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तीर्थकर भगवान महावीर
या के मिस हो रहा जो, दुष्ट जन का स्वार्थ साधन । मुझे जिसका पूर्ण करना, धर्म के ही पंथ विघटन ॥
मैं न हिंसा को मिटाना, चाहता हूँ हिल जल से। मैं बुझाऊंगा अनल यह, मृदु अहिंसा के सलिल से ॥
प्रतः मुझको इष्ट प्रब है, नहीं परिणय यह रचाना। ब्रह्मचर्यावर्श
मुझको, विश्व के हित है दिखाना ॥
मूक थी त्रिशला सुदेवी, किन्तु नपवर ने कहा यों। . 'राज्य का आदर्श भो तो, तुम्हें रखना चाहिये यों ॥'
किन्तु सन्मति ने कहा यों, 'राज्य तो संसार बन्धन । नित बढ़ाता और रचता, कर्म का यह जाल क्षण-क्षण ॥
राज्य लिप्सा, भोग लिप्सा, मिटी किसकी इस जगत में ।