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षष्टम् सर्ग : अभिनिष्क्रमण एवं तप १४६ जब गया भव रुद्र सुरपुर, तो कही यह बात । वीरवर सम तप न जग में, है किसी का ज्ञात ॥ वे मरण से भी न हो सकते कभो भयवान । हैं डिगा सकते न उनको, देव या इन्सान ॥ देवियां वालों तमककर, बस करो भव रुद्र । हो चुकी अतिशय प्रशंसा, अब न धैर्य-समुद्र। देव नर हो कर न पाए, भ्रष्ट उनका ध्यान । क्या इसी से तुम समझते, श्रेष्ट साधु महान ॥ अप्सराओं के सजोले, रूप यौवन गात । क्या न उनपर मुग्ध जो है, नृत्य में निष्णात ॥ स्वर मधुरतम और मधुमय, भावना संगोत । क्या न उनको कर सकेगा, तप डिगा मन मोत ॥
तव नयन-शर रूप यौवन, योग सम्मुख छुद्र । कर न पाएंगे उन्हें चल,' देव बोला रुद्र ॥ ला न पाई देवियां इस बात पर विश्वास। वे गई लेने परीक्षा, अन्त में सोल्लास ॥ नव किए शृङ्गार पहुंची, थे जहाँ पर वीर। छोड़ने अब तो लगों वे, काम के दृग तोर ॥ पर न इससे विद्ध सन्मति, तप निरत निष्काम । वे पुनः करने लगों तब, नृत्य मृदु अभिराम ॥ पास चारों ओर उनके, कर रहीं वे नृत्य । पानगातों साथ मधुनय वासना के कृत्य ॥