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________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर तृप्त न फिर भी निनिमेष वह, रहा निरखता छवि अनुपम । शेष रही फिर भी नेत्रेक्षा, शिशु सजीवता यह अनुपम ॥ किन्तु अन्त में मायामय-सी, निद्रा में कर त्रिशला को । की नियुक्त कुछ सुर-बालाएं, माँ श्री की परिचर्या को ॥ फिर निर्मित कर शिशुस्वरूप-सा एक वत्स मायावी जो । उठा लिया नव वत्स शची ने, लिटा दिया शिशु कृत्रिम को । क्योंकि इन्द्र को न्हवन हेतु था, _ 'शिशु' सुमेरु तक ले जाना। इस अन्तर में अतः किसोको, पड़े न सुत वियोग सहना ॥ ऐरावत गज पर शिशु संग ले, सुभग इन्द्र ने गमन किया। अगणित देवों ने भी उसका, मोद सहित अनुसरण किया ॥ गाजे बाजे साथ साथ ही, नृत्य-गान होते जाते।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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