, भीतर बाहर ॥ सन्मति ज्ञान-प्रकाश कर रहा ज्योतिर्मय जग । भूले भटके सहज आ रहे सज्जीवन मग ॥ वीर चरण है अभय शरण दुखिया निबलों को। होते सब निर्द्वन्द, सुद्दढ़ सम्बल अबलों को ॥ वीर-कृपा से कुटिल क्रूरता मिट पाई है । कटु अकाल की संघटना भी घट पाई है ॥ सखे मौसम में जैसे शीतल जल बरसा । विगत विकलता झुलसन में नव जीवन सरसा ॥ मुरझाया विश्वोद्यान अब, हुआ हरा-सा । मानवता का घाव हुमा अब भरा-भरा-सा ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर दी । वीर-शासन ने जगत को, गति नवल विश्व के इतिहास की, झांकी बदल दी ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म खान निर्वाण एवं वन्दना Page #204 --------------------------------------------------------------------------  Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकोद्धार विहार बोर कर, : निष्कांक्षित पहुंचे पावा पर। धर्म-धाम-सा जो संस्थित है, प्राची में भारत-वसुधा पर ॥ प्रकृति-गोद में श्री समृद्धि-सा, विहंस रहा इसका कण-कण है। और वीर वर शुभागमन से, अमय हुआ सारा प्रांगण है ॥ सुन शुभ वीरागमन मुदित मन, ' व्यक्ति छन्द स्वागत हित गाते । सँग पावा नप हस्तिपाल मी, दर्शन पूजन कर सुख पाते ॥ मन्तिम जिन उपदेश प्राज सुन, सबने अपना भाग्य सराहा । ले सद्वत श्री वोर चरण में, भव्यों ने प्रात्मिक हित चाहा ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ तीर्थकर भगवान महावीर बार बार शत-शत बन्दन कर, लौटे सब अपने अपने थल । नैसर्गिक शुभ छटा विहंसती, वातावरण भासता निश्छल । वहाँ हृदयहारी तडाग ने, द्विगणित किया सुशोमा अश्वल । शोभित नील अरुण सित शतदल हरित पातयुत जलकण चञ्चल ॥ निकट रम्य सर के शुभ उपवन, नाम 'मनोहर' मनहर जिसका । अनुपम सुन्दरता हंसती-सी, अति अभिराम रूप मदु इसका ॥ हरी हरो हरियाली में हैं, खिले लाल पीले नीले-से । श्वेत कासनी विविध पुष्प भी, मानों अर्चा हित उद्यत-से ॥ किस महान मानव की पूजा, मौन सँजोते पुष्प मुदित मन । दिखे तभी पाषाण शिला पर, समाधिस्थ समरस सु-साधु बन । यह सन्मति प्रासीन अकेले, उपवन के एकान्त स्थान में । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना केवलज्ञानी जग विज्ञानी, निरत प्रात्म के शक्ल ध्यान में ॥ सन्मति-जीवन के बीते हैं । पूर्ण इकहत्तर साल प्रगति में । वर्ष वहत्तरवां अब चलता, प्रात्मा की अपनी परिणति में ॥ विघट चुका है समवशरण प्रब, केवल प्रात्मिक चिन्तन नोरव । नहीं ध्यान में परिकर वैभव, नहीं लोक का सुन पड़ता रव ॥ शान्तिमयी जीवन का अञ्चल, नहीं अतृप्ति बनातो चंचल । आत्मिक निधि आवरण-हीन सी, होती जाती सहसा पल-पल ॥ जीवन की संध्या प्रशान्ति में, सनी हुई-सी चली आ रहो । यह अपूर्व समता-सी विलसित, पग-पग बढ़ती बढ़ी जा रही ॥ सन्ध्या का दूसरा चरण है, चिर विश्राम रात्रि का प्राना । पर सन्मति का ध्यान शुभ्रतर, शेष कर्म-मल उन्हें खपाना ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. तीर्थकर भगवान महावीर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी-निशि, बीत रही है ढल-ढल अविरत । चिर अघातिया कर्म तिमिर भी, घात कर रहे शुद्ध ध्यान-रत ॥ शुभ विहान वेला भो क्रम-क्रम, मन्थर गति से चली आ रही । और साधना सन्मति विभु की, ___लक्ष्य दिशा को बढ़ी जा रहो ॥ शेष कर्म तारागण देखो, कुछ कुछ विघटित हुए जा रहे । चरम लक्ष्य शिवपद अरुणोदय, चिह्न सहज हो चले मा रहे । महावीर प्रात्मा ने तोड़ा, वह शेष कर्म बन्धन पिंजड़ा । उन्मुक्त विहग-सा उड़ा-उड़ा, आलोकमयो चित् ज्ञान जड़ा॥ कर गया सहज ही ऊर्ध्व गमन, सत शुद्ध बुद्ध निर्मल चेतन । तन-गह से अब शिव सौल्य-सदन, __ पहुंचा लहराया जय-केतन ॥ 'जय जय जय बोली सुर नर ने, निर्वाण-धाम-गामी की जय । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना झूमते भक्ति में बोल रहे श्री महावीर स्वामी को जय ॥ जय जय जिनवर, जय जय जिनेन्द्र, जय जय जगत्राता जगन्नाथ । जय परमात्मा पावन प्रकाम, जय उच्चारित उत्साह साथ ॥ प्रतिध्वनित हुमा भू-नम मण्डल, 'जय जय' ध्वनि की लहरें चञ्चल । पर सन्मति विभु ने सच पाया, विर सौख्य स्थान प्रक्षय अविचल । देवों ने रत्न विकीर्ण किए, झिलमिल झिल मिल जगमग-जगमग । पालोकमयो अब भूमि-गगन, उपदेश वोर का ज्योतिर्मग ॥ यह मङ्गलमय मङ्गल का दिन, हो गया माङ्गलिक पर्व पूत । __ सन्मति-सन्देश लिए बहता, उन्मुक्त समीरण शान्ति-दूत । प्राची में छाई परणाई, क्या प्रात्म-ज्योति का ही दर्शन ? क्या सूरज के मिस मुक्त वीर, के ज्ञान-पुञ्ज-रवि का उवयन ? Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ तीर्थकर भगवान महावीर यह ज्ञानोदय का नवल प्रात, अज्ञान-प्रमा-तम सहज घात । सत् स्वणिमांशु का मृदु प्रसरण, वह चला ज्योति का नव प्रपात ॥ छाया प्रकाश अवनी तल पर, नूतन प्रामा-सी छिटक गई । खग-रव में कौन प्रभाती स्वर? श्रत-मधुर सुरीली तान नई ॥ संयोग अनौखा एक और, इस महावीर निर्वाण दिवस । श्री गौतम केवल-लक्ष्मी-युत, घातिया कर्म-गढ़ गया विनस ॥ भगवान बोर की संस्मति के, ताजी प्रकाश में भक्त-हृदय । श्रद्धा से भर-भर पाते हैं, कर रहे अर्चना सब सविनय ॥ स्वाभाविक ही कवि कण्ठों से, निस्सृत जिनवर प्रति भक्ति छंद ।। पावन स्वर-लहरी-सरिता में, सब मग्न नहाते मविक-वृन्द ।। गायक गढ़ अपने गीत रहे, प्रभु वोर-वन्दना में ललाम । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना १७३ गाते जिनको पञ्चम स्वर में, कुछ जन पढ़ते जिन सहसनाम । झन-झन ढ़प झांझ मृदंग आदि, वादित्र बज रहे सरगम मय । जिनके स्वर साथ साथ होते, श्रद्धा गायन मधुरिमलय मय ॥ यह भक्ति भाव आवेग देव ! तब सुगुण कथन का कहाँ अन्त । चाहे तन रोम-रोम बोले, बन लक्ष वाणियां, गुण अनन्त ॥ पर श्रद्धा में अभिभूत हए, अपनी सीमित वाणो में हो। गा तव यश करते तोष अमित, है भक्त जनों को बहुत यही ॥ तव संस्तुति है पीयूष कि जो देता शाश्वत अमरत्व सदन । सम्यक्त्व सहज दृढ़ हो जाता, होती कुमृत्यु को भीति शमन ॥ कर पान भक्ति की अजुलि सेवचनामृत, भक्त सबल बनता । भगवान स्वयं भी बनने को, सन्मति-पग-चिह्नों पर चलता ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ तोर्थङ्कर भगवान महावीर है भक्ति आपकी किंकर को, सच पाप तुल्य ही कर लेती। यह अक्षय समता का प्रयोग, भौतिकता क्या समता देतो? कोई भौतिक प्रमिलाष नहीं, केवल निःश्रेयश का साधन । सन्मति - अनुगामी चाहेगा, कब तुच्छ-तुच्छतम जग-जीवन ।। स्वातंत्र्य चिरन्तन सन्मतिवत्, चाहिए पूर्णपद प्रात्मा का। जिससे जग-पीड़ित पुरुष स्वयं, पा ले स्वरूप परमात्मा का ॥ जिसने तव भक्ति-स्वाद पाया, वह कैसे प्रात्मिक रस ढोले ? जिसने क्षीरोदक पान किया, __ वह कैसे खारी जल पीले ? हे देव ! न जग में दिखता है निस्पृही आप-सा उपकारी । तव जीवन का प्रत्येक चरण, उन्नति-सोपान बना भारो ॥ है कौन मोक्ष का मग, जिनेन्द्र ! अतिरिक्त मापके वर्शाता ? Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना १७५ जैसी कि आपकी विमल छांह, अन्यत्र कहीं यह जग पाता ? संस्मरण मात्र से होता है, गुरु पाप-ताप का वेग शान्त । जैसे फुहार से मिट जाती, __ अति ग्रीष्म-तपन की जलन क्लान्त ॥ प्रति रोग शोक जल अग्नि प्रलय, भोषण रण विपति बार बर्बर । तब भक्ति समक्ष न रुक पाते, ज्यों भगता तम पा ज्योति जगर ॥ इस भांति वीर का विशद् विरुद, करते अनुभव कहते प्रशस्त । संस्तवन भजन या कीति-कथन, जय-माल-गान में लोग व्यस्त ॥ प्रभु वीर चिन्तवन-चर्चा में, भवि जीव समय यों विता रहे। सन्मति निर्वाण-प्रसंग आज, निर्वाण पर्व हैं मना रहे ॥ निर्वाण-न कोई गम का क्रम, शाश्वत सुख का शाश्वत उद्गम । समरसता का प्रक्षय विहान, चिर दर्श, नान, बल, सुख-संगम ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ तीर्थङ्कर भगवान महावीर इस भौतिक जग में भी रहता, शव रूप न जो दुख उद्दोपक । पुद्गल अणु स्वयं विखर जाते । रहते जो प्रात्मा के बाधक ॥ इसलिए प्रशम मुद मृदुल लहर, सब ओर थिरकती-सी रहती । प्रात्मिक उन्नति की वेला में, प्राह लाद पूर्ण संस्थिति रहती ॥ आनन्दमयी अभिनय होते, जिनमें शाश्वत-प्रानन्द झलक । झीनी सुखमयो झलक पड़ती, लखते जिसको दर्शक अपलक ॥ सन्मति पग-चिह्नों के अनुचर, सब रंक-राव, उन्नत-अवनत । अन्तर कालुष्य मिटाने को, हृद-दीप जलाने को उद्यत । लो, शनैः शनैः दिन बीत गया, अलसाई सन्ध्या मुस्काई । निर्वाणज्योति को प्राभा में, ____ आलोक सु-चोर पहन आई । सब नगर-डगर-घर दीप जले, : प्रारम्भ हो गई दीपावलि । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना १७७ जग जगर-मगर हर तिमिर-प्रहर, नतित प्रकाश को किरणावलि ॥ तिल-तिल चल चल अपने में जल, यह जना रही अत्मिक प्रकाश । निज प्रात्म-ज्योति से ध्वस्त करो, अज्ञान तमस का जटिल पाश । आत्मिक विकास की शिखा सजग, सन्मति-प्रकाश है दिखा रही। निज-पर-कल्याण हेतु जीवन, उत्सर्ग सबक है सिखा रही ॥ आलोकमयी जीवन का क्रम, तम भी होता जाता स्वणिम ।। सद्गुण प्रतीक-सा यह अनुपम, स्वगिक वैभव भी इससे कम ॥ यह त्याग-ज्योति का प्रख्यापक, विभु वर्तमान की कीति-किरण । ज्योतिर्मय अन्तर-बाह्य सभी, रे धन्य ! वीर शिव-रमा-वरण ॥ प्रभु धन्य धन्य सन्मति स्वामी, जिनवर जिनेन्द्र विभु निष्कामी। शाश्वत सु-शान्ति निधि अभिरामी. शिवपद दर्शक शिवपथगामी ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ तीर्थकर भगवान महावीर जीवन में अहंत महावीर, फिर जीवनान्त पर सिद्ध सफल । मानवता को मृदु मूर्ति सुभग, दलितों दोनों के प्राण विकल ॥ पीड़ित की प्राहों के धीरज, शोषित के सब शोषण शोषक । आश्रय होनों के दृढ़ आश्रय, पापी - उद्धारक - पथ - पोषक ॥ अबलम्ब चाहकों के सम्बल, मानव - मानवता - उन्नायक । पशुता के बर्बर बार क्षार, सज्जीवन के प्रभु परिचायक ॥ मानवोत्कर्ष के चिर प्रकर्ष, शुचितम सात्विक जीवनादर्श । पालादपूर्णतम मूर्त हर्ष, निस्सोम क्षीण विश्वापकर्ष ॥ युग युग में सम्यक् मग हष्टा, सम्यक् दर्शन के दृष्य चित्र । सम्यक श्रद्धा के मूर्त पात्र, सदज्ञान-दान-दाता सुमित्र ॥ सुख-शान्ति उदधि के लहर-लास, अति पतितों के श्वासोच्छवास । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना १७६ शुचि सत्य अहिंसा के विकास, सत् ज्ञान-द्वीप के चिर प्रकाश ॥ विश्वोद्धार-सरसिज-सु-हास , निस्पृहता, समरसता सु-वास । प्रभु लोक-रजना से उदास, चिर सुख-दर्शन-बल-ज्ञान-वास ॥ हिंसा रजनी को शरच्चन्द्र, __ अत्याचारों के प्रतिद्वन्दो । सद्दया-तीर्थ के तीर्थङ्कर, शुभ सत्य शांति के अभिनन्दी॥ प्रभु! पर पीड़ा हेमन्त हन्त, जग-हित हरियाली के बसन्त । __ कट क्लेश कलह के पूर्ण अन्त, शुभ मोक्ष लक्ष्मी के सु-कंत ॥ मव-सिन्धु तरण को वारियान, विभु ! सत्य शिवं सुन्दर मय । रे, जगजननी के सफल पूत, हे वीतराग ! हो गए अभय ॥ सब कालों में आदर्श प्रमल, चिर उन्नति के अति उच्च भाल । गत प्रागत और अनागत में, सुखप्रद प्रशान्ति के प्रमर लाल ।। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० तीर्थङ्कर भगवान महावोर सद्धर्म सुस्वर सु-मधुर सरगम, वाणी कल्याणी तव प्रकाम । हे सहस नाम धारी ललाम, तुम निरुपमान उपमान-नाम ॥ कवि की वाणी के अलङ्कार, कवि के कवित्व के काव्य सुघर । कवि के गानों के चिर गाने, फिर भी कवि प्रज्ञा के बाहर ॥ फिर कैसे गरिमा-गायन हो, कसे असोम ! अभ्यर्थन हो । कसे अभिनन्दन पद-वन्दन, कैसे श्रद्धांजलि अर्पण हो । निस्सीम देव ! सीमित वाणी, यश-गान न कुछ भी बन पाता । श्रद्धालु विनत अन्तस लेकिन, जय बोल झुका शिर सुख पाता। जय जय जय जयवन्त सदा त्रिशला-नन्दन । जय जय जय जय जगवंद्यनीय शत् शत् वंदन ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- _