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________________ १५२ तीर्थङ्कर भगवान महावीर हुए वीर सर्वज्ञ ज्ञान, केवल यों पाया। काश, इसी से हर्ष चतुर्दिक, आज समाया । पाना केवल ज्ञान सरल क्या, इस जीवन में ? होते त्रिजग त्रिकाल चराचर ज्ञात कि जिसमें। स्वर्ग लोक में इन्द्रराज ने, अवधि ज्ञान से। ज्ञात किया समलंकृत सन्मति, पूर्ण ज्ञान से ॥ चला धरणि को ओर लिए निज सारा परिकर । रोम-रोम से हर्ष विहंसता, सुखकर अवसर ॥ लो, समुदाय मोद का ही, ज्यों सजकर आया । विजय, पर्व का नसे हो, त्योहार मनाया ॥ विजय,विजय यह सन्मतिकी सच विजय आत्म की इससे बढ़कर क्या हो सकती, विजय विश्व को। पाकर किया अर्चना वन्दन, अमित चाव से। दिखते पुलकित विनत सभी,अति विनय भावसे ॥ नगोपकार हित रचा इन्द्र ने उपदेशालय । समवशरण यह,मिलो सभी को शरण साम्यमय ॥ समवशरण यह देव कृत्य, अद्भत पर सुन्दर । कमल पुष्प-सा छवियुत,संस्कृत-धर्म-सुरभि-धर ॥ अग्र भूमि का वर्ण मनोहर, नग नीलम-सा । कांति निराली बृहत् क्षेत्र का,सच स्वर्गिम-सा॥ दूर जहाँ से जिन-दर्शन कर, सुर नर नमते । मानांगणा क्षेत्र अनुपम-सा, उसको कहते ।।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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